स्वार्थी धर्मांधता

धर्म सबके लिए होते हैं। उनका बँटवारा अगर हो, तो फिर वे धर्म नहीं, बल्कि अलग-अलग मानसिकता के अलग-अलग कठघरे हैं, जिनमें जो खड़ा हो गया, वह फिर उनसे बाहर छलांग नहीं लगा सकता। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि जो जिस कठघरे में है, उसे हर हाल में उसी कठघरे के समर्थन में खड़े रहना है। अगर वह अपने ही कठघरे से बाहर कूदता है; या फिर अपने कठघरे के बुरे लोगों का विरोध करता है; या फिर भटके हुए लोगों को रास्ता दिखाता है; तो उसे अपने ही धर्म के लोगों का विरोध सहना होगा।

धर्म के बा$की लोग उसे धर्म विरोधी बताकर कई तरह की यातनाएँ देने के लिए आतुर हो जाते हैं। यहाँ तक कि कई बार मौत भी ऐसे महापुरुषों को दण्डस्वरूप दे दी जाती है। दुनिया में कई महापुरुषों के साथ यही तो हुआ है। उन्हें पागल या समाज-विरोधी साबित करके मार डाला गया, और यह जघन्य अपराध उसी धर्म के लोगों ने किया, जिस धर्म का वो धर्मात्मा था। या फिर जिस धर्मात्मा ने सबको जगाया उसके सभी दुश्मन हो गये। संसार में जगाने वालों को मार दिया जाता है। यह मुर्गे की अकारण हत्या से भी तय होता है।

दुनिया के हर धर्म में यही होता आया है। बाद में भले ही लोगों ने उस महान् व्यक्तित्व को भगवान बना दिया हो; चाहे देवता बना दिया हो; चाहे पैगम्बर बना दिया हो; चाहे सन्त बना दिया हो; चाहे महान् बना दिया हो; या चाहे धर्मात्मा बना दिया हो। लेकिन पहले तो उन पर हमले ही किये। सनातन धर्म की बात करें, तो यहाँ तो ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। भगवान श्रीकृष्ण को ही लें। लोगों ने उन पर जन्म से ही हमले किये और जीवन के आख़िरी पड़ाव तक उन्हें बुरे लोगों से लडऩा पड़ा। कलियुग में आचार्य चाणक्य से लेकर सन्त कबीर, तुलसीदास, स्वामी विवेकानन्द, राजाराम मोहन राय, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, सन्त रैदास, सन्त तुकाराम, मीराबाई तक, और आख़िर में राजीव दीक्षित तक जिसने भी अपने धर्म के लोगों को, मानव समाज को जगाने की कोशिश की, उन्हें ही धर्म से अनभिज्ञ क्रूर लोगों ने पीटा, प्रताडि़त किया और कई को मौत की नींद सुला दिया।

इस्लाम धर्म में भी यही हुआ। इस्लाम के संस्थापक और पैगम्बर कहे जाने वाले मोहम्मद पर उनके समय में ख़ूब हमले हुए। हुसैन और उनके साथी इस्लाम धर्मावलंबियों को मार डाला गया। इसी तरह ईसाई धर्म के संस्थापक यीशु मसीह ने जब बुरे रास्तों पर भटर रहे लोगों को जगाने की कोशिश की, तो उन्हें भी कई बार पीटा गया और अन्त में सूली पर लटका दिया गया। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर और बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध तक, सबको अपने-अपने समय में ख़ूब प्रताडि़त किया गया।

सभी धर्मों में छिपी गन्दगी को धोने की कोशिश करने वाले, मानव समाज को जगाने की कोशिश करने वाले स्वामी दयानन्द सरस्वती और ओशो के तो सभी धर्मों के लोग दुश्मन बन गये। अन्त में ओशो की भी हत्या ही हुई और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती को तो सनातनधर्मियों ने ही ठिकाने लगा दिया। ये कलयुग के दो ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने पूरी दुनिया के लोगों को सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया। लेकिन ये दुनिया नहीं सुधरी। आख़िरकार चरण वन्दना उन्हीं की हुई, जो मानव समाज को या कम-से-कम अपने धर्म के लोगों को गुमराह करते रहे और कर रहे हैं। अफ़सोस की बात यह है कि ऐसे ढोंगियों की चरण वन्दना जीवित रहते होती है। भले ही मरने के बाद वास्तविक अवतारों, समाज सुधारकों और सन्तों को पूजा जाता रहा हो। आजकल तो उन्हीं की मान्यता ज़्यादा है, जो साधुता का ढोंग करते हैं। धर्मों में आ चुकी बुराइयों में और भी गन्दगी डालकर ज़्यादा पागलपन और पाखण्ड के साथ पेश करते हैं। अब जो जितना ज़्यादा समाज को गर्त में डाल सकता है, उसे उतना ही ज़्यादा आदर-सत्कार मिलता है। उसकी जीते-जी पूजा होती है। ऐसे ढोंगियों पर अब ख़ूब धन-वर्षा की जाती है। उन्हें भोग लगाये जाते हैं। इसी के चलते ये लोग अथाह सम्पत्ति के मालिक बनते जा रहे हैं। चाहे ऐसे लोग धर्मों की ठेकेदारी कर रहे हों; चाहे राजनीति में हों। लेकिन हर धर्म में ऐसे पाखण्डियों की भरमार है। फिर भी एक कटु सत्य यह है कि इन पाखण्डियों को भी अपनी दुकान चलाने के लिए उन्हीं महापुरुषों, उन्हीं सन्तों और उन्हीं अवतारों के नामों का सहारा लेना पड़ता है, जिन्हें उनके समय के समाज ने चैन से जीने नहीं दिया। फ़र्क़ यह है कि ये लोग अपने फ़ायदे के लिए उनके नामों का इस्तेमाल करते हैं। इनसे बचने के लिए सभी धर्मों के लोगों को अपने ज्ञान का विस्तार करना होगा और स्वार्थी धर्मांधता की दलदल से निकलकर निर्मल ज्ञान की छाया में आना होगा। भले-बुरे, सही-ग़लत की पहचान करनी होगी और ईश्वर की प्राप्ति के लिए भटकाने वालों से दूरी बनानी होगी। इसके लिए उन्हीं महापुरुषों का अनुशरण करना होगा, जिन्होंने मानव समाज को सन्मार्ग दिखाया।