करार पर कांग्रेस का आखिरी प्रहार

जैसे-जैसे जादुई आंकड़े को छूने की राह मुश्किल हो रही है, कांग्रेस के भीतर खलबली मचने लगी है. कांग्रेस पार्टी की मन:स्थिति का विश्लेषण कर रही हैं हरिंदर बावेजा.

पिछले पखवाड़े जापान में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ खड़े थे. माहौल गर्म था. टीवी कैमरों की भारी भीड़ थी. दोनों राष्ट्राध्यक्ष खुश थे. ये एक ऐतिहासिक अवसर था, भारतीय प्रधानमंत्री के लिए विरासत के निर्माण का क्षण. एक ऐसा क्षण जब उनकी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रहे परमाणु समझौते को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का वरदहस्त मिल रहा था. जैसा कि प्रधानमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ सदस्य कहते हैं, “दस साल पहले जुलाई 1998 में जी-आठ ने एकमत से पोखरण-2 के लिए भारत की निंदा की थी. और इस समय वही जी-आठ भारत की परमाणु नीति के समर्थन में एकमत से प्रस्ताव पारित कर रहा था.”

मगर उसके बाद के कुछ दिनों में देश में जो हुआ उससे इस क्षण का गौरव कांग्रेस के लिए सिरदर्द में तब्दील हो चुका है. अगले हफ्ते क्या होगा कोई नहीं बता सकता. सवाल कई हैं. किसकी रात किसके साथ बीतेगी? कौन दोस्त दुश्मन में तब्दील हो जाएगा? कौन वफादारी खरीदेगा? कौन बेचेगा और इसकी कीमत कितनी होगी? और जब धूल छंटेगी तो कौन अकेला छूट जाएगा और कौन किसके साथ नजर आएगा? 

परमाणु समझौते और मनमोहन सिंह का जिक्र इतिहास में किस तरह होगा ये जानने में अभी वक्त लगेगा. फिलहाल तो इस बात की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं कि इस सौम्य और ईमानदार सिख प्रधानमंत्री पर उसके और उसकी पार्टी के सत्ता से बाहर होने का दोष थोपा जा सकता है. प्रधानमंत्री कार्यालय के सूत्रों पर यकीन किया जाए तो प्रधानमंत्री ने पिछले साल अक्टूबर में ही करार पर सारी उम्मीदें छोड़ दीं थीं. उस समय उनका वो प्रसिद्ध बयान भी आया था कि अगर परमाणु समझौता नहीं हो पाया तो उन्हें निराशा तो होगी मगर जीवन आगे बढ़ता रहेगा. 

तो क्या कुछ गड़बड़ हुई है? या फिर सत्तासीन पार्टी ऐसा ही चाह रही थी? और अगर गड़बड़ हुई है तो उसका दोषी कौन है? कांग्रेस के दिग्गज और प्रबंधक? या फिर प्रधानमंत्री और उनकी अराजनीतिक टीम? 

जैसे-जैसे दिन गुजरते जा रहे हैं और ये साफ होता जा रहा है कि संख्याबल जुटाने में सत्ताधारी पार्टी की मुश्किलें बढ़ रही हैं, प्रधानमंत्री के ऊपर इल्जामों की बौछार भी बढ़ती जा रही है. कहा जा रहा है कि इस अलोकप्रिय मुद्दे पर सरकार को खतरे में डालना ही नहीं चाहिए था और ऐसा मुख्य रूप से प्रधानमंत्री की वजह से हुआ है क्योंकि वे तय योजना के मुताबिक नहीं चले. 

क्या ये सही है कि कोई तय योजना थी? और उससे भी अहम सवाल ये कि क्या प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इस फैसले पर एकराय थे? वैसे कम ही लोग इस बात पर यकीन करते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय 10 जनपथ की सहमति के बगैर आगे बढ़ा होगा. पिछले दो सालों के दौरान जब भी परमाणु करार पर संसद के भीतर और बाहर बहस हुई है, ये तथ्य पूरी तरह से साफ रहा है कि मनमोहन करार के इच्छुक हैं. ये भी सब जानते हैं कि पिछले अक्टूबर में इस मुद्दे पर वामदलों को खुलेआम समर्थन खींचने की चुनौती देने वाले प्रधानमंत्री बाद में खुद ही पीछे हट गए थे. उस समय शरद पवार, लालू यादव, करुणानिधि जैसे यूपीए के सहयोगी इस मुद्दे पर सरकार खतरे में डालने के इच्छुक नहीं थे. 

तो फिर इस बार क्या बदल गया? 

प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी कहते हैं कि मनमोहन सिंह ने जून में सोनिया गांधी से मुलाकात कर उन्हें बताया था कि ये करार ऐतिहासिक है और वाममोर्चा सिर्फ इसलिए इसका विरोध कर रहा है कि उसे बुश पसंद नहीं. माना जाता है कि प्रधानमंत्री ने सोनिया को ये भी बताया कि 2006 के आखिर में सीताराम येचुरी ने जो नौ बिंदु उठाए थे, करार में उनका ख्याल रखा गया है. तब तक प्रधानमंत्री करार पर खुशी से लेकर इसके लागू होने में आ रही अड़चनों पर हताशा तक, हर तरह के भावों की अभिव्यक्ति कर चुके थे. दरअसल अगर प्रधानमंत्री कार्यालय के सूत्रों पर यकीन किया जाए तो प्रधानमंत्री ने पिछले साल अक्टूबर में ही करार पर सारी उम्मीदें छोड़ दीं थीं. उस समय उनका वो प्रसिद्ध बयान भी आया था कि अगर परमाणु समझौता नहीं हो पाया तो उन्हें निराशा तो होगी मगर जीवन आगे बढ़ता रहेगा. उसके बाद उन्होंने इस मामले पर बातचीत का जिम्मा विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी पर छोड़ दिया था जो सुरक्षा उपायों के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) से समझौते के मसौदे को लेकर वाम दलों के साथ बातचीत कर रहे थे.

मगर फिर पिछले महीने प्रधानमंत्री की नसों में अचानक इस्पात दौड़ा और उन्होंने एक आखिरी कोशिश करने की ठानी. उनके एक करीबी सहायक बताते हैं, “उन्होंने सोचा कि आईएईए के साथ उन्हें आशा से ज्यादा सफलता मिली है और इसके लिए उन्हें 21 तोपों की सलामी दी जानी चाहिए.” ऐसा लगता है कि इस बिंदु पर उन्होंने करार पर फिर से आगे बढ़ना शुरू किया. उन्होंने अपने इस्तीफे की अफवाहों को फैलने दिया और इस तरह सोनिया गांधी पर कोई फैसला लेने का दबाव बनाने की शुरुआत की. 

तो क्या सोनिया अनिच्छा से उनके साथ खड़ी हुईं? कांग्रेस प्रवक्ता और सांसद अभिषेक मनु सिंघवी इस सवाल के सीधे जवाब से बचने की कोशिश करते हुए कहते हैं, “ज्यादातर लोग जितना सोचते या यकीन करते हैं, प्रधानमंत्री और श्रीमती सोनिया गांधी में पारस्परिक सामंजस्य, सहयोग और सम्मान उससे कहीं ज्यादा है. मैं विश्वासपूर्वक ये कह सकता हूं. मुझे याद है कि कांग्रेस संसदीय दल के एक रात्रिभोज  के दौरान वे घर रवाना होने के लिए दरवाजे तक पहुंची ही थीं कि अचानक कुछ सोचकर रुक गईं. फिर उन्होंने मुझे संकेत किया कि वे तो ये भूल ही गईं कि प्रधानमंत्री अभी भी वहीं मौजूद हैं. इसके बाद उन्होंने खुद प्रधानमंत्री को विदा करने के बाद ही वह स्थल छोड़ा. एक-दूसरे के लिए इस संवेदनशीलता और आदर को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए.” 

अगर ऐसा है और कांग्रेस के दोनों मुखिया करार के पक्ष में थे तो फिर प्रधानमंत्री के वाममोर्चे को दूसरी बार चुनौती देने से पहले उन्होंने और यूपीए ने अपनी तैयारी ढंग से क्यों नहीं की. कांग्रेस में मची हड़बड़ी तो साफ ये दर्शा रही है कि जब प्रधानमंत्री ने जी-आठ सम्मेलन के लिए जापान जाते हुए अपने विशेष विमान में पत्रकारों से बहुत जल्द आईएईए में जाने की बात कही तो इससे पहले कोई पक्की रणनीति बनाई ही नहीं गई थी.

