सारंडा में एनाकोंडा के शिकार

 

28 जून की उस घटना को याद करते ही मंगरी होनहागा अंदर तक सिहर जाती है. झारखंड के चाईबासा जिले में पड़ने वाले एक गांव बलिवा की रहने वाली यह महिला रोते-बिलखते हुए बताती है, ‘मेरा आदमी यानी पति मंगल होनहागा बिचड़ा के लिए खेत तैयार करने गया था. थक-हारकर थोड़ी देर के लिए आराम करने घर आया था. देवर सुनिया होनहागा भी घर पर ही था. दोनों भाई खाना खाने के बाद आम खा रहे थे कि अचानक सीआरपीएफ व स्थानीय पुलिस के जवान घर में घुस आए और उन दोनों को जबरन गांव के बीचोबीच बने चबूतरे के पास ले गए.’मंगरी आगे बताती है, ‘वहां उन्होंने गांव के सभी लोगों को इकट्ठा कर लिया. उसके बाद 20-22 लोगों के हाथ बांध दिए. डर और दहशत के मारे गांव का कोई भी आदमी कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं था. महिलाओं ने उनसे अपने घर के सदस्यों को छोड़ने की गुहार लगाई, लेकिन सीआरपीएफ के जवानों ने डांट दिया. हम सभी मजबूर थे. बस एक-दूसरे का मुंह ताकते रहे. महिलाएं और बच्चे रात भर वहीं जमे रहे. सुबह उनमें से 16 लोगों को पुलिस के जवान जंगल की ओर ले गए. उनमें मेरा पति भी था. बाद में मेरे पति को मार डाला गया. मुझे एक जुलाई को जब उसकी लाश मिली तब पता चला कि पुलिस ने उसे गोली मार दी है. मैं तो नहीं जान पाई आज तक कि मेरा आदमी माओवादी था. पुलिसवालों ने कैसे पता लगा लिया.’ यह बताते-बताते एक बार फिर से रोने लगती है मंगरी.

मंगरी की यह आपबीती और उसके आंसू उस अभियान की सफलता के दावों पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं जो सीआरपीएफ व पुलिस ने हाल ही में माओवादियों के खिलाफ सारंडा इलाके में चलाया था. जून में यह अभियान ऑपरेशन मानसून के नाम से चला. बीच में कुछ दिन के लिए यह रुका रहा और अगस्त में जब यह फिर शुरू हुआ तो इसका नाम ऑपरेशन एनाकोंडा कर दिया गया. इस अभियान की अब जो रोंगटे खड़े कर देने वाली जानकारियां सामने आ रही हैं वे साफ बताती हैं कि कैसे माओवादियों और पुलिस के बीच इस टकराव में यहां का आम आदमी बुरी तरह पिस रहा है.
मंगरी की बात खत्म होने के बाद उसके देवर सुनिया कहते हैं कि उस रोज 22 लोगों में से छह को जवान हेलीकॉप्टर में बैठा कर ले गए थे. वे बताते हैं, ‘बाकी के 16 लोगों को जंगल की ओर ले जाया गया. 29 जून को इन लोगों ने सबसे अपना सामान  ढुलवाया और रात भर हम सबको अपने साथ ही रखा. 30 जून को सुबह ही हम सब छोटानागरा की ओर कूच कर गए. तभी अचानक से बहदा जंगल पार करते समय तीन गोलियों के चलने की आवाज सुनाई दी.’ सुनिया आगे बताते हैं, ‘पुलिस ने मेरे बड़े भाई को मार दिया. यह बात मुझे मेरे छोटे भाई रोंडे होनहाग ने बाद में बताई. रोंडे ने भाई को पुलिसवालों द्वारा मारते हुए देखा था.’ सुनिया कहते हैं कि मारने के बाद लाश को छोटानागरा थाना लाया गया और फिर वहीं से उसे पोस्टमार्टम के लिए चाईबासा भेज दिया गया. वे बताते हैं, ‘पोस्टमार्टम के बाद थाना प्रभारी रवि किशोर प्रसाद ने मुखिया एवं पंचायत समिति, दीघा के माध्यम से हमें बुलाया और कहा कि भाई का मृत्यु प्रमाण पत्र जमा करवा दो, तुम्हें तीन लाख रुपये मुआवजा और नौकरी दे दी जाएगी. यह तो एक तरह से आदमी की जान के कारोबार की तरह ही हुआ न.’

