अपनी अक्षमता और असुरक्षा की भावना के चलते भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भाजपा को इस हालत में ला खड़ा किया है कि आज उसके अस्तित्व पर ही संकट मंडरा रहा है. वे और कब तक फूट डालकर राज करते रहेंगें? वरिष्ठ पत्रकार स्वपन दासगुप्ता का आलेख
भारत में किसी भी तरह का राजनीतिक संवाद एक पारंपरिक किस्म की शिष्टता से संचालित होता है. मगर 24 अगस्त को एनडीटीवी पर शेखर गुप्ता को दिए इंटरव्यू में अरुण शौरी अनौपचारिकता की हर सीमा लांघ गए. बिना कोई रहम दिखाए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और उसके शीर्ष नेतृत्व की बखिया उधेड़कर रख दी. उन्होंने पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को टारजन, एलिस इन ब्लंडरलैंड, लापरवाह ठाकुर और एक ऐसा शख्स कहा जिसकी अकेली खासियत उसकी आल इंडिया रेडियो वाली आवाज है.
राजनाथ के पास जरूरी बौद्धिक आत्मविश्वास की कमी थी इसलिए उन्होंने फूट डालो और राज करो वाली नीति अपनाने की कोशिश की और अक्सर कोर कमेटी को पूरी तरह से नजर अंदाज कर दिया
अपने समूचे राजनीतिक करिअर में राजनाथ ने एक ऐसे राजनीतिक कपट का प्रदर्शन किया है जिससे भाजपा को तो नुकसान हुआ मगर उन्हें लगातार फायदा होता रहा और वे नेतृत्व की सीढ़ियां चढ़ते रहेशौरी राजनीति में नए नहीं हैं. इंटरव्यू देखते समय मुझे ऐसा लगा कि जैसे उन्होंने भाजपा के छोटे से इतिहास में सबसे लंबा राजनीतिक ‘सुइसाइड नोट’ लिख दिया हो. मगर मंगलवार की शाम मैं तब बुरी तरह से गलत साबित हुआ जब राजनाथ सिंह ने शौरी के निष्कासन से इंकार करते हुए लगभग क्षमापूर्ण मुद्रा में उनसे उनकी टिप्पणियों का आधार पूछने की बात कही, वो भी, अगर वे ऐसा करना चाहें और जब उनकी सुविधा हो तब. राजनाथ के करीबी सूत्रों द्वारा ये प्रचारित किया गया कि शौरी ने राजनाथ पर व्यक्तिगत हमला नहीं किया था और जसवंत सिंह के उलट ये हमला विचारधारा पर नहीं बल्कि राजनीति पर था इसलिए ये मोहम्मद अली जिन्ना को एक महान व्यक्ति करार देने से कहीं छोटा अपराध है.
शौरी से निपटने के इस तरीके पर नजर डाली जाए तो भाजपा अध्यक्ष का व्यवहार देखकर ऐसा लगता है जसे कोई हैडकांस्टेबल शराब पीकर लापरवाही से गाड़ी चलाते किसी राजा के खिलाफ कार्रवाई करने की कोशिश कर रहा हो. उनका ढुलमुल रवैया अनुशासन पर उनके उस सख्त रूख के बिल्कुल उलट था जो शिमला में तीन दिन तक हुई पार्टी की चिंतन बैठक में देखा गया था.
अगर बहुत दयानतदारी दिखाई जाए तो कहा जा सकता है कि राजनाथ की इस कमजोरी की वजह ये भी हो सकती है कि टारजन और एलिस जैसे चरित्रों से जो उनकी तुलना की गई थी वो हिंदी में अनुवाद के बाद उतनी असरकारी नहीं रह गई होगी. ये कहना कि राजनाथ को ये समझने की कोशिश की गई कि टारजन से उनकी तुलना करके शौरी ने एक तरह से उनकी तारीफ ही की है क्योंकि टारजन कुलीन वंश से ताल्लुक रखने वाला एक अंग्रेज था जिसने जंगल की अराजकता को खत्म कर वहां एक व्यवस्था कायम की, कुछ दूर की हांकने जैसा ही होगा.
