शहर में एक जंगल

शहर भी अक्सर जंगल की मानिंद लगते हैं, जहाँ कुछ लोग जब हमारे पास से गुज़रते हैं तो लगता है अभी-अभी एक पड़ हमारे करीब से गुज़र गया है। ऐसे लोग जब उदास होते हैं, तो हम बिना उनके अजनबी होने की परवाह किये उनकी चिन्ता करने लगते हैं। अविनाश बुखार से आज ही उठा था। सुबह के 7:00 बजे थे, डीटीसी की 764 नम्बर की लो फ्लोर बस जैसे कुहरे के दानव को चीरती हुई प्रकट हुई और चिंचियाकर रुक गयी। वह धीरे से उसके भीतर प्रवेश कर गया। कुछ पल ठिठके रहने के बाद वह लेडीज सीट की ओर बढ़ा। क्या वह उसका सर पीछे से देखकर पहचान सकता है? उसकी नज़रें उसे काफी देर बेचैनी से ढूँढती रहीं और फिर न पाकर उदासी के विस्फोट के साथ स्थिर हो गयीं। अविनाश को लगा कि जैसे बुखार फिर चढ़ रहा है। मन हुआ उतरकर घर लौट जाए। लेकिन फिर बगल की एक सीट से आदमी उठकर आगे बढ़ा, तो अविनाश धम्म से सीट पर बैठ गया। बस कोहरे को चीरती हुई नेहरू प्लेस की ओर बढ़ती जा रही थी। अविनाश ने सोचा यही तो है शहर, जहाँ दिन एक गहरी उदासी के साथ शुरू होता है; जबकि शाम अपने साथ एक भारी-भरकम थकान लाती है।

अविनाश शहर में नया और अकेला था; जैसा कि प्राय: सभी होते हैं। उसके अकेलेपन में जो चीज़ सबसे पहली हस्तक्षेप करती आयी थी वह थी- 764 नम्बर की लो फ्लोर डीटीसी बस। लेकिन महीने-भर पहले इसमें एक और हस्तक्षेप शुरू हुआ था। एक दिन वह घर से सुबह आधा घंटे पहले ही दफ्तर के लिए निकल गया था। बस में चढ़ा, तो भीड़ ज़्यादा नहीं थी। तभी एक लडक़ी लेडीज सीट से उठ खड़ी हुई और उसने बगल में खड़े बुजुर्ग को वहाँ बैठा दिया। यह देखकर अविनाश के चेहरे पर एक स्निग्ध-सी मुस्कान तिर आयी थी, जिसे उस लडक़ी ने सहसा रंगे हाथों पकड़ लिया था। अविनाश झेंप गया था; लडक़ी भी मुस्कुरा उठी थी। शायद ये सोचकर कि कहीं दिल्ली जैसे शहर में भी लडक़े झेंपते हैं। यह घटना साधारण नहीं थी; इसका पता अविनाश को तब चला जब दफ्तर पहुँचकर भी उसकी मुस्कान निगाहों में तैरती रही। अविनाश भी दिन-भर मुस्कुराता रहा। ऐसा दिन साल में दो-चार बार ही तो आता है, जब हम दिन-भर मुस्कुराते रहें। अगले दिन अविनाश फिर पौन घंटे पहले बस स्टॉप पर पहुँच गया था। डीटीसी की वही 764 नम्बर की लो फ्लोर बस हिचकोले खाती हुई सामने आ रुकी। अविनाश जैसे ही चढ़ा, तो लेडीज सीट की तरफ वह सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी। अविनाश को उस दिन पहली बार लगा जैसे उसके सिर के पीछे भी एक जोड़ी आँखें हैं। एक खुशी उसकी आँखों में घुलती जा रही थी। अविनाश को इस खुराक की अब जैसे लत-सी लग गयी थी। अचानक आये वायरल ने उसे तीन दिन उठने नहीं दिया। आज दफ्तर को लौटे दूसरा दिन था, आज भी वह नहीं आयी थी। वह दिन-भर उदास रहा।

अब पाँच दिन हो चुके थे। उसी कोहरे भरी सुबह में अविनाश बस के हैंडल में हाथ फँसाए खड़ा हुआ था। तभी सामने की सीट पर बैठे एक अंकल की आवाज़ उसके कानों में पड़ी- ‘हे भगवान, इस शहर को आिखर हो क्या गया है?’ अविनाश की नज़र उनके हाथों में अखबार के टुकड़े पर पड़ी, जिस पर मोटे बोल्ड अक्षरों में शीर्षक चमक रहा था- ‘नजफगढ़ में दफ्तर के लिए घर से निकली युवती का बस स्टॉप से उठाकर रेप’। खबर पढक़र अविनाश की धडक़नें सहसा रुक-सी गयीं। चेहरे पर जैसे चुनचुनाहट-सी होने लगी। थोड़ी देर के लिए वह जड़-सा हो गया। घबराहट में वह अचानक आईआईटी पर उतरकर बस स्टॉप के कोने में खड़ा हो गया। कुछ देर वह वैसे ही जड़वत् खड़ा रहा। सुबह के सवा सात बजे थे। बस स्टॉप पर एक नॉर्थ ईस्टर्न लडक़ी खड़ी थी, जो उसे देखकर असहज हो रही थी। अविनाश ने अपने मन में अचानक सोचा- क्या मैं इस लडक़ी का रेप कर सकता हूँ? इस रेप के लिए मुझे तैयार होने में कितना वक्त लगेगा? रेप करने वाले रेप के लिए किसी लडक़ी को उठाने से ठीक पहले क्या सोचते होंगे? क्या मैं भी वैसा सोच सकता हूँ? अविनाश की आँखों में धुँधलका-सा छा रहा था। अचानक 764 नंबर की एक और डीटीसी बस सामने आ खड़ी हुई। अविनाश भागकर उसमें चढ़ गया। तीन दिन ऐसी ही बदहवासी में और गुज़रे। चौथे दिन भी जब वह बस में चढ़ा तो आगे लेडीज सीट की तरफ न जाकर पीछे की तरफ चला गया। वहाँ एक सीट खाली पाकर वह उस पर बैठा ही था कि वही मुस्कान वाली लडक़ी उसे अपने बगल में बैठी मिली। अविनाश उसे देखकर ऐसे चौंक गया जैसे कि भूत देख लिया हो। लडक़ी की हँसी सी छूट गयी। अविनाश सब भूलकर झल्ला उठा- ‘कहाँ थीं तुम इतने दिन?’ फिर अचानक उसे गलती का एहसास हुआ और वह – ‘नो, आई एम सॉरी’ कहता हुआ सीट से उठ खड़ा हुआ। लडक़ी ने मुस्कुराते हुए उसे बैठने का इशारा किया और बाहर मुनिरका मार्केट की ओर झाँकते हुए कहा- ‘कहीं नहीं, अपने घर चली गयी थी, इलाहाबाद; कल ही लौटी।’ अविनाश ने मुस्कुराते हुए एक लम्बी साँस ली और बाहर देखने लगा। शहर फिर एक हरे-भरे जंगल की तरह दिख रहा था।