सुनिया और मंगरी के इस आरोप को पहले तो पुलिस मनगढंत साबित करने की कोशिश की. कहा गया कि क्राॅस फायरिंग में मंगल की मौत हो गई है. लेकिन यह सवाल उठा कि जब वह निहत्थों को पकड़ कर ले गई थी तो हथियार कहां से आ गए और हथियार नहीं थे तो क्रॉस फायरिंग कैसे हो गई. अपने ही झूठ से शर्मसार पुलिस ने आखिर में सच कबूल लिया. झारखंड के पुलिस महानिरीक्षक आरके मल्लिक ने पिछले पखवाड़े एक प्रेस वार्ता करके यह बात मानी कि मंगल की मौत एक गलती थी. तहलका से बातचीत में उन्होंने फिर से कहा कि अभियान के दौरान उनसे कुछ गलतियां हुई हैं और उनसे सबक लिया जाएगा.

मंगल को बेरहमी से मार दिए जाने और फिर पुलिसवालों द्वारा झूठ बोलने से गांववाले आक्रोशित हैं. सुनिया और ग्रामीणों का आरोप है कि पुलिस गांववालों पर जुल्म ढा रही है. मंगल की मौत अथवा उसे मार दिए जाने के बाद भी जुल्म का सिलसिला रुका नहीं. एक ऐसी ही घटना 18 अगस्त को सोमा गुड़िया के भी साथ घटी. ग्रामीणों के अनुसार उसकी पहले जमकर पिटाई की गई और बाद में उसे भी जंगल की ओर ले जाकर गोली मार दी गई. मंगल होनहागा को मारने की गलती को तो पुलिस स्वीकार कर चुकी है लेकिन फिलहाल सोमा गुड़िया को मारने की बात से वह इनकार कर रही है.

मंगल होनहागा की मौत एक गलती थी, इस बात को पुलिस स्वीकार कर चुकी है. इससे कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं

थलकोबाद के जुड़िदा होनहागा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. हालांकि उनकी किस्मत अच्छी थी कि उनकी जान बच गई. यह बात अलग है कि उनकी जो हालत है उसे मौत से बदतर कहा जा सकता है. 70 साल के जुड़िदा की पुलिसवालों ने ऐसी पिटाई की कि उनकी कमर ही टूट गई है. वे अब भी बिस्तर पर ही पड़े रहते हैं. जुड़िदा बताते हैं कि दो अगस्त को वे नित्य क्रिया से निवृत्त होकर घर वापस आ रहे थे कि अचानक पुलिस ने बिना कुछ पूछे उन्हें पीटना शुरू कर दिया. इस बात की गवाही गांववाले भी देते हैं. घटना की खबर मिलने पर स्थानीय विधायक मिस्त्री सोरेन भी उनसे मिलने पहुंचे और उसे कुछ रुपये देने की कोशिश की. जुड़िदा ने विनम्रता से पैसे लेने से इनकार कर दिया. वे बताते हैं, ‘मैंने उनसे कहा कि आप मेरे घर चावल-दाल भिजवा दें और पुलिसवालों से कह दें कि जब मेरा पोता चावल-दाल ले कर आए तो उसे पकड़ें नहीं.’