कुछ समय तक तो कई समीक्षक गलती से यही सोचते रहे कि प्रधानमंत्री ने वाम के साथ मिलकर एक ऐसा दांव खेला है कि करार भी हो जाए और सरकार के साथ-साथ वाममोर्चे की लाज भी बच जाए. इस परिस्थिति में वाममोर्चा समर्थन वापस ले लेता और अविश्वास प्रस्ताव के दौरान अनुपस्थित रहता. यानी दोनों पक्षों का काम हो जाता. पिछले महीने प्रधानमंत्री की नसों में अचानक इस्पात दौड़ा और उन्होंने एक आखिरी कोशिश करने की ठानी. उनके एक करीबी सहायक बताते हैं, “उन्होंने सोचा कि आईएईए के साथ उन्हें आशा से ज्यादा सफलता मिली है और इसके लिए उन्हें 21 तोपों की सलामी दी जानी चाहिए.” 

मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं और वाममोर्चा अब ऐसे गुस्सैल सांड की तरह नजर आ रहा है जो कांग्रेस को पटखनी देने के लिए कृतसंकल्प है, फिर भले ही इसके लिए उसे भाजपा के साथ ही वोट क्यों न देना पड़े. 

समाजवादी पार्टी के कांग्रेस के पाले में चले जाने को निर्रथक बनाने के लिए वाममोर्चे ने बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती से हाथ मिलाया है. हालांकि भाजपा के साथ वोट देने को लेकर वाममोर्चे के भीतर एकराय नहीं है मगर इसके बावजूद सीपीएम नेता प्रकाश करात रोज अपने चाकू की धार तेज कर रहे हैं. पार्टी पत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी को दिए एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, “ये नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस और यूपीए अपना जनाधार खो रहे हैं. यही राजनीतिक हकीकत है. अगर कोई कांग्रेस के साथ अपने भविष्य की डोर बांधना चाहता है तो ये उसका निजी मामला है.”  यानी करात कांग्रेस के सहयोगियों को सिर्फ परमाणु करार के मुद्दे पर ही नहीं बल्कि सत्ता विरोधी लहर का खौफ दिखाकर भी डरा रहे हैं. 

कांग्रेस की खस्ता होती हालत की चर्चा पार्टी के अपने रणनीतिकारों और स्वतंत्र विश्लेषकों के भीतर तेज़ी से फैल रही है. राजनीतिक विश्लेषक प्रताप भानु मेहता कहते हैं, “वामदलों के एक मुद्दे वाली पार्टी लगने के मुकाबले यूपीए की सरकार कहीं ज्यादा एक मुद्दे वाली लग रही है. तरह-तरह के समझौतों के मद्देनज़र सरकार के लिए अपनी विश्वसनीयता बढ़ा पाना बेहद मुश्किल होगा.” एक और राजनीतिक विचारक सईद नकवी कहते हैं, “परमाणु करार के इर्द-गिर्द बहुत ज्यादा रहस्य बना हुआ था. कांग्रेस इसे लोगों को ठीक से समझा नहीं सकी और अब वो परेशानी में है.” 

मगर इससे भी बुरी बात ये है कि भले ही हर पल नई-नई कहानियां सुनने को मिल रही हों लेकिन कटुसत्य ये है कि सुरक्षित संख्या का इंतजाम नहीं हो सका है. इसके अलावा अनभिज्ञता की हालत भी देखने को मिल रही है—किसी को भी ये पता नहीं है कि 272 का जादुई आंकड़ा जुटाने का काम कौन कर रहा है. एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के शब्दों में, “ऐसा लगता है गणितीय आंकड़े के जुगाड़ का जिम्मा अमर सिंह और लालू यादव के कंधों पर छोड़ दिया गया है.” 

उनकी हताशा आसानी से दिख जाती है. आप कांग्रेसी नेताओं से बात करें—त्यागपत्र की सुगबुगाहट तेज़ी से फैलती जा रही है. जिस तरह की तेज़ी और उत्साह प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति चुनने के दौरान दिखाई दिया था. वैसा कुछ भी सरकार को बचाने के लिए नज़र नहीं आ रहा. सोनिया गांधी की पार्टी महासचिवों के साथ एकमात्र बैठक के अलावा किसी को एआईसीसी की बैठक के लिए नहीं बुलाया गया है. इसके उलट राष्ट्रपति चुनावों के दौरान ऐसा किया गया था. इनमें से किसी को सांसदों से संपर्क साधने की जिम्मेदारी भी नहीं दी गई है. पार्टी सूत्र इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि कांग्रेस अध्यक्षा ने राष्ट्रपति चुनावों के लिए समर्थन जुटाने के दौरान सांसदों को रात्रिभोज दिया था जबकि इस बार ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा है.

