2013 में जेलर की हैसियत से बाराबंकी जेल में मेरी तैनाती हुई थी. रोजाना रात में मैं जेल की गश्त पर निकलता था. दिसंबर की उस रात की हाड़ कंपाती ठंड से बचने के लिए जेल का हर कैदी गुड़ी-मुड़ी होकर काले मोटे कंबलों की आगोश में था. जेल की बैरकें सींखचों से बनी होती हैं ताकि हर कैदी को बाहर से देखा जा सकता है. ठंडी हवा से बचाव के लिए इन्हें तीन से चार कंबल दिए जाते हैं.
उस रात गश्त करते हुए मेरी नजर एक बैरक के अंदर जाकर टिक गई. वहां एक आदमी मोटे ऊनी काले कंबल पर बिना कुछ ओढ़े औंधा लेटा हुआ था. बदन पर केवल एक बदरंग स्वेटर और कमर के नीचे पटरेवाला जांघिया था. इसके पहले कि मैं अपने साथ ड्यूटी पर चल रहे सिपाही से कुछ पूछता, वो मुझे हैरान देखकर खुद ही बोल पड़ा, ‘अरे! इ तो लोहा है साहब.’ तब तक बैरक के अंदर पहरा लगा रहा कैदी पहरेदार शफीक भी वहां आ गया और बोला, ‘अभी-अभी गिना साहब इस बैरक में सभी 59 कैदी ठीक-ठाक हैं.’ मैं नाराजगी से बोला, ‘ठीक-ठाक कहां सो रहे हैं सब, इस कैदी को तो ओढ़ने को कंबल भी नहीं मिला है शायद.’ ‘अरे नहीं सर! ये कभी कुछ नहीं ओढ़ता, इसे कई बार तीन-तीन कंबल दिए गए हैं, लेकिन हर बार ये उन्हें चौपत कर सिरहाने पर रख देता है. रात में कोई ओढ़ा भी दिया तो फिर फेंक देता है. इ अइसहिं रहता है सब दिन.’ शफीक बताता जा रहा था और मेरी हैरानी का कोई ठिकाना नहीं था, ‘अरे देखो! ठीक-ठाक है भी कि नहीं.’ ‘हां, सर बिल्कुल फिटफाट है.’
ये तसल्ली होने पर कि वह व्यक्ति जिसे सब लोहा बुलाते हैं, सकुशल है और बिना कुछ ओढ़े सोने के लिए उसने अपने जिस्म को ढाल रखा है, मैं आगे बढ़ गया और बैरक के दूसरे छोर पर शफीक को इशारे से बुलाकर पूछा, ‘यह कैदी ऐसे क्यों रहता है?’ शफीक ने बताना शुरू किया, ‘आप नए हैं न साहब, वरना इस कैदी को सभी जानते हैं. नंगे पैर, नंगे सिर, वनमानुष की तरह रहता है. अभी सुबह होने दीजिए, सबसे पहले उठकर नहा धोकर अलाव जलाकर रख देगा, जब तक सब कैदी तापेंगे तब तक लोहा झाड़ू लिए सारी बैरक, अहाता, नाली साफ करके रख देगा. इसके बाद पूरे दिन निराई, गुड़ाई करते खटता रहेगा. सफाई के लिए कोई और झाड़ू या कुदाल उठाता नहीं कि लोहा की आंखें उसे घूर कर ऐसा न करने की समझाइश दे देती हैं. बदन तो देख ही रहे हैं आप (लोहा की कद-काठी अच्छी खासी थी) लेकिन आज तक उसने किसी कैदी को कोई तकलीफ नहीं पहुंचाई. उल्टा बंदियों के बीमार होने पर उनकी पूरी सेवा करता है.’
आजीवन कारावास की सजा काट रहे लोहा से घरवाले यदा-कदा ही मिलने आते हैं. उसे न किसी ने कभी खुश देखा, न उदास
इस कहानी को जानकर लोहा की जिंदगी में मेरी दिलचस्पी बढ़ती ही जा रही थी. मैं गश्त खत्म कर घर आकर रजाई में लेट तो गया मगर मन अब भी लोहा और उसकी कहानी जानने के लिए बेचैन था. सुबह आॅफिस (जेल) पहुंचते ही सबसे पहले मैंने वो रजिस्टर मंगाया जिसमें बंदियों का समूचा ब्योरा दर्ज रहता है. लोहा का नाम रजिस्टर में भी लोहा ही दर्ज था-लोहा, पुत्र बृजकिशोर, उम्र 48 वर्ष, धारा 302 आईपीसी के तहत आजीवन कारावास की सजा से दंडित.
इसके बाद मैंने एक सिपाही से लोहा को बुला लाने को कहा. सुबह के वक्त नहाया धोया हुआ लोहा काले ग्रेनाइट के बुत की तरह चमक रहा था. आॅफिस में काम करने वाले राइटर ने उसके सामने ही बताना शुरू किया कि लोहा को अपने गांव के किसी आदमी की हत्या के जुर्म में आजीवन कारावास हुआ है. घरवाले यदा-कदा ही मिलने आते हैं, लेकिन लोहा उनसे भी केवल इशारों में बात करता है. घरवाले जो सामान उसे देते हैं, वह दूसरे बंदियों में बांट देता है. लोहा को न किसी ने कभी खुश देखा, न उदास, न रोते, न हंसते. उसे बस थक के चूर हो जाने तक किसी न किसी काम में खटते देखा गया था. बारहों मास दोनों समय नहाना. मैं लोहा के कंधे पर हाथ रखकर उससे बात करने की कोशिश कर रहा था. मगर लोहा मेरी आंखों में अपनी पथरीली आंखें धंसाए बिल्कुल बुत बना खड़ा रहा. मैंने उसकी ठुड्डी हाथ से ऊपरकर स्नेह से कहा, ‘लोहा! कुछ तो बोलो यार.’ जवाब में उसकी पथरीली आंखों से पिघलते हुए आंसू टप टप कर बहने लगे. कुछ बूंदें मेज के खुले पड़े उस रजिस्टर के पन्ने पर जा पड़ीं, जहां उसके जुर्म का ब्योरा दर्ज था. यह खराब न हो जाए, इस गरज से लोहा ने हाथ से तुरंत आंसू की वो बूंद पोंछ दी. यूं भी पश्चाताप के इन आंसुओं से कागज पर लिखी सख्त तहरीरें कहां पसीजनी थीं. उसने अतीत में जो भी किया है, लेकिन अब जब भी उसकी ओर देखता हूं तो उससे जिंदगी को लोहे की तरह जीने की हिम्मत लगातार मिलती है.
(लेखक बाराबंकी जिला कारागार में डिप्टी जेलर हैं)