तिरिलपोशी के रामसाय मेलगान्डी भी पिटाई के शिकार हुए हैं. बकौल रामसाय दो अगस्त को थोलकोबाद की ओर से आए जवानों ने अचानक लोगों की पिटाई शुरू कर दी. ग्रामीणों ने यह भी आरोप लगाया कि सिंगा जतरामा के घर से तो पुलिस अपने खाने के लिए चावल, मुर्गा, मुर्गी सब उठा ले गई. ऑपरेशन खत्म हो जाने के बाद भी अब तक इस गांव में पुलिसिया कैंप लगा हुआ है और ग्रामीण भय के साये में हैं कि पता नहीं कब किसकी पिटाई हो जाए.

बलिवा, थलकोबाद, तिरिलपोशी, बिटकिल सोया जैसे गांवों में लोगों की जिंदगी पुलिस और माओवादियों की ज्यादतियों के चलते नरक हो गई है. ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा आैैर गृह सचिव जेबी तुबिदव मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखकर गुहार लगाई है कि पुलिसिया जुल्म रोका जाए और पुलिस द्वारा मारे गए लोगों की सच्चाई जानने के लिए सीबीआई जांच कराई जाए. मंगल और सोमा की बात तो फिर भी चर्चा में आ गई लेकिन सारंडा के कई गांवों में, सोमा-मंगल और जुड़िदा जैसी कई दास्तानें बनती हैं और किसी को कुछ पता भी नहीं चलता.

इस सबके बावजूद पुलिस के अधिकारी व सीआरपीएफ के डीजी लालचंद यादव इसे अब तक का सबसे सफल ऑपरेशन मान रहे हैं. हालांकि मंगल की मौत को तो पुलिस अपनी गलती मान रही है, लेकिन अन्य मामलों को वह मनगढंत कहानी बताती है. यादव का कहना है कि यह सब माओवादियों के प्रवक्ता समरजी द्वारा फैलाई गई झूठी खबरें हैं. ग्रामीणों को मारने-पीटने की बात को सिरे से नकारते हुए वे कहते हैं कि उन्होंने गांव के लोगों को उनकी जरूरत की चीजें तक मुहैया कराई हैं और गांववालों का उन पर भरोसा बना है.

पुलिस भले ही इन बातों को नकार दे पर पुलिसिया मार की वजह से सुनिया सोय जैसे लोग अब भी थरथर कांपने लगते हैं. पश्चिमी सिंहभूम जिले में तिरिलपोशी गांव के सुनिया अपनी आपबीती बताते हुए कहते हैं, ’14 अगस्त को अचानक से पुलिस मेरे घर पर आ धमकी. बोला कि हमारे साथ चलो. मैं लोगों की पिटाई देखकर पहले से ही बिल्कुल सहमा हुआ था. इन लोगों ने रात भर मुझे अपने साथ ही रखा. अगले दिन वे मुझे सोमा गुड़िया के खाली पड़े घर में ले गए. वहां मुझे घर की छत की बल्ली के सहारे उल्टा लटका दिया और बेरहमी से पीटा. मेरे हाथ-पांव रस्सी से कसकर बंधे थे. वे मुझसे जबरन यह कबूल करवाना चाहते थे कि मैं एमसीसी का सदस्य हूं और उन्हें बारूद और खाना पहुंचाने का काम करता हूं. जब मैंने यह बात नहीं मानी तो मुझे दो दिन तक बगैर खाना-पानी के ही रखा गया.’ सुनिया आगे बताते हैं, ‘मैं उनसे गुहार-मनुहार करता रहा कि इस तरह की प्रताड़ना से अच्छा है कि मुझे गोली मार दें. लेकिन इसके बाद भी उन्हें मुझ पर तरस नहीं आया. चार दिन तक यह सिलसिला चलता रहा और 19 अगस्त को मुझे चाईबासा थाना ला कर एक सादे कागज पर टीप सही (अंगूठे का निशान और हस्ताक्षर) करवा कर छोड़ा गया. मेरे हाथ-पांव अब भी ठीक से काम नहीं कर रहे हैं. मेरी ही तरह सारंडा क्षेत्र के अन्य लोगों का जीवन भी पुलिस ने नारकीय बना दिया है.’

