आखिर हम सब इंसान ही तो हैं

 जब हम किसी गाँव, कस्बे या शहर की हदों में कैद होते हैं, तब हम मज़हब के साथ-साथ जाति, उपजाति, कुल गोत्र, क्षेत्र, रहन-सहन, खान-पान, भाषा या बोली और सम्पन्नता के स्तर जैसे कई दायरों में बँधे होते हैं। हालाँकि, इन िफजूल के जंजालों में आम सोच के लोग, खासकर मध्यम-वर्गीय लोग ज़्यादा हद तक फँसे होते हैं; लेकिन यह भी सच है कि पूरी तरह किसी भी वर्ग और स्तर के लोग इन दायरों से मुक्त नहीं होते। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि हमने ईश्वर के कई नाम होने के चलते उसे  अलग-अलग मान लिया है। वहीं अलग-अलग भाषाओं और शिक्षाओं के चलते हर मज़हब की एक चहारदीवारी बना रखी है। ताकि कोई भी इसे तोडऩेे की हिम्मत न कर सके। अगर कोई इस चहारदीवारी को तोडक़र मुक्त होना भी चाहे, तो भी समाज, जाति और मज़हब उसे इससे मुक्त नहीं होने देते। इन सब झंझटों से कोई तभी मुक्त हो पाता है, जब वह समाज या दुनिया को छोड़ देता है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है; वह यह कि जब कोई अपने •िाला या प्रदेश या कहें कि अपनी पैदाइश वाली जगह को छोड़ देता है, तब वह कुछ बन्धनों से कुछ हद तक मुक्त हो जाता है। इससे भी आगे यदि कोई देश छोड़ देता है, या बहुत अधिक धनवान हो जाता है, तब वह मज़हब जैसी कठोर दीवार से भी कहीं-न-कहीं बाहर आ चुका होता है। कई बार तो देश-काल की सीमाएँ भी आसानी से टूट जाती हैं।

आपने ऐसे कई उदाहरण देखे, सुने और पढ़े होंगे, जब मज़हबों की दीवारों को तोडक़र लोगों ने प्रेम-विवाह किया है और वे सफल भी हुए हैं। कुछ लोग इंसानियत को ही मज़हब मानते हैं और जाति तथा मज़हब के बन्धनों को तोडऩे वालों का साथ देते हैं; लेकिन कुछ लोग इस तरह के रिश्तों के पूरी तरह िखलाफ भी होते हैं और हमेशा जाति और मज़हब के दायरों का रोना रोते रहते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग इंसानियत के पुजारियों को नुकसान पहुँचाने से भी नहीं चूकते। कोई यह नहीं सोचता कि इस दखल से कितनी ही हँसती-खेलती •िान्दगियाँ बर्बाद हो जाती हैं; कितने ही लोग अकाल मौत के मुँह में चले जाते हैं। क्या बुरा है अगर पूरी दुनिया एक हो जाए? क्या गलत है अगर हम यह मान लें कि ईश्वर एक ही है और उसने सृष्टि को एक ही तरह से बनाया है? ये दोनों ही बातें पूरी तरह सत्य और शाश्वत् हैं; तो फिर मानने में हर्ज क्या है? क्या हम ईश्वर, सृष्टि और उसके नियमों से ऊपर हैं? नहीं। मगर मानने को तैयार नहीं कि पूरी दुनिया एक ही ईश्वर ने बनायी है। और यही आपसी मनमुटाव, मतभेद, तकरार, वैमनस्य, घृणा, ईश्र्या, कलह की जड़ भी है। यूँ तो मतभेद और मनभेद इंसानी िफतरत है और यह दुनिया के रहने तक रहेगी भी; क्योंकि सबकी सोच, व्यवहार, भाषा, रहन-सहन, इच्छाओं में एक अन्तर होता है। यही कारण है कि कुछ लोग इतने प्रेमी और शान्त हृदय के होते हैं कि पूरे जीवन में उनकी किसी से तू-तू, मैं-मैं तक नहीं होती; जबकि कुछ लोग इतने दुष्ट और नफरत फैलाने वाले होते हैं कि दूसरों की जान लेने तक से नहीं झिझकते।