एक कांग्रेसी नेता कहते हैं, “काम कहां दिख रहा है? ऐसा लग रहा है कि हम अंधेरे में तीर मार रहे हैं. इस तरह की परिस्थिति में आपको एक-एक सांसद का हिसाब-किताब रखना पड़ता है क्योंकि कोई भी क्रॉस वोटिंग कर सकता है. एबी बर्धन के ये कहने से, कि हम सांसदों को 25 करोड़ रूपए दे रहे हैं, हमारी मुसीबते और भी बढ़ गई हैं.” 

7 जुलाई को प्रधानमंत्री द्वारा उड़ान के दौरान आईएईए में जाने की घोषणा के बाद यूपीए के भीतर लगातार बढ़ती जा रहीं दरारों को पाटने के लिए और ज़्यादा कोशिशें शुरू की गई–हालांकि इससे पहले ही प्रणव मुखर्जी 10 जुलाई को होने वाली समन्वय समिति की बैठक में शामिल होने के लिए वाम दलों को पत्र लिख चुके थे. लेफ्ट के समर्थन वापस लेने के बाद भी प्रणब मुखर्जी ने एक बार फिर कहा कि सरकार विश्वास मत हासिल किए बिना आईएईए में नहीं जाएगी मगर एक बार ये साफ होने के बाद कि सरकार पहले ही आईएईए से बात कर चुकी है उन्हें वाम दलों का फिर से कोपभाजन बनना पड़ा. नाराज मुखर्जी की अगुवाई में क्षतिपूर्ति अभियान शुरू किया गया जिसमें मोहसिना किदवई, वीरप्पा मोइली और कपिल सिब्बल शामिल थे. इनमें से एक को ये जानकर झटका लगा कि इसके बाद विदेश मंत्रालय के पास सेफगार्ड एग्रीमेंट का ड्राफ्ट अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराने के अलावा कोई और चारा नहीं था. जबकि एक दिन पहले ही कहा गया था कि ये एक “गोपनीय” दस्तावेज़ है. आज कांग्रेस प्रबंधक इस बात को दावे के साथ नहीं कह सकते कि उनकी सरकार बच ही जाएगी. उन्हें बस इस बात की उम्मीद है कि कुछ वाम सांसद बीजेपी के पक्ष में वोट देने की बजाय सदन से अनुपस्थित रहेंगे. ये भी कि शायद अमर सिंह बसपा के कुछ सांसदों को फुसलाने में सफल हो जाएं…शायद कोई चमत्कार हो जाय.

सिर्फ एक चीज ऐसी दिखी जिसके बारे में कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने पहले से ही तैयारी कर रखी थी, वो था समाजवादी पार्टी का समर्थन. लेकिन उनकी संख्या 39 ही है–जिसमें से भी कम से कम तीन उसके साथ ही नहीं हैं–जो वामदलों के 59 के मुकाबले काफी कम हैं. अगर यूपीए किसी तरह से संख्या का जुगाड़ कर भी लेती है तो उसके लिए आगे की राह आसान नहीं होगी. समाजवादी पार्टी का समर्थन ही अपने आप में सैंकड़ो सरदर्द की पर्याप्त वजह है. अमर सिंह कह रहे हैं कि उन्होंने समर्थन राष्ट्रहित में दिया है लेकिन वो अंबानी भाइयों के झगड़े में हस्तक्षेप करने के लिए प्रधानमंत्री पर दबाव बनाने से खुद को नहीं रोक सके. राजनीतिक विश्लेषक स्वप्नदास गुप्ता कहते हैं, “सरकार के बचाव के लिए पैसों का सहारा ले कर कांग्रेस ने परमाणु समझौते पर धब्बा लगा दिया.” 

आज कांग्रेस प्रबंधक इस बात को दावे के साथ नहीं कह सकते कि उनकी सरकार बच ही जाएगी. उन्हें बस इस बात की उम्मीद है कि कुछ वाम सांसद बीजेपी के पक्ष में वोट देने की बजाय सदन से अनुपस्थित रहेंगे. ये भी कि शायद अमर सिंह बसपा के कुछ सांसदों को फुसलाने में सफल हो जाएं…शायद कोई चमत्कार हो जाय. 