एक ओर जहां ऑपरेशन ग्रामीणों के लिए समस्या व कठिनाई का सबब बना, वहीं दूसरी ओर यह पुलिस के लिए भी कम सिरदर्द नहीं रहा. करीब एक माह तक चले अभियान की शुरुआत बड़े गुपचुप ढंग से हुई और कोशिश की गई कि मीडिया को इस बारे में कोई जानकारी न हो. कुछ मीडियाकर्मियों ने वहां जाने की कोशिश की तो उनके कैमरे तक छीन लिए गए. हालांकि बाद में ये लौटा दिए गए. पुलिस का तर्क था कि मीडिया में आने वाली खबरों से माओवादियों को अपनी रणनीति बनाने में मदद मिलती है.

लेकिन आॅपरेशन की तैयारी की पोल तब खुल गई जब एक साथ तैनात जवानों में से करीब 400 को मलेरिया या सेरेब्रल मलेरिया हो गया. जवानों की तबीयत से पूरे महकमे में तब भूचाल आ गया जब दो जवानों को इस बीमारी ने अपना निवाला बना लिया. आईजी ऑपरेशन डीजी पांडे और आईजी आरके मल्लिक इसके बावजूद ऑपरेशन की सफलता का बखान करते हुए कहते हैं कि ऑपरेशन के दौरान 33 माओवादियों को हिरासत में ले लिया गया और 12 पर प्राथमिकी दर्ज कराई गई है. इस दौरान 179 बारूदी सुरंगों की बरामदगी हुई, सात प्रशिक्षण कैंप ध्वस्त किए गए, 226 चक्र कारतूस पकड़े गए, 4,33,000 रुपये जब्त किए गए और 416 डेटोनेटर, 238 बुस्टर, 30 देसी ग्रेनेड, 13 मोबाइल फोन, आठ बक्सा नक्सली साहित्य समेत कई चीजें बरामद हुईं. हालांकि पुलिस की मानें तो इस लंबे ऑपरेशन में सिर्फ पांच दिन ही मुठभेड़ हुई. लेकिन सवाल यह है कि जब 12 लोगों पर ही प्राथमिकी दर्ज है तो केवल संदेह के आधार पर पकड़े गए लोगों को किस बिना पर बंदी बनाकर रखा गया है. इस बारे में बात करने पर आईजी मल्लिक कहते हैं, ‘अगर वे निर्दोष साबित होंगे तो उन्हें बरी कर दिया जाएगा. लेकिन ऐसे मामलों में थोड़ा सहयोग तो सबको करना ही पड़ेगा.’
लालचंद यादव कहते हैं, ‘तिरिलपोसी, थलकोबाद आदि गांवों के लोगों की पीड़ा को हम खूब समझते हैं और हमारी कोशिश होगी कि गांव तक सड़कें बनें.’ उनकी मानें तो गांव के लोग माओवादियों के चंगुल से मुक्त होना चाहते हैं और अपने गांवों तक सड़क बनवाना चाहते हैं पर माओवादी ऐसा होने नहीं दे रहे. वे तो यह भी कहते हैं कि समरजी तथा अन्य माओवादी जबरन गांव की लड़कियों को उठा ले जाते हैं और मजबूरन उन्हें उनसे शादी करनी पड़ती है. लेकिन सवाल यह है कि यदि पुलिस का रवैया इतना ही बढ़िया था और वह ग्रामीणों की इतनी ही शुभचिंतक थी तो तिरिलपोशी, थलकोबाद, राटामाटी, बलिवा आदि गांव के सारे के सारे लोगों को गांव खाली करके क्यों भागना पड़ा.

