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सबको दशरथ की कहानी अविश्वसनीय क्यों लग रही थी जबकि 60 के दशक में पहाड़ काटने का काम शुरू कर 22 सालों की अथक मेहनत से दशरथ मांझी पहाड़ काटकर रास्ता बना चुके थे.

दशरथ को जीते-जी उनके काम के लिए वह सम्मान कहां मिला!  मृत्यु के कुछ साल पूर्व से उन्हें सम्मान मिलना शुरू हुआ. अखबारों में, मीडिया में खबर आई, बावजूद इसके एक बड़ा खेमा ऐसा भी था, जो दशरथ को उसके इस विराट कार्य का श्रेय नहीं देना चाहता था. पहाड़ काट देने के बाद भी मीडिया का एक खेमा यह कहता रहा कि दशरथ ने यदि पहाड़ काटा तो कटने के बाद निकलने वाला पत्थर कहां गया! उसकी छर्री कहां गई? वन विभाग ने पहाड़ काटने पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? आदि. संभ्रांत व सामंतमिजाजी समाज ने तो कभी चाहा ही नहीं कि प्रेम के ऐसे उद्दात स्वरूप का श्रेय मांझी को जाए, इसके लिए वह आखिरी समय तक माहौल बनाने में लगा रहा. मुझे तो लगता है कि बाद के दिनों में दशरथ मांझी ने आध्यात्मिकता में मन इसीलिए लगा लिया था कि शायद उन्हें सर्वमान्यता मिले. वे कबीरपंथी हो गए थे लेकिन तब भी श्रेष्ठतावादी व शुद्धतावादी समाज उन्हें वह मान्यता नहीं दे सका.

लेकिन सुनते हैं कि नीतीश कुमार ने तो उन्हें अपनी कुर्सी पर बिठाया था?

यह सब तो बहुत बाद की बात है. 1982 में दशरथ मांझी पहाड़ काट चुके थे लेकिन उन्हें सम्मान तीन दशक बाद मिलना शुरू हुआ.

 आपकी तो कई बार बात-मुलाकात हुई होगी. पहाड़ काटने की सही घटना क्या है?

वे कई बार मिले. हम एकभाषी थे तो आत्मीयता से मगही में बात होती थी. वे मेरे दफ्तर में भी आते थेे. पहाड़ में रास्ता पहले से था पर बहुत ही संकरा. वे पहाड़ के उस पार खेत में काम करने जाते थे. उनकी पत्नी फगुनी देवी उसी संकरे रास्ते से उनके लिए खाना-पीना लेकर खेत में जाया करती थीं. एक दिन वह जा रही थीं कि  उस संकरे रास्ते में फंस गईं. खाना-पानी सब गिर गया. दशरथ का प्यास के मारे हाल-बेहाल था लेकिन पानी उन तक पहुंच नहीं सका. उन्होंने पत्नी की हालत देखी और उसी दिन तय किया कि कोई न कोई रास्ता तो निकालना होगा. फगुनी के लिए भी और उन तमाम महिलाओं के लिए भी, जो रोज खेत पर खाना-पानी लेकर आती हैं. दशरथ ने उसी दिन से अपनी रोजमर्रा की मजदूरी को जारी रखा लेकिन समय निकालकर पहाड़ को काटना भी शुरू कर दिया और 22 सालों में उस रास्ते को बना दिया. दशरथ फगुनी से प्रेम करते थे लेकिन फगुनी के बहाने कई स्त्रियों की मुश्किलें भी उनके सामने थीं. यही सच है, प्रेम व्यक्तिगत होता है लेकिन जब वह समूह का हो जाता है तो क्रांति हो जाती है. दशरथ ने क्रांति ही की. दुनिया में कोई मजदूर ऐसा नहीं होगा, जो अपनी मजदूरी करते हुए छेनी-हथौड़ी से ऐसा कीर्तिमान कायम कर दे, प्रेम की ऐसी निशानी बना दे.

आपने बताया सभी ने दशरथ की कहानी हटाकर सिर्फ जेहल की कहानी को प्रकाशित किया. जेहल की कहानी इतनी पावरफुल थी कि कई लोग उस पर फिल्म बनाने को तैयार थे लेकिन आप साथ में दशरथ की कहानी रखकर ही फिल्म बनाने की सलाह दे रहे थे. जेहल की कहानी भी बताइए.

