॥ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
यह गीताप्रेस, गोरखपुर की ओर से प्रकाशित और देशभर में प्रसारित होने वाली ‘श्रीमदभगवतगीता’ के अध्याय दो का 47वां श्लोक है. इसका अर्थ है- तेरा कर्म में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं. इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो. इसके अर्थ की और व्याख्या करें तो इस श्लोक में चार तत्व हैं. पहला, ‘कर्म करना तेरे हाथ में है’. दूसरा, कर्म का फल किसी और के हाथ में है. तीसरा, कर्म करते समय फल की इच्छा मत कर और चौथा फल की इच्छा छोड़ने का यह अर्थ नहीं है कि तू कर्म करना भी छोड़ दे.
इस हिसाब से लगता है गीताप्रेस प्रबंधन ने इस श्लोक और इसमें निहित अर्थ को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया है. तभी तो ‘फल’ यानी वेतन को लेकर पिछले कुछ महीनों से कर्मचारियों ने प्रबंधन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. इस कहानी के दो पहलू हैं. कर्मचारियों के नजरिये से देखें तो यह उनके अधिकारों के हनन की दास्तां बयां करता है. दूसरा पहलू गीताप्रेस प्रबंधन का है जो मामले में खुद को पाक-साफ बता रहा है. वहीं प्रशासन कह रहा है कि सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है. आपसी खींचतान की ये कहानी पिछले साल तीन दिसंबर को लोगों के सामने आई, जब वेतन विसंगति को लेकर कर्मचारियों ने धरना प्रदर्शन किया.
इस लड़ाई की पड़ताल करने पर पता चला कि इतिहास में इसकी जड़ें कई दशक गहरी हैं. कोलकाता के गोबिंद भवन ट्रस्ट की ओर से गीताप्रेस का संचालन किया जाता है. इस ट्रस्ट की ओर से ऋषिकेश में गीता भवन के नाम से कुछ फर्म जैसे- सत्संग केंद्र, आयुर्वेदिक दवा की दुकान और कपड़े की एक दुकान चलाए जाते हैं. वार्षिक वेतन वृद्घि और वेतन विसंगति की असल लड़ाई गीता भवन को लेकर ही है. कर्मचारी नेता मुनिवर मिश्र बताते हैं, ‘इन फर्मों के कर्मचारियों को पूरे वेतन पर 10 प्रतिशत वृद्घि, 100 रुपये की विशेष वृद्घि और 10 प्रतिशत का एचआरए (मकान किराया भत्ता) अलग से मिलता है मगर गोरखपुर में इस तरह की कोई भी सहूलियत कर्मचारियों को नहीं दी जाती.’ कर्मचारियों की मांग है कि प्रदेश सरकार की ओर से जारी न्यूनतम वेतन के जीओ को लागू करने के साथ वार्षिक वेतन वृद्घि, आवास भत्ता, जैसे गीता भवन, ऋषिकेश में लागू किया गया है, वही सुविधा गीताप्रेस की सभी यूनिटों पर बिना किसी भेदभाव के समान रूप से लागू की जाए. इसके अलावा गीताप्रेस में कैंटीन खोलने की मांग भी कर्मचारियों ने रखी थी.
वेतन को लेकर प्रबंधन की ओर से की जा रही गड़बड़ियों की कोई जांच नहीं हुई थी. जांच इस बात की हुई थी कि गीताप्रेस में मैन पावर कितना है. वहां कैंटीन खोली जाए या नहीं. इसी की जांच हुई थी. कैंटीन खोलने का मामला था. प्रबंधन का कहना था कि 500 से कम कर्मचारी हैं. फिर जांच हुई तो 500 से ज्यादा कर्मचारी पाए गए थे. इसके बाद प्रबंधन का कहना था कि इसमें ज्यादातर ठेके के कर्मचारी है. समझौते में एडीएम सिटी ने आदेश कर दिया कि संख्या ज्यादा हो या कम, फिलहाल आप कैंटीन खोलिए. वेतन के मामले की जांच को लेकर जिलाधिकारी से अनुमति लेनी होती है. इसके लिए हमें किसी तरह की अनुमति नहीं थी. उनकी मांगों के दो-तीन बिंदु श्रमायुक्त कानपुर को भेजा गया है. उस पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है. अगर कर्मचारी वेतन विसंगति की जांच होने की बात कर रहे हैं तो इसमें मैं क्या कह सकता हूं. ये तो उन्हीं से पूछा जाना चाहिए
आरसी गुप्ता, उप श्रमायुक्त गोरखपुर
गीताप्रेस में इन दिनों 200 से ज्यादा स्थाई और 400 से ज्यादा अस्थाई कर्मचारी हैं. कर्मचारियों के अनुसार प्रबंधन प्रदेश सरकार की ओर से जारी हर पुनरीक्षित न्यूनतम वेतन राजाज्ञा (जीओ) को चुनौती देता रहा है. इस संबंध में 31 मई 1992 को जारी जीओ को गीताप्रेस की ओर से इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी. इसकी सुनवाई 19 वर्षों तक चली. मामले में 23 दिसंबर 2010 को निर्णय देते हुए गीताप्रेस की याचिका हाई कोर्ट ने खारिज कर दी. हाई कोर्ट ने 31 मई 1992 को जारी जीओ को पूरी तरह से वैध ठहराया था. कर्मचारी नेता रवींद्र सिंह बताते हैं, ‘इस निर्णय के आने के बाद भी प्रबंधन ने इसे लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई. इसके बाद सितंबर, 2011 में कर्मचारियों की मांग पर उप श्रमायुक्त गोरखपुर ने गीताप्रेस की स्थलीय जांचकर मामले की रिपोर्ट दी. रिपोर्ट में प्रबंधन को न्यूनतम वेतन देने के नियम का उल्लंघन करने का दोषी ठहराया गया था.’ हालांकि उप श्रमायुक्त गोरखपुर आरसी गुप्ता इस बात का खंडन करते हुए कहते हैं, ‘मेरे कार्यालय में सिर्फ कैंटीन बनाने को लेकर हुए विवाद का निपटारा हुआ था. वेतन विसंगति की जांच मेरी ओर से नहीं की गई थी.’
वेतन विसंगति को लेकर हम लोगों का आंदोलन चल रहा है. इस साल की शुरुआत में प्रशासन का हस्तक्षेप हुआ तब बातचीत के बाद हमने एक-दो महीने के लिए आंदोलन स्थगित कर दिया था. अब हमने प्रबंधन को मांगें पूरी करने के लिए 30 जून तक का समय दिया है. उसके बाद हम आंदोलन को आगे बढ़ाएंगे. हमने मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया है और जिलाधिकारी को भी पत्र लिखा है. जिलाधिकारी ने कर्मचारियों से कहा था कि आप लोग एक-दो महीने शांत रहिए. उसके बाद जो उचित होगा किया जाएगा. गीताप्रेस की व्यवस्था के बारे में प्रशासन को उन्होंने (प्रबंधन) एकतरफा बात बताई है. हम लोगों का पक्ष सुना नहीं गया. हम लोग किसी भी कीमत पर अपना आंदोलन वापस नहीं लेंगे. चाहे उसके लिए अपनी जान देनी पड़े या कुछ भी करना पड़े. हम लोगों की शर्तें पूरी हुए बिना हम किसी के धमकाने से पीछे हटने वाले नहीं
रमन कुमार श्रीवास्तव, कर्मचारी नेता, गीताप्रेस
बीते साल तीन दिसंबर को कर्मचारियों का गुस्सा एक बार फिर फूट पड़ा. कर्मचारियों ने शहर के कुछ दूसरे मजदूर संगठनों के साथ मिलकर जुलूस निकाल कर जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना-प्रदर्शन किया. कर्मचारियों ने वेतन विसंगति खत्म करने की मांग पूरी होने तक आंदोलन जारी रखने का संकल्प लिया था. हालांकि उस वक्त जिलाधिकारी रंजन कुमार ने आश्वासन दिया था कि प्रबंधन से बातचीत कर असहमतियों को सुलझा लिया जाएगा. इसके बाद कर्मचारियों ने धरना खत्म कर दिया था. आवाज बुलंद कर रहे गीताप्रेस के कर्मचारियों के जुलूस में माध्यमिक शिक्षक संघ, डेली मजदूर संघ, मजदूर बिगुल दस्ता, नौजवान सभा व चीनी मिल मजदूर यूनियन के कार्यकर्ता भी शामिल हुए थे. उस दिन कर्मचारियों ने सामूहिक अवकाश लेकर यह प्रदर्शन किया था. इसके बाद मामला शांत हो गया, लेकिन कर्मचारियों की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.
कर्मचारियों के अनुसार, इसके विरोध में 16 दिसंबर को प्रबंधन ने गीताप्रेस के तीन कर्मचारियों को बर्खास्त करते हुए यहां अनिश्चितकालीन तालाबंदी कर दी. मुख्य गेट पर ताला लगा हुआ था और एक नोटिस चस्पा था, जिसमें तीन दिसंबर के धरना प्रदर्शन का हवाला देते हुए ये कार्रवाई करने का हवाला दिया गया था. नोटिस के अनुसार, ‘कर्मचारियों ने बिना सूचना दिए प्रदर्शन व जुलूस निकाला, यह उत्तर प्रदेश औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 6 (एस) का उल्लंघन है. उत्तर प्रदेश औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 6 (एस) (3) प्रबंधन को तालाबंदी घोषित करने का अधिकार देती है. इस अराजक माहौल में प्रतिष्ठान चलाना संभव नहीं है. कभी भी कोई अप्रिय घटना घट सकती है. इसलिए प्रबंध तंत्र ने अनिश्चितकालीन तालाबंदी का निर्णय लिया है.’ इसकी वजह यह थी कि उन्होंने 15 दिसंबर को वेतनवृद्घि और वेतन विसंगति को लेकर जिलाधिकारी को एक मांगपत्र सौंपा था. तालाबंदी के खिलाफ कर्मचारियों ने एक बार फिर जिलाधिकारी से गुहार लगाई. कर्मचारियों को बर्खास्त करने के पहले उन्हें नोटिस भी नहीं दिया गया था. तब जिलाधिकारी ने तालाबंदी व कर्मचारियों की बर्खास्तगी को गैरकानूनी बताया था. मुनिवर मिश्र बताते हैं, ‘जिलाधिकारी को मांगपत्र सौंपना प्रबंधन को नागवार गुजरा था. इसके अगले दिन 16 दिसंबर, 2014 को जब हम काम करने के लिए गीताप्रेस पहुंचे तो मेन गेट पर ताला लगा हुआ था. साथ ही प्रेस में अनिश्चितकालीन बंद को लेकर एक नोटिस लगाया था, जिसमें प्रबंधन की ओर से बताया गया था कि तीन कर्मचारियों- मैं और मेरे दो साथी वीरेंद्र सिंह और रामजीवन शर्मा को बर्खास्त कर दिया गया है.’ वह कहते हैं, ‘हमने एक बार फिर जिलाधिकारी से मामले में हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई. जिसके बाद 17 दिसंबर 2014 को गीताप्रेस में अनिश्चितकालीन तालाबंदी को हटाने के साथ बर्खास्त कर्मचारियों की पुनर्बहाली का आदेश दिया गया. इसके बाद 24 दिसंबर 2014 से 19 मार्च 2015 तक उप श्रमायुक्त कार्यकर्ता से अपर जिलाधिकारी (नगर) की अध्यक्षता में बातचीत के कई दौर चले. इसमें जीओ के मुताबिक जिन मुद्दों पर सहमति नहीं बन पाई थी, उसे अपर श्रमायुक्त, कानपुर के मार्गदर्शन के लिए भेजा गया.’