यहां अहम सवाल यह है कि एंटी नक्सल आपरेशन का सारा जोर सारंडा पर ही क्यों केंद्रित है

उससे भी अहम सवाल यह है कि एंटी नक्सल ऑपरेशन का सारा जोर सारंडा पर ही क्यों केंद्रित है. यदि सरकार सचमुच लोगों की हितैषी है तो वह अन्य क्षेत्रों में भी ऑपरेशन क्यों नहीं चला रही?

इसका जवाब प्लानिंग कमीशन के सदस्य व मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग देते हैं. उनका मानना है कि सारंडा में ऑपरेशन एक सुनियोजित साजिश के तहत चलाया जाता है. ग्रामीणों में दहशत पैदा करने के लिए ही उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है ताकि वे अपने गांव-घर को छोड़कर खुद ही कहीं और चले जाएं. वे कहते हैं, ‘सारंडा के क्षेत्र में सरकार ने 19 एमओयू किये हैं. इन क्षेत्रों में ऐसे अभियानों का भी एकमात्र कारण जो नजर आता है वह है एस्ट्रो स्टील, मित्तल जैसी कंपनियों को वहां अधिकार दिलाना. चूंकि आदिवासी प्रकृति प्रेमी हैं और उनकी हर गतिविधि से प्रकृति जुड़ी हुई है तो वे अपने क्षेत्र को छोड़कर आसानी से तो जाएंगे नहीं. लेकिन जब उन पर लगातार जुल्म होगा तो वे मजबूरन इस जगह को छोड़ने को विवश होंगे.’ ग्लैडसन के मुताबिक अगर ग्रामीण दोषी हैं तो उन्हें सजा मिलनी चाहिए लेकिन अगर पुलिस ने ज्यादती की है तो उसे भी माफ नहीं किया जा सकता. वे मामले की सीबीआई जांच की मांग करते हैं.

ग्लैडसन की बात से सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टान स्वामी भी सहमत दिखते हैं. वे कहते हैं कि पुलिस ग्रामीणों को भगाने और उद्योगों को लगवाने की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए ही इस तरह के अभियान चला रही है और निर्दोष ग्रामीणों को बार-बार पीट रही है. वे कहते हैं, ‘इस ऑपरेशन के कारण इस बार ग्रामीणों की फसल तक बर्बाद हो गई. खेती के समय में लोगों को घर छोड़ कर भागना पड़ा है. इसलिए पीड़ित परिवार को तत्काल राहत देने के लिए उन्हें नौकरी और मुआवजा दिया जाना चाहिए.’ इस मामले पर विधायक बंधु तिर्की ने तो सभा को संबोधित करते हुए पीड़ित परिवार के लिए 50 लाख रुपये मुआवजा और सरकारी नौकरी देने तक की मांग कर दी. भले ही इसे राजनीतिक बयान मान लिया जाए लेकिन ऐसा नहीं है कि इस सच को पुलिस नहीं जानती. तभी तो महानिदेशक आरके मल्लिक ने 10 अगस्त को यह कहा कि जिन लोगों के घरों से पुलिस ने अनाज उठा लिया है या लोग मारे गए हैं उन्हें तुरंत तीन महीने का राशन उपलब्ध कराया जाएगा. यदि पुलिस के दावे सही हैं तो फिर इस तरह के निर्णय वह क्यों ले रही है?

खबर लिखे जाने तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक टीम सारंडा आने की तैयारी कर रही थी. यह टीम सारंडा में नक्सलविरोधी अभियान के दौरान मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों की जांच करेगी. सारंडा में यह हलचल तब हो रही थी जब राजधानी में विधानसभा सत्र के ठीक पहले भाषा को लेकर मामला गरमा रहा था. बाद में सारंडा का शोर सदन में भी सुनाई पड़ा और राजधानी में इसे लेकर थोड़ी-बहुत हलचल हुई. लेकिन जल्द ही मामला शांत हो गया.

उधर, सारंडा के गांवों में जिंदगी अब भी शांति से कोसों दूर है.