मेरा टूटा हुआ घर कल जब यह एक आशियाना था, तब इसका सामने का कमरा बड़ा इठलाता था। उसमें महंगा डिस्टेम्पर जो पुता था, बड़ा सा दीवान था, सोफा, टीवी, एक मेज और कुछ कुसियां भी, आधुनिक युग में आदिम कहे जा रहे जनों की कलाकृतियां भी, दरवाजे पर भी नक्काशी, बहन की बनाई लाल गुलाबों वाली पेंटिंग भी, और दरवाजे पर लटकता चीनी खिलौना विंड चाइम/चैम। ऐसा नहीं कि यह कमरा ही दूसरों से ईर्ष्या करता था, बल्कि इसके अंदर की चीजें भी एक दूसरे से। वो जो लाल डिस्टेम्पर से पुती दीवार थी, वह दूसरी दीवारों को मुंह चिढ़ाती थीं दरवाजा, नक्काशी के मद में चूर था। सोफा और दीवान एक बिरादरी के होने पर भी एक दूजे को फूटी आंखों नहीं भाते थे। कभी दीवान से चर्र की आवाज आ गई, तो फिर सोफे का मारे खुशी से बुरा हाल। और कभी सोफे से आई आवाज, तो फिर दीवान की स्वाभाविक सी प्रतिक्रिया। कोने की दीवार पर टंगे थे, झाबुआ के भीलों वाले तीर और तरकश तो दूसरी दीवार पर टंगे थे, मेवाड़ के तलवार और ढाल दोनों हमेशा ही रणभूमि की तरह आमने-सामने, अपनी श्रेष्ठता साबित करने में लगे रहते थे। विंड चाइम, कोने की अलमारी में रखे खिलौने (जो कि चाबी भरने पर बाजा बजाता है) को `फटर-फटर´ कहकर चिढ़ाता, तो खिलौना उसे `अधखुली आंख´ कहता। सबके सब कमरे में एक और अपने में अलग-अलग। भीतरी कमरे, इस प्रतिस्पर्धा से दूर थे क्योंकि उन्हें अवसर ही नहीं मिले थे, दंभ भरने के मगर मेरे घर का पहला कमरा मुझे सामंतवाद/वर्णवाद/जातिवाद/एकैकवाद/अर्थवाद का बखूबी भान कराता और चाचा का छोटा बेटा भी तो बार-बार पूछता भैया! भीतरी कमरों में इतना अंधेरा क्यों है? और मेरे पास उसका कोई जवाब नहीं होता आप इसे समाज की कालिखों से जोड़कर देख सकते हैं, अब पिताजी रिटायर हो गये हैं, और चाहते हैं घर को नया लुक देना तो टूट रहा है अब मेरा घर उम्मीद है इस बार पीछे के कमरों को भी समान अवसर मिलेंगे। या तो परिपाटी बदलेगी, या फिर जारी रहेगा वही पुराना ढर्रा। या तो सब भरेंगे दंभ या फिर वही सामने वाला कमरा। फिलहाल मेरा घर टूटा पड़ा है। प्रशांत कुमार दुबे |
भोपाल के रहने वाले प्रशांत सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ एक थियेटर कलाकार भी हैं. वे सामाजिक मुद्दों पर स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में लिखते भी रहे हैं.
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