जेहल भी गया जिले के अतरी प्रखंड इलाके के ही थे. वे मुसहर जाति के थे. दुल्लू सिंह जमींदार थे, जिनके यहां जेहल बनिहारी (मजदूरी) करते थे. जेहल की शादी दुल्लू सिंह ने अपनी ससुराल की राजमुनी से करवा दी. राजमुनी के पिता नचनिया थे और उसकी मां दुल्लू सिंह के ससुर की रखनी (रखैल) थीं, तो जेहल की पत्नी के आने के बाद दुल्लू सिंह ने कहा कि तेेरी मां को मेरे ससुर ने रखनी रखा था तो हम राजमुनी को रखेंगे. जेहल बेचारा क्या बोलता लेकिन राजमुनी ने विद्रोह कर दिया. एक दिन अचानक वह घर से निकल गई. रास्ते में जेहल मिला, जो टेउंसा बाजार से अपने मालिक के लिए गांजा लेकर आ रहा था. राजमुनी ने अपने पति से कहा, ‘वह जा रही है लेकिन एक दिन लौटकर आएगी, अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जिएगी, लेकिन तुम्हारे साथ ही’. राजमुनी वहां से भागकर बनारस में एक थियेटर कंपनी में नाचने लगी. इस बीच लोग जेहल को चिढ़ाते रहते थे कि तुम्हारी पत्नी तो गया में कोठे पर दिखी थी. कोई कुछ और कहता पर जेहल सबकी बात चुपचाप सुनता. वह मेरे पास भी आता था, मुझसे पूछता कि आपकी भी पत्नी है, वह भी तो भाग गई होंगी. पत्नी तो भाग ही जाती है न! जेहल बहुत ही मासूम इंसान था.

राजमुनी जिस थियेटर कंपनी में काम करती थी, वह एक बार राजगीर के मलमास मेले में आई. राजमुनी को फिर से दुल्लू सिंह ने देख लिया, वह बलात फिर उसे ले जाने लगे, इस बार राजमुनी ने दुल्लू की हत्या कर दी और फिर भाग गई. एक बार फिर से जेहल को किसी ने चिढ़ा कर कह दिया कि उसकी राजमुनिया तो नदी के उस पार मजार पर चादर चढ़ाने आई है, अभी-अभी दिखी है वहां. जेहल भागते-भागते नदी किनारे आया. नदी के उस पार जाने का कोई रास्ता नहीं था. उसने उस पार, राजमुनी के पास जाने के लिए भादों की उफनती हुई नदी में छलांग लगा दी, नदी से फिर उसकी लाश ही निकली. और संयोग कुछ ऐसा हुआ कि कुछ देर बाद सच में राजमुनी को लेकर दारोगा उसके गांव में पहुंचा. राजमुनी उसके पास रहने आई थी लेकिन जेहल जा चुका था. राजमुनी ने उसके पांवों के पास ही अपनी चूडि़यां तोड़ीं. मैंने समानांतर रूप से दशरथ और जेहल की प्रेम कहानी को लेकर ‘आदिमराग’ लिखी थी, यह बताने के लिए प्रेम का दायरा सिर्फ निजी स्तर पर होता है तो उसकी निष्पत्ति कैसी होती है और जब प्रेम समूह से जुड़ता है तो उसका स्वरूप कैसा होता है.

आपने यह कहानी भी प्रकाश झा को दी थी?

प्रकाश झा जी प्रेम पर फिल्म नहीं बनाना चाहते. उनके विषय दूसरे होते हैं. उन्होंने बेबीलोन पर बात की. एक बार दिल्ली बुलाया, मैंने 18 घंटों में एक कहानी लिखी- ‘अभिशप्त’. तीन साल बाद उस पर ‘मृत्युदंड’ फिल्म बनी. बासुभट्टाचार्य को भी जेहल की कहानी पसंद थी.

 आप मुंबई जाते नहीं, मुंबई आपकी शर्तों पर आता नहीं. यह जिद क्यों?

कोई जिद नहीं है. मैं खुद को िक्रएटिव बनाए रखने के लिए काम करता हूं, मुंबई के लिए नहीं. ‘पुरुष’ फिल्म के दौरान राजकुमार संतोषी ने एक फिल्म की कहानी मांगी थी. मैंने हां कह दिया था लेकिन फिर मुंबई नहीं गया. मुझे होटलों में रहकर स्क्रिप्ट और कहानी लिखना पसंद नहीं. मैं अपनी जमीन पर रहकर काम करना चाहता हूं. जिससे मन मिलेगा, काम करूंगा, नहीं तो कोई बात नहीं. मैंने कभी अपनी आकांक्षाएं उतनी बड़ी की ही नहीं कि मेरे मन पर मंुबई का मोहपाश भारी पड़ जाए. एक बार विक्रम चंद्र ने कहा कि आप गया में क्या कर रहे हैं, आपको मुंबई में होना चाहिए. मैंने उनसे कहा कि आप मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के लिए लिखते हैं तो आप लंदन में क्या कर रहे हैं? बात हंसी-हंसी में खत्म हो गई.