‘प्रबंधन के लोग अब तानाशाही पर उतर आए हैं. पहले गीताप्रेस में इन लोगों ने हंगामा करवाया अब गीता भवन में हंगामा करवा रहे हैं. इन सबका कोई मतलब नहीं है. लगभग 20 सालों से हमें वार्षिक वेतन वृद्घि मिलती थी, जो इस साल नहीं दी गई. बगैर किसी कारण के इन लोगों (प्रबंधन) ने इसे बंद कर दिया. जब इन लोगों से बात की गई तो इनका एक ही जवाब था कि हम लोग वेतन वृद्घि नहीं देंगे, आप लोगों को जैसा करना है कर लीजिए. इसके बाद कई बार प्रबंधन से बात करने की कोशिश की गई, लेकिन उनकी एक ही रट थी कि इस मामले को लेकर हमसे बात करने के लिए मत आइए. मजबूरी में हमें जनप्रतिनिधियों को बीच में लाना पड़ा. जनप्रतिनिधियों से भी उन्होंने अंट-शंट बात की तो हंगामा शुरू हो गया. इस पर प्रबंधन के लोगों ने रातोरात प्रतिष्ठानों पर ताला लगाया और भाग गए. उसके बाद हम लोगों ने भी प्रतिष्ठानों में अपना ताला लगाकर धरना प्रदर्शन कर रहे हैं. उप श्रमायुक्त के यहां भी बैठक के लिए चार बार बुलाया गया, लेकिन प्रबंधन की ओर से कोई पहुंचा नहीं’
राजीव शर्मा, कर्मचारी, गीता भवन, ऋषिकेश
कर्मचारियों का आरोप है कि न्यूनतम वेतन के संबंध में जारी राजाज्ञा को लेकर गीताप्रेस प्रबंधन की ओर स्थाई और अस्थाई श्रेणी के कर्मचारियों का लगातार शोषण किया जा रहा है. आरोप है कि गीताप्रेस में 400 से ज्यादा अस्थाई कर्मचारी हैं, जो पिछले 25 सालों से कार्यरत हैं. इन्हें न तो न्यूनतम वेतन दिया जा रहा है और न ही श्रम कानून का पालन किया जा रहा है. कर्मचारियों का कहना है कि तमाम मुद्दों पर उप श्रमायुक्त कार्यालय में सहमति बनने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गई. इस बीच 12 दिसंबर को उप श्रमायुक्त कार्यालय पर गीताप्रेस में कैंटीन खोलने की सहमति बनी थी. इसके अलावा तय हुआ कि ओवरटाइम करने पर श्रमिकों को दोगुने दर से भुगतान किया जाएगा. श्रमिकों की सेवानिवृत्ति आयु 58 से 60 वर्ष करने के संबंध में श्रमिक प्रतिनिधियों द्वारा स्थायी आदेश में संशोधन के लिए प्रार्थना पत्र दिया जाएगा. एडहॉक वेतन को मूल वेतन में समायोजित करने के संबंध में न्यूनतम वेतन के संबंध में जारी राजाज्ञा वर्ष 2006 व 2014 के संबंध में शासन से मार्गदर्शन प्राप्त किया जाएगा.
अभी तो गीताप्रेस में कोई दिक्कत नहीं है. बातचीत हो गई है. उसके बाद कोई आया नहीं. हम लोगों का काम धमकाने का थोड़े ही है. हम लोग कार्रवाई करेंगे कि धमकी देंगे. प्रशासन का आदमी भला धमकी क्यों देगा. देखिए सबका परसेप्शन अलग-अलग है. मान लीजिए गीताप्रेस में काम चलने लगा और करोड़ों प्रतियां निकलने लगीं तो किसी को खराब लग रहा होगा, तो लोग कुछ भी बोल सकते हैं. बहुत लोग ऐसे हैं जो केवल नकारात्मक विचारधारा में जीते हैं. वो चाहते हैं कि हर चीज रुकी रहे तो सब उनको पूछेगें. अगर नहीं रुकेगी तो उनको कौन पूछेगा. वहां (गीताप्रेस) एक-दो (कर्मचारी) हैं उस तरह के, जो काम चलता है तो दुखी हो जाते हैं. कुछ लोग चाहते हैं कि काम रुका रहे. एक महीने से कोई दिक्कत रिपोर्ट नहीं हुई है
रंजन कुमार, जिलाधिकारी गोरखपुर
कर्मचारियों का आरोप है कि मूल वेतन में सालाना वृद्घि न करके प्रबंधन की ओर से एडहॉक वेतन पर वृद्घि की जा रही है. रवींद्र सिंह बताते हैं, ‘वेतन दो हिस्सों में होता है. ‘मूल वेतन’ और ‘महंगाई भत्ता’. वहीं गीताप्रेस में वेतन को दो भागों में बांट दिया गया है. ‘मूल वेतन’ और ‘एडहॉक’. प्रबंधन इंक्रीमेंट के पैसे को मूल वेतन में न जोड़कर एडहॉक में डाल देता है. जबकि नियम के मुताबिक इंक्रीमेंट मूल वेतन में जुड़ता है. बाकी के पैसे पर महंगाई भत्ते की चोरी की जा रही है. जैसे किसी कर्मचारी का मूल वेतन 5750 रुपये है. अब जब इंक्रीमेंट लगता है तो महंगाई भत्ता बढ़ता है. अब मान लीजिए उस कर्मचारी का वेतन 5750 से 7000 रुपये हो गया है. ऐसे में 1250 रुपये की जो बढ़ोतरी हुई उसे एडहॉक वेतन में डाल दिया जाता है. अगली बार जब फिर इंक्रीमेंट लगेगा तो उसी 5750 रुपये के मूल वेतन पर ही लगेगा. पिछली बार मिली 1250 रुपये की वृद्घि को मूल वेतन में जोड़ा जाता तो अगली बार 7000 रुपये के मूल वेतन पर प्रबंधन को इंक्रीमेंट देना पड़ता. प्रबंधन का ये खेल कई वर्षों से जारी है.’
