वफादार सिपहसालार

बात 2002 की है. केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार थी. उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होना था. राजग ने अपना उम्मीदवार भाजपा के वरिष्ठ नेता भैरों सिंह शेखावत को बनाया था. उनके मुकाबले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सुशील कुमार शिंदे को मैदान में उतारा. शेखावत की जीत तय मानी जा रही थी और कहा जा रहा था कि शिंदे का सियासी करियर खत्म होने वाला है. खुद शिंदे इस खतरे से वाकिफ थे. इसके बावजूद उन्होंने चुनाव लड़ा और जैसा कि माना जा रहा था वे हार गए. मगर उनका करियर खत्म होने की बजाय और चमक गया. बगैर कोई सवाल किए गांधी परिवार का आदेश मानने का इनाम शिंदे को छह महीने में ही मिल गया. सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को हटाकर राज्य की कमान उनके हाथों में सौंप दी थी.

एक छोटी-सी नौकरी से देश के गृहमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले सुशील कुमार शिंदे के असाधारण सफर में ऐसे कई उदाहरण हैं. इन्हीं उदाहरणों में उनकी सफलता का सूत्र भी छिपा है. राष्ट्रपति पद के लिए जब से प्रणब मुखर्जी का नाम चलना शुरू हुआ था तब से ही यह तय माना जा रहा था कि पी चिदंबरम को गृह मंत्रालय से वापस वित्त मंत्रालय भेजा जाएगा. असली कयासबाजी चल रही थी नए गृहमंत्री और लोकसभा में सत्ताधारी दल के नेता के नाम को लेकर. जब यह पता चला कि कांग्रेस आलाकमान सुशील कुमार शिंदे को ऊर्जा मंत्रालय से गृह मंत्रालय भेज रही है तो उन लोगों को सबसे ज्यादा हैरानी हुई जो सियासत में प्रदर्शन के आधार पर पुरस्कार की बात करते हैं. लेकिन जो लोग देश की सियासी पेचीदगियों से वाकिफ हