उन्नीसवी सदी के एक दिन दो नवाबो की ट्रेन छूटी थी पहले आप-पहले आप के चक्कर में और सारी दुनिया में लखनऊ की शराफत का डंका पीट गई. इक्कीसवी सदी के इस दिन, आज आपकी ट्रेन भी तो छूटी है. ट्रेन में चढ़ती भीड़ को बोल पड़ीं पहले आप. जब लगीं आप चढ़ने, ट्रेन लगी तेज़ बढ़ने. भीड़ तो चली गई, बस रह गईं आप. और कहिये पहले आप-पहले आप!
क्या किसी ने बोला तमीज और अदब लखनऊ की हवा में बसती है? शायद ये खूबिया अब गुमशुदगी की गली में रहती हैं. हताश घर जाने के लिए जैसे ही बोरिया बिस्तर समेटा, तभी स्कूली नौजवां ने हाथ में आपका दुप्पट्टा लपेटा. वहीं उसे रोक जब आपने, उसको हड़काया, “रुको हम पुलिस को बुलाते है", लखनवी अंदाज़ से महरूम पूछ बैठा, “हम! मतलब मैडम पहले किसी और को बुलाएंगीं बाद में दोनों मिलकर पुलिस को बुलाएंगे. मतलब काफी टाइम है भागने और उससे पहले छेड़ने का", चिढ़कर आपने जवाब दिया, " हम मतलब होता है मैं! बहुवचन नहीं, एक वचन."अचानक झटका सा खाते हुए, मौका न गवाते हुए, लगाता है वो सत्ता में बैठी बेहेनजी की गुहार."बेहेनजी माफ़ कर दो, गलती हो गई इस बार. आपको मै कुछ औऱ ही समझ बैठा." कहाँ गया वो लहजा, कहाँ गया वो लखनवी व्यवहार? पीछे छोडा सबको चल पड़ी स्टेशन के पार.
घर वापस लौटते वक्त आप, हजरतगंज से गुज़रती है. चौराहे पर हरी बत्ती देख आप गाड़ी आगे बढ़ा लेती है. सौ गज दूर, सिपाही गाड़ी रोक बताता है, " आपने ट्रैफिक नियमो का उल्लंघन किया है, गाड़ी रोको बताता हूँ". आप समझाती है,"भाई साहेब मैंने तो ट्रैफिक लाइट का पालन किया है. वो बताता है, यहाँ ट्रैफिक लाइट नहीं, ट्रैफिक पुलिस वाला, गाड़ी आगे कब बढ़नी है, बताता है. या तो पाँच सौ रुपये दीजिये, या फिर, गाड़ी के पेपर हमारे हवाले कीजिये". उसकी बेधड़क-बेझिझक फरमाइश आपकी नजाकत को चकनाचूर करती है, और आप अपना पीछा छुड़ा आगे बढ़ती हैं.
शाम को उमराव जान की नज्मों और शायरी के माहौल की ख्वाहिश आपको बारादरी का रुख कराती है. वहाँ पहुँच ‘इन आंखों की मस्ती के" का पंजाबी रीमिक्स उर्दू के अदब का मजाक उडाता है. उससे ध्यान हटा आप चौकीदार से चिकन कढाई की प्रदर्शनी का रास्ता पूछती है. चौकीदार आपको समझाता है, "मैडम चिकन कढाई नहीं, कढाई चिकन. इसी के स्वाद का तो दुनिया मज़ा लूटती है!"
कारीगिरी की धीमी मौत का चिंतन आपके सर चढ़ता है. बगल का पार्क आपको वहाँ बनी सनी देओल की ग़दर की याद दिलाता है. अचानक दिमाग," मैं निकला गड्डी लेकर" गुनगुनाता है. गुनगुनाती हुईं आप पार्किंग में पहुंचती है और अपनी कार के आगे किसी और की कार को लगा देखती हैं. कार में बैठे महाशय से गाड़ी बढ़ाने का अनुरोध होता है. हाथ में चाबी घुमाते, महाशय का विरोध होता है. "मैं नहीं करूँगा,रुक जाइये, ड्राईवर आ जाए तब बताइए."
बधाई हो, आखिरकार मिल ही गया लखनऊ की नज़ाकत को अमर रखने वाला. यह उस नवाब का वंशज है,जिसने पैरों में नागरे पहनाने वाले नौकर के ना होने का ऐतराज़ किया था. और इसी कारण अंग्रेजों के हाथों मारा गया क्योंकि बिना पांवों में कुछ डाले भागना तो अदब की सरासर हिमाकत हो जाती. नजाकत, नफासत, अदब और शराफत की अन्तिम बूंदों को संजोये यही इक्कीसवी सदी का लखनऊ है. फिर भी बुरा न मानिये भाई साहेब, लखनऊ भी तो इसी दुनिया में ही है.
नेहा दीक्षित