इस बीच फरवरी में कर्मचारियों ने उस वक्त फिर से हंगामा शुरू कर दिया जब उनसे ‘फॉर्म 12’ की जगह ‘फॉर्म 18’ भरने को कहा गया. कर्मचारियों के अनुसार उप श्रमायुक्त कार्यालय पर हुई बैठक में उनकी हाजिरी ‘फॉर्म 12’ भरे जाने पर सहमति बनी थी. ‘फॉर्म 12’ स्थाई कर्मचारियों की ओर से भरे जाने के लिए था जबकि ‘फॉर्म 18’ ठेका कर्मचारियों से भरवाया जाता है. मामला कर्मचारियों को स्थाई करने का था, लेकिन प्रबंधन ने ऐसा करने से मना कर दिया था. मार्च में न्यूनतम वेतन को लेकर एक बार कर्मचारियों ने हंगामा किया. कर्मचारियों का आरोप था कि उप श्रमायुक्त की जांच में कुल 337 ठेका कर्मचारी मौके पर कार्य करते पाए गए थे, जिसमें से प्रबंधन मात्र 100 कर्मचारियों को ही न्यूनतम वेतनमान दे रहा है. साथ ही गत दिसंबर में डेढ़ दिन के तालाबंदी का वेतन ठेका कर्मचारियों को नहीं दिया गया जबकि स्थायी कर्मचारियों को दे दिया गया है. कर्मचारियों का आरोप है, ‘श्रमायुक्त कार्यालय पर मार्च में हुई बैठक में अस्थाई कर्मचारियों को कॉन्ट्रैक्ट लेबर के रूप में रखने का प्रशासन की ओर से दबाव डाला गया. इसके अलावा प्रबंधन की ओर से बातचीत में बनी सहमतियों का पालन करने से इंकार कर दिया गया. जिलाधिकारी और दूसरे कर्मचारियों की ओर से दबाव डालकर कर्मचारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने की धमकी दी गई और कर्मचारियों से मामले की जांच को छह महीने तक स्थगित रखने के लिए कहा गया.’
गीताप्रेस एक सार्वजनिक संस्था है. यह मुनाफा कमाने वाली कंपनी नहीं है. हम कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन देने के नियमों का पालन करते हैं. कर्मचारियों के वेतन में वृद्घि भी की गई थी. उन्हें कम देने का सवाल ही नहीं उठता. इसके अलावा कर्मचारी अगर और मांगते हैं तो ये हमारे बस की बात नहीं है. वेतन और वेतन वृद्घि देने का नियम अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग होता है. आप दूसरे प्रांत की बात नहीं कर सकते. दूसरे प्रांतों के कानून को यहां लागू नहीं किया जा सकता
बैजनाथ अग्रवाल, न्यासी व्यवस्थापक, गीताप्रेस
हालांकि गोरखपुर के जिलाधिकारी इन बातों का खंडन करते हुए कहते हैं, ‘हम धमकी क्यों देंगे, जबकि हमारा काम कार्रवाई करने का है.’ बहरहाल उप श्रमायुक्त कार्यालय में हुई बैठक में जिन मुद्दों पर सहमति नहीं बनी थी उनकी सूची श्रमायुक्त, कानपुर को भेजी गई है. कर्मचारियों ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी एक मांगपत्र भेजकर मामले की निष्पक्ष जांच कराने की मांग की है.