बहुत नहीं थे सिर्फ़ चार कौए थे काले/उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़नेवाले/
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएं और गाएं/वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनाएं.
भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की उपरोक्त पंक्तियां एकाएक मन में कौंध गई जब से काॅमरेड गोविंद पानसरे की हत्या की खबर सुनी. इन मुट्ठीभर काले कौओ की हमेशा से यही चाल रहती है कि जो उनके तयशुदा नियमों को तोड़ेगा वह उसका जीना मुहाल कर देंगे. हमारे देश के ये कौए भी ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले से लेकर शंकर गुहा नियोगी, एमएफ हुसैन …. और हाल ही में नरेंद्र दाभोलकर और अब काॅमरेड पानसरे तक को अपने प्रतिगामी तयशुदा नियमों के तहत बांधना चाहते थे. डराना चाहते थे. जब हरा नहीं पाए, बांध नहीं पाए तो धमकाने पर उतर आए. और जब इससे भी बात नहीं बनी तो हर तरह से हैरान-परेशान किया. इन काले कौओं ने कभी पत्थर चलाए तो कभी चित्र फाड़े और इससे भी मन नहीं भरा तो कायरों की तरह छुपकर वार कर भागे. दरअसल यह इनके भीतर का डर है जो किसी न किसी शक्ल में सामने आता है. काॅमरेड पानसरे की कायरतापूर्ण हत्या के पीछे भी यही डर काम कर रहा था. पर हमेशा की तरह ये भूल गए कि तर्कपूर्ण विचार, कायरतापूर्ण हत्यारी कार्रवाईयों से मारे नहीं मरता है, इतना अवश्य होता है कि ये कायर हर बार अपने इस डर से हार जाते हैं. सो, अभी ये कौए अपने अच्छे दिनों का भले ही त्यौहार मना लें पर इनकी हार निश्चित है. इतिहास का कूड़ेदान इनकी प्रतिक्षा में है.
गोविंद पानसरे से कौन डरता है
इसी 16 फरवरी की सुबह जब महाराष्ट्र के कोल्हापुर से 82 वर्षीय काॅमरेड पानसरे को गोली मारे जाने की खबर आई तो देश की प्रगतिशील, बहुजन, लोकतांत्रिक और साम्यवादी जमातों में एक भारी रोष की लहर पैदा हुई. इसी सब के बीच एक अहम बात की फिर से तस्दीक हुई कि देश, इतिहास और जन विरोधी जमात एक सच्चे और तर्कशील व्यक्ति से कितना डरती है. याद रहे कि काॅमरेड पानसरे अपने लगभग साठ वर्ष के सार्वजनिक जीवन में इन्हीं पूंजीवादी, सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों के खिलाफ आवाज बुलंद किए हुए थे. छत्रपति शिवाजी को संकीर्ण हिंदुवादी ताकतों द्वारा गौ-ब्राह्मण प्रतिपालक हिंदु राजा साबित करने की भरपूर कोशिशों को पानसरे की लिखी चर्चित पुस्तिका शिवाजी कौन था, ऐतिहासिक तथ्यों और तार्किक दलीलों से ध्वस्त कर देती है। संक्षिप्त किंतु सारगर्भित कलेवर लिए यह पुस्तिका अनेक भाषाओं में अनुवादित होकर व्यापक तौर पर पढ़ी गई है। पानसरे द्वारा एक जगह लाकर रख दिए ऐतिहासिक तथ्य पुष्टी करते हैं कि शिवाजी आम जनता के पालक थे न कि कोई धर्मांध राजा जो अपनी प्रजा में भेद करता है. यही नहीं बहुजन मुक्ति के प्रतीक शाहूजी महाराज की क्रांतिकारी विरासत को चर्चा में लाने और मिसाल बनाने का महत्वपूर्ण काम भी पानसरे ने शिद्दत के साथ किया। गोडसेवादी उनसे डरने लगे थे क्योंकि वे उनकी तथाकथित सामाजिक समरसता की पोल खोल रहे थे.