बहरहाल अगर इसमें से कोई जादुई फार्मूला निकल कर आता भी है– जो कि फिलहाल दिख नहीं रहा—तो एक बात साफ है कि उसे जल्द ही चुनावी राग छेड़ना होगा. कुछ तो पहले से ही खुद को शहीद दिखाने की तैयारी करना शुरु भी कर चुके हैं यानी कि कांग्रेस ने राष्ट्रहित में राजनीति की बजाय देश को तरजीह दी. पर क्या इससे फायदा होगा? क्या ग्रामीण भारत के लिए परमाणु करार इतना मायने रखता है? कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी इसके जवाब में कहते हैं, “जब आप देशहित की बात करते हैं तो फिर आपको ये उम्मीद भी रहती है कि देश आपके साथ खड़ा रहेगा. अगर कोई अड़चन है जो भारत के महाशक्ति बनने की राह में रोड़ा अटका रही है तो वो है ऊर्जा की कमी और भारत को महाशक्ति बनाने के लिए किया गया कोई भी बलिदान बहुत छोटा है.” महंगाई के बोझ तले दबी जनता के लिए न्यूक्लियर डील के मायने पूछने पर उनका जवाब था, “90 के शुरुआती दशक से ही चुनाव तीन मुख्य मुद्दों के इर्द गिर्द लड़े जाते रहे हैं है—बिजली, पानी और सड़क. ये समझौता बिजली के लिए है.” 

उनके इस तर्क से कम ही लोग इत्तेफाक रखते हैं. भानु मेहता कहते हैं, “चुनावी नज़रिए से परमाणु करार व्यावहारिक नहीं है. मेरे ख्याल से सरकार को इस डील को इतनी उच्च प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए थी. विशेषकर जब बराक ओबामा भी इसका समर्थन कर रहे हैं.” नकवी कहते हैं, “कांग्रेस के राजनीतिक प्रबंधक हो सकता है 272 का आंकड़ा जुटा भी ले पर मतदाता निश्चित रूप से उन्हें ये संख्या नहीं देने वाले.” 

दिलचस्प बात ये है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के पास चुनाव का खाका तैयार है और मनमोहन सिंह के विश्वस्त इसे बताने के लिए भी तैयार हैं. पार्टी की सोच ये है कि अगर उन्हें जनता के बीच जाना पड़ता है तो पार्टी को इस मौके को इस रूप में भुनाना चाहिए कि हम परमाणु करार के मुद्दे पर अपने रुख पर दृढ़ रहे और वाम तथा दक्षिणपंथियों के विरोध की वजह से हमें नीचा देखना पड़ा. दूसरी बात करार को जनता के सामने इस रूप में पेश किया जाना चाहिए कि ये ऊर्जा की सुरक्षा से जुड़ा हुआ था. और अंत में पार्टी करार के जरिए सांप्रदायिकता को मात देने के लिए राष्ट्रवाद का पत्ता भी खेल सकती है.

कांग्रेस रणनीतिकारों की चिंता मुस्लिम वोटों को लेकर भी है, जिन्हें वो लंबे समय से लुभाना चाहते हैं. सपा सांसद शाहिद सिद्दीकी द्वारा अपने अख़बार ‘नई दुनिया’ के लिए करवाए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 70 फीसदी (5000 शहरी मुसलमानों के बीच हुआ) लोग करार के खिलाफ थे. जब उनसे पूछा गया कि किस मुद्दे पर वो अपना वोट डालना चाहेंगे तो 85 फीसदी लोगों ने ‘महंगाई’ को चुना. शाहिद सिद्दीकी के मुताबिक, “मुसलमान करार के प्रति काफी संवेदनशील है क्योंकि बुश के विरोधी हैं लेकिन मुस्लिम समुदाय विदेश नीति के मुद्दे पर मतदान नहीं करता है.”

लेकिन फिलहाल तो सारी निगाहें यूपीए के लिए कयामत का दिन माने जा रहे 22 जुलाई पर लगी हैं. किसी तरह अगर ये खुद को बचाने में सफल हो भी जाते हैं तो सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा ज़ोरो पर है कि तुरंत ही उन्हें किसी और मुद्दे पर एक नए अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ सकता है. अपनी पुरानी चमक कुछ हद तक फिर से वापस पाने के लिए कांग्रेस के पास एकमात्र रास्ता है—कुशल राजनीतिक प्रबंधन, जिसके सहारे वो राष्ट्रहित में पार्टीहित को बलिदान की बात कर खुद को नैतिक रूप से ऊंचा साबित करने की कोशिश कर सकते हैं. जैसा कि राहुल गांधी ने ये कहते हुए किया, “करार की वजह से अगर सरकार गिर जाए तो मुझे कोई परवाह नहीं है क्योंकि ये अच्छे के लिए है और ऐसा करने के लिए हिम्मत होनी चाहिए.”