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आपकी जानकारी में दशरथ मांझी पर और किन लोगों ने फिल्म बनाने की कोशिश की?

हमेशा ही कोई न कोई बात करता रहा. रुबीना गुप्ता ने तो डॉक्यूमेंट्री भी बनाई. उस डॉक्यूमेंट्री के लिए मैंने एक कविता भी लिखी, ‘ बोल देने से नहीं होता है प्रेम. क्रांति महज इतन नहीं है कि बोल दो नारा. उठा लो शस्त्र. प्रेम करना सीखो. जैसे यह श्वेत पुष्प जीना सीखता है रक्त समुदाय के साथ. मेरे भीतर.’

और भी कई लोगों ने कोशिश की. कुछ तो कहते हैं िक उन्होंने  दशरथ मांझी से जीते-जी लिखवा लिया था कि वे लिख दे कि उन पर फिल्म बनाने का अधिकार सिर्फ उनका ही होगा लेकिन केतन मेहता इसमें बाजी मार ले गए. दशरथ मांझी पर साहित्य हमेशा उपलब्ध रहा लेकिन साहित्य के क्रूर यथार्थ को लोक की रुचि के अनुसार सत्य में ढालने का काम ही तो निर्देशक का होता है, सिनेमा वही तो करता है और उस कहानी को केतन फिल्म के जरिये दर्शकों के सामने रखी.

 

आपने कहा कि होटलों में रहकर कहानियां लिखने से वह बात नहीं आ पाती. क्या आज की फिल्मों के साथ ऐसा ही है?

नहीं, ऐसा कैसे कह सकते हैं. एक से एक फिल्में आ रही हैं. अच्छी कहानियां लिखी जा रही हैं. अनुराग कश्यप की फिल्में हैं, राजकुमार हिरानी की फिल्में हैं और भी कई कहानियां हैं. दम लगा के हईशा, मसान… कई फिल्में आई हैं लेकिन मल्टीप्लेक्स के दौर में बड़े स्टार को ध्यान में रखकर कहानियां लिखी जाने लगीं तो फिल्मों का मामला गड़बड़ा गया. बड़े स्टार साल में कितनी फिल्में कर सकते हैं और स्टार हैं ही कितने! इसलिए स्टार के दायरे से फिल्मों को निकालना होगा. वह निकलने भी लगा लेकिन फिर वही प्रेम और शादी के इर्द-गिर्द फंसता गया. प्रेम, शादी के इतर की दुनिया भी है, जो सिनेमा का इंतजार कर रही है. सिनेमा में कुछ निर्देशक उस इतर दुनिया को तो सामने ला रहे हैं लेकिन अब भी गांव की वापसी का रास्ता नहीं दिख रहा. गांव को भी तो वापस लाना होगा.

गांव भी तो अब पहले जैसे नहीं रहे?

क्या बात कर रहे हैं आप? देखिए चलकर, एक से एक गांव मिलेंगे और उन गांवों में एक से एक कहानियां मिलेंगी. मध्ययुगीन क्रूरता अब भी मिलेगी.

केतन की फिल्म की स्क्रिप्ट आपने देखी होगी. क्या वे असल दशरथ मांझी को लेकर आ रहे हैं?

मैंने कहा न कि सहमति-असहमति कई बिंदुओं पर हो सकती है लेकिन केतन को बधाई दीजिए िक वे इसे कर रहे हैं. तीन दशक तक फिल्म इंडस्ट्री के लोग इस कहानी को अविश्वसनीय ही मानते रहे और अब केतन ने इसे पूरा किया है. बाकी कई बिंदुओं पर असहमति हो सकती है, वह अलग बात है. अब जब यह फिल्म चल रही है तो याद रखिए कि दशरथ जैसे मामूली लोगों को लेकर बायोपिक फिल्मों का दौर लौटेगा और तब कई मांझियों की कथा सेल्यूलॉयड के जरिये सामने आएगी. गांव-कस्बों में एक से बढ़कर एक नायक हुए हैं, जिनकी कहानियां दुनिया को प्रेरित कर सकती हैं. जैसे दशरथ की कहानी में खास है कि एक मजदूर ने प्रेम की ऐसी निशानी दी कि शहंशाह का प्रेम हाशिये पर चला गया, वैसी ही कई कहानियां हैं अपने देश में.

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