कोल्हापुर में शहरी सीमा के भीतर ही आने-जाने के लिए वसूले जानेवाले टोल टैक्स के वे घोर विरोधी थे. इसके खिलाफ एक सशक्त आंदोलन चलाए हुए थे. ऐसे अभियानों के कारण धनपति और बाहुबलि गिरोह उनके विरोधी थे. सांप्रदायिक दुराग्रहों और दक्षिणपंथी आर्थिक सोच के बीच पनपे और मजबूत होते जा रहे गठजोड़ को वे खुली चुनौती दे रहे थे. हाल ही में नाथूराम गोडसे को जिस तरह राष्ट्रभक्त करार देने की घृणित कोशिशें तेज हुई हैं, पानसरे उसके प्रबल विरोधी तो थे ही, उस सोच के पोले पन को सतत बेनकाब करने में भी लगे हुए थे. सो अंदाज लगाना क्या मुश्किल है कि इस दुनिया में उनके न रहने से किस तरह की ताकतों का हित सध सकता है. ऐसे कितने उदाहरण हमारे सामने हैं जो यह बताते हैं कि पानसरे हिंदुत्ववादी और पूंजीवादी ताकतों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुके थे. उनकी सक्रियता ही फासीवादी ताकतों की आंख की किरकिरी बनी हुई थी. कायरों ने वही किया जो वे कर सकते थे. अब हमें कुछ करना है.
पानसरे की हत्या एक व्यक्ति की हत्या भर नहीं है. वह तर्कशील विचार परंपरा को नष्ट करने की कोशिश है. पानसरे की हत्या के बाद और हत्याएं ना हों, इसलिए जरूरी है कि समाज के विचारशील, संवेदनशील, समतावादी लोग और समूह संगठन चुप ना बैठें। सांप्रदायिकता, जातिवाद, कायरता, हिंसा, गैर बराबरी की खिलाफत करे। जरूरी है सब मिलकर अस्तित्व की मुद्दे पर बल दें, भ्रामक अस्मिता पर नहीं। ऐसा कार्य हो, यही काॅमरेड पानसरे को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
असली दोषी कौन
काॅमरेड पानसरे की हत्या प्रगतिशील राष्ट्र के लिए एक बड़ा हादसा है. साथी नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों की तलाश और उन पर कोई कार्यवाई न होते हुए फिर इस मार्क्सवादी नेता पर इसी प्रकार से हमला होना बहुत कुछ संदेश दे रहा है। दाभोलकर और कॉमरेड पानसरे पर हमला एक ही तरीके से हुआ है. हालांकि, अभी तक की कानूनी कार्रवाई में यह साफ नहीं हुआ है कि पानसरे की हत्या के असली हत्यारे कौन हैं लेकिन आज के राजनीतिक और सामाजिक हालत पर नजर डालें तो समझ में आता है कि इस कायरतापूर्ण हत्याकांड के पीछे असली षडयंत्रकारी कौनसी ताकतें हो सकती हैं. यह वही मुट्ठीभर लोग हैं, जो जाति और धर्म के नाम पर गर्व व अस्मिता का मुद्दा बनाते हैं. वही दोषी हैं. इनमें पूंजीपति और धर्मपति दोनों का गठजोड़ साफ दिखता है. दाभोलकर की हत्या का समर्थन, ‘अपने कर्मों से ही उन्हें मौत आ गई’ यह कहकर करनेवाले तथा ‘पानसरे भी दाभोलकर के ही मार्ग से जाएंगे’ यह कहकर धमकानेवाले भी महाराष्ट्र में ही हैं। खुले या छुपे राजनीतिक समर्थन-संरक्षण भी इन्हें प्राप्त है. इन्हें पहचानना कठिन नहीं है. सवाल है इन्हें कानून की जद में लाने का.