मगर कोई कितनी भी नफरत करने वाला क्यों न हो, वह भी अकेला नहीं चल सकता; उसे भी किसी-न-किसी से प्यार करने, उससे समझौता करने या उसके साथ रहने की ज़रूरत तो होती ही है। यह अलग बात है कि वह अपने ही जैसे किसी इंसान को अपने लिए चुनता है। यानी कुल मिलाकर सार तत्त्व यही है कि नफरत करने और फैलाने वालों को भी प्यार और सद्भाव की आवश्यकता रहती ही है, और सदैव रहेगी। यानी दुनिया नफरत से न तो चलती है और न ही कभी चलेगी। अरबों इंसानी •िान्दगियों की रेल प्यार और शान्ति की दो पटरियों पर ही दौड़ रही है और दौड़ती रहेगी। ऐेसी ही प्रेम-कहानी ब्रिटेन में रहने वाले दीप और अलीशा की है। दीप का पूरा नाम दीपक राणा है और वह भारतीय है। वहीं अलीशा का पूरा नाम अलीशा खान है और वह बांग्लादेशी है। िफलहाल यह जोड़ा कहाँ है, नहीं मालूम; लेकिन यह बात 2006 की है। अलीशा और दीप एक आईटी कम्पनी में  नौकरी करते थे। साथ काम करते-करते दोनों में परिचय हो गया और फिर धीरे-धीरे दोस्ती। 2008 में दोनों ने हमेशा के लिए एक-दूसरे का होने का फैसला ले लिया। दोनों ने अपने-अपने परिवार में अपने फैसले के बारे में बताया। थोड़ी-बहुत आनाकानी और रस्साकसी के बाद आिखर घर वालों ने अलीशा और दीप को शादी की इजाज़त दे दी। इसके बाद सभी की उपस्थिति में शादी की रस्में पूरी हो गयीं। कितनी आसानी से यह सब हो गया, आश्चर्य भी होता है और अच्छा भी लगता है। आिखरकार मज़हब तो इंसानों ने ही बनाये हैं। मज़हब की दीवारें इतनी भी मज़बूत नहीं होतीं, जितनी की हम मान लेते हैं। यह अलग बात है कि इन दीवारों को तोडऩे की कोशिश करने वालों को अनेक परेशानियों के साथ-साथ ज़माने की मुखालिफत और िखलाफत का सामना करना पड़ता है; ज़ुल्म सहने पड़ते हैं। लेकिन यह सब एशियाई देशों में ज़्यादा होता है; खासतौर पर भारत में। बाहर जाकर लोग इन मज़हबी दीवारों को बड़ी आसानी से तोड़ देते हैं और किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। यहाँ भी तब विरोध नहीं होता, जब कोई विदेशी लडक़ी भारतीय लडक़े से शादी कर लेती है। लेकिन दो मज़हबों से ताल्लुक रखने वाला कोई भारतीय जोड़ा ही अगर शादी कर ले, तो किसी को हज़म नहीं होता; न जाने क्यों लोगों के पेट में दर्द होता है? सबसे अजीब बात यह है कि ऐसे सम्बन्ध जुडऩे पर उन लोगों के पेट ज़्यादा दुखते हैं, जो अपने ही देश में जाति और मज़हब की हज़ारों दीवारें खड़ी करके देश को कमज़ोर किये हुए हैं। बाहर जाकर कितने ही लोग देश-काल तक की सीमाएँ भूलकर एक हो जाते हैं। एक हो जाना भी चाहिए, बाहर ही क्यों? यहाँ भी। क्योंकि आिखरकार हम सब इंसान ही तो हैं।