दोहरे मापदंडों के इस निर्लज्ज प्रदर्शन ने उस नेता के काम करने की शैली को उजागर करने का काम किया है जो 2006 से भाजपा संगठन की पतवार थामे हुए है और जो अगले साल जुलाई या अगस्त तक इस पद पर बने रहने की योजना बना रहा है. पार्टी के 29 साल के इतिहास को देखा जाए तो राजनाथ सिंह अब तक के सबसे विवादित पार्टी अध्यक्ष रहे हैं. उनके नाम का जिक्र हो तो मिश्रित प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं. जसवंत सिंह उन्हें एक ऐसा प्रांतीय नेता कहकर खारिज कर चुके हैं जो इस पद के लायक नहीं है. उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ विधायक ने मुझसे कहा था कि उनकी उपलब्धियां उनके प्रदर्शन से मेल खाने वाली नहीं हैं. उन पर जातिवाद या दूसरे शब्दों में कहें तो ठाकुरवाद के आरोप तो नियमित तौर पर लगते ही रहे हैं.
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बुरी तरह हार के बाद राजनाथ ने किसी भी तरह की चर्चा इसलिए नहीं होने दी क्योंकि उन्हें डर था कि इससे उठने वाले सवालों के घेरे में वे भी आ सकते हैंइसके बावजूद राजनाथ दृढ़ता से जमे रहे और हर संकट के पार निकलते रहे. उन्होंने ये सुनिश्चित किया कि उनकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहे. इतनी उथल-पुथल के बावजूद अपनी खास भूमिका कायम रखने की राजनाथ सिंह की योग्यता को समझने के लिए उन हालात पर नजर डालना जरूरी है जिनमें उनकी नियुक्ति हुई थी. जब 2005 के मध्य में संघ ने आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने का फैसला किया तो उनके उत्तराधिकारी की खोज बड़ी मुश्किल साबित हो रही थी. जिन लोगों को आडवाणी ने नेतृत्व वाले पदों तक पहुंचाया था उनमें से ज्यादातर ऐसी विवादित परिस्थितियों में पद संभालने को लेकर सशंकित थे. ऐसे में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में वेंकैय्या नायडू को फिर से चुने जाने पर आम-सहमति बनी जिन्होंने 2004 के आम चुनाव में पार्टी की हार के बाद कार्यकाल के बीच में ही अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. लेकिन फिर संघ ने हस्तक्षेप करते हुए राजनाथ सिंह को चुना और सुनिश्चित किया कि वे सबकी सहमति से अध्यक्ष पद के लिए चुने जाएं. अटल बिहारी वाजपेयी पूरी तरह से राजनाथ के साथ थे. हालांकि आडवाणी उन्हें लेकर उत्साहित नहीं थे.
2005 में राजनाथ अगर वाजपेयी को भाने लगे थे तो इसके अपने कारण थे. वाजपेयी जब किसी को पसंद करते थे तो बुरी तरह पसंद करते थे और नापसंदगी के मामले में भी ऐसा ही होता था. पिछले कुछ समय से उन्हें कल्याण सिंह से अरुचि हो गई थी जो उत्तर प्रदेश में निर्विवादित रूप से पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता थे. वाजपेयी ने कल्याण को अस्थिर करने के हर कदम का मजबूती से समर्थन किया. अब ये कुछ अगड़ी जाति के नेताओं की लगातार चुगली के चलते हुआ या फिर पिछड़ों की राजनीति को लेकर कल्याण सिंह के भेदभाव की वजह से, ये अनुमान का विषय है. वाजपेयी ने कल्याण को अस्थिर करने के हर कदम को अपना जबर्दस्त समर्थन दिया.
इसका परिणाम ये हुआ कि उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में राजनाथ एक समानांतर सत्ता केंद्र के रूप में उभरे और 1999 में कल्याण के निष्कासन और रामप्रकाश गुप्त के छोटे से कार्यकाल के बाद उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई. फिर 2003 में विधानसभा चुनाव हुए. ये चुनाव पार्टी राजनाथ के नेतृत्व में लड़ रही थी. पार्टी को मुंह की खानी पड़ी और वह सत्ता खोकर तीसरे स्थान पर पहुंच गई. मगर राजनाथ पर कोई दोष नहीं मढ़ा गया. उन्हें चुपचाप राज्य की राजनीति से केंद्र की राजनीति में स्थानांतरित कर कैबिनेट मंत्री बना दिया गया. 2004 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया. मगर वे कभी भी पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति के मुख्य किरदारों में नहीं रहे.
सुशील मोदी को बिहार के उपमुख्यमंत्री पद से हटाने के अभियान के पीछे भी दिल्ली से की गई इसी तरह की कोशिश थी. ये बगावत, जिसे राष्ट्रीय अध्यक्ष के दफ्तर से जुड़े लोगों का खुला समर्थन हासिल था
संघ ने अगर राजनाथ को आडवाणी का उत्तराधिकारी बनाया तो ऐसा उसने कुछ बुनियादी कारणों के चलते किया. पहला, राजनाथ तुलनात्मक रूप से एक पहचानविहीन चेहरा थे जिनका राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा वजन नहीं था. इसके अलावा राजनाथ खुद को संघ का वफादार साबित कर चुके थे और उनसे अपेक्षा थी कि वे पार्टी पर संघ की पकड़ और भी मजबूत करने में सहयोग देंगे. चूंकि वे आडवाणी के खेमे से नहीं थे इसलिए उनसे ये भी उम्मीद की जाती थी कि वे पार्टी में आडवाणी की मजबूत पकड़ का मुकाबला करेंगे.
संगठन की कमान संभाले राजनाथ को तीन साल हो गए हैं और इस दौरान उन्होंने भाजपा पर पकड़ मजबूत करने में संघ की काफी मदद की भी है. संघ द्वारा नियुक्त किए गए संगठन सचिवों को केंद्र और राज्यों में जो अधिकार दिए गए उसने राजनीति और राजनेताओं की अहमियत कम करने का रास्ता प्रशस्त किया.
पार्टी पर संघ की पकड़ मजबूत करने की प्रक्रिया में मददगार बनते समय राजनाथ ने इस बात का काफी ध्यान रखा कि पार्टी पर उनकी खुद की पकड़ भी मजबूत हो. इस कोशिश में उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक शैली पर चलना शुरू किया जो उस हर चीज के उलट थी जो पार्टी अब तक करती आ रही थी. इस वजह से उनपर ये आरोप लगे हैं कि उन्होंने एक विस्तृत आधार वाले राजनीतिक दल को एक संप्रदाय में तब्दील करके रख दिया है.
राजनाथ की शैली की पहली विशेषता है फूट डालकर राज करने के दृष्टिकोण की तरफ उनका झुकाव. भाजपा हमेशा इस बात पर गर्व करती थी कि ये एक जीवंत लोकतांत्रिक प्रक्रिया से संचालित होने वाली पार्टी है जिसमें सभी मुद्दों और फैसलों पर बहस होती है और उन पर समग्रता से विचार किया जाता है – कम से कम शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर. परंपरा के मुताबिक हमेशा पार्टी अध्यक्ष का फैसला अंतिम होता था मगर उस आखिरी फैसले पर पहुंचा सामूहिक सहमति से जाता था. राजनाथ ने इस प्रक्रिया को कई तरीकों से ध्वस्त कर डाला. चूंकि अपने फैसलों पर बहस के लिए उनके पास जरूरी बौद्धिक आत्मविश्वास की कमी थी इसलिए उन्होंने फूट डालो और राज करो वाली नीति अपनाने की कोशिश की और अक्सर कोर कमेटी को पूरी तरह से नजर अंदाज कर दिया. उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बुरी तरह हार के बाद राजनाथ ने किसी भी तरह की चर्चा इसलिए नहीं होने दी क्योंकि उन्हें डर था कि इससे उठने वाले सवालों के घेरे में वे भी आ सकते हैं.
पार्टी को ‘हम’ और ‘वे’ में बांटने की इस कोशिश का नतीजा ये हुआ कि राज्यों से जुड़े मसलों में एकतरफा हस्तक्षेप बढ़ने लगा. 2007 की शुरुआत में संघ के एक धड़े के सहयोग से नरेंद्र मोदी और वसुंधरा राजे को अस्थिर करने और अगर मुमकिन हो तो गद्दी से हटाने का अभियान शुरू हुआ. खासतौर से मोदी के खिलाफ तो एक तरह से जाति आधारित विद्रोह शुरू हो गया और उन्हें 2007 का विधानसभा चुनाव जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा. वसुंधरा बागियों से निपटने के मामले में कम माहिर साबित हुईं और 2008 में हुए विधानसभा चुनावों में भितरघात उन्हें ले डूबा. ये देखना दिलचस्प है कि आज वसुंधरा के खिलाफ चल रहे अभियान में जो सबसे आगे खड़े दिख रहे हैं वे वही हैं जो भाजपा की सत्ता के दौरान भी वसुंधरा की जड़ें खोदने में सबसे ज्यादा सक्रिय थे. 2008 की हार के बाद भाजपा सही नतीजे पर पहुंची कि हार और जीत के बीच का अहम फर्क पार्टी की भीतरी कलह रही. मगर जब इसके तुरंत बाद ही भितरघात के दोषियों को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा पुरस्कृत करने की कोशिश हो तो इस आरोप में दम नजर आता है कि गुटबाजी और अंतर्कलह को केंद्रीय इकाई द्वारा प्रायोजित किया गया था.
सुशील मोदी को बिहार के उपमुख्यमंत्री पद से हटाने के अभियान के पीछे भी दिल्ली से की गई इसी तरह की कोशिश थी. ये बगावत, जिसे राष्ट्रीय अध्यक्ष के दफ्तर से जुड़े लोगों का खुला समर्थन हासिल था, कामयाब भी हो जाती अगर इस मसले पर मतदान के जरिए पार्टी विधायकों की राय नहीं ली गई होती. मतदान में मोदी खासे अंतर से जीत गए.
इसी तरह उत्तराखंड में पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूड़ी को ज्यादातर पार्टी विधायकों का समर्थन हासिल था. मगर उनमें इतनी दक्षता नहीं था कि वे बागियों और दिल्ली में बैठे उनके समर्थकों से निपट सकें. आखिरकार उन्हें बेइज्जत होकर जाना पड़ा. अपनी गुटीय संघर्षों के लिए जो फायदेमंद हो उसे पार्टी-हित से जोड़ देने की प्रवृत्ति राजनाथ की खास पहचान रही है. गहन विश्लेषण से ये नतीजा निकलता है कि भाजपा 2009 का आम चुनाव हार गई क्योंकि वोटर को आडवाणी के नेतृत्व पर पर्याप्त भरोसा नहीं था. मगर हार इतनी बडी होगी ये सुनिश्चित करने में राजनाथ की भी भूमिका रही. कल्याण सिंह के साथ उन्होंने रिश्ते इतने कड़वे कर लिए कि एक छोटी सी बात पर कल्याण ने भाजपा से किनारा कर लिया. राजनाथ ने झारखंड में बाबूलाल मरांडी के लौटने की हर संभावना समाप्त कर दी. उड़ीसा में ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर दी गईं कि नवीन पटनायक ने भाजपा से गठबंधन तोड़ अपने बूते लड़ने का फैसला किया. वरुण गांधी का समर्थन करने में उन्होंने जरूरत से ज्यादा सक्रियता दिखाई और शहरी क्षेत्रों में वोटरों को पार्टी से दूर भगा दिया. यही नहीं उत्तर प्रदेश में उन्होंने सुनिश्चित कर दिया कि पार्टी संगठनात्मक स्तर पर पूरी तरह निष्क्रिय हो जाए.
चुनावों के बाद उन्होंने फैसला किया कि अब अरुण जेतली को ठिकाने लगाने का वक्त है. इसके लिए उन्होंने कई नेताओं को उनके खिलाफ बोलने के लिए उकसाया. इसके पीछे का विचार ये था कि जेतली विवादों में घिर जाएं और अध्यक्ष पद के लिए उनकी उम्मीदवारी की हर संभावना का अंत हो जाए. कहा ये भी जा रहा है कि हार के कारणों पर अहस्ताक्षरित दस्तावेज बाल आप्टे द्वारा सौंपे जाने की बात भी राजनाथ के खासमखास लोगों ने लीक की थी. अब राजनाथ का कार्यकाल खत्म होने जा रहा है तो उन्होंने काफी राज्यों में संगठन की चुनाव प्रक्रिया को पटरी से उतारकर अगले साल जुलाई या अगस्त तक अपने पद पर जमे रहने की संभावना को पक्का कर लिया है.
यहां पर ये भी कहना उचित होगा कि 2009 की हार की जिम्मेदारी के अपने हिस्से से राजनाथ बच गए क्योंकि आडवाणी ने लोकसभा में विपक्ष का नेता बने रहने का दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया. अगर आडवाणी इससे इस्तीफा देने के अपने पुराने फैसले पर कायम रहते तो निश्चित था कि नैतिक आधार पर उनके पास पार्टी में अपनी बात मनवाने की सर्वोच्च ताकत होती. ऐसे में जब कमान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथ में जाती तो आडवाणी इस प्रक्रिया को बेहद आसान बनाने की स्थिति में होते. मगर विपक्ष के नेता के पद जमे रहकर उन्होंने खुद को आलोचना और उपहास का पात्र बना लिया है जिससे उनकी राजनीतिक सत्ता का क्षय हुआ है. आडवाणी के इस कदम का कुल जमा लाभ राजनाथ को हुआ है. इससे न सिर्फ उन्हें अपनी जिम्मेदारी से बचने का मौका मिला है बल्कि अब वे उन सभी की अहमियत को भी कम कर सकते हैं जिन्हें आडवाणी ने आगे बढ़ाया है.
अपने समूचे राजनीतिक करिअर में राजनाथ ने एक ऐसे राजनीतिक कपट का प्रदर्शन किया है जिससे भाजपा को तो नुकसान हुआ मगर उन्हें लगातार फायदा होता रहा और वे नेतृत्व की सीढ़ियां चढ़ते रहे. आज अगर भाजपा इस हालत में पहुंच गई है जहां इसके अब एक सार्थक संगठन के रूप में जीवित रह पाने की क्षमता पर ही सवाल उठने लगे हैं तो इसकी कुछ जिम्मेदारी संघ की भी है. अगर संघ ने नैतिक मार्गदर्शक की अपनी भूमिका सही तरह से निभाई होती तो राजनाथ की ये हिम्मत ही नहीं होती कि वे हर कदम पर केले के छिलके फेंककर मासूम दिखने का नाटक कर पाते.
मगर ऐसा करने की बजाय संघ अपनी अचूकता पर भरोसा करता रहा और ये मानने को तैयार ही नहीं था कि 2006 में इससे बहुत बड़ी चूक हुई. यहां तक कि अब भी संघ के कुछ पदाधिकारी इस बात के लिए दबाव डाल रहे हैं कि पार्टी संविधान में बदलाव कर दिया जाए जिससे राजनाथ को फिर से पार्टी अध्यक्ष बनाने का रास्ता साफ हो सके. अगर ऐसा होता है तो फिर आने वाले वक्त में राजनाथ अपने उत्तराधिकारी को जो भाजपा सौंप रहे होंगे वह पार्टी की बजाय एक लेटरहेड मात्र होगी. अगर वे अब भी विदा ले लें तो भी उनके उत्तराधिकारी को भाजपा का खोया गौरव बहाल करने के लिए किसी चमत्कार से कम की जरूरत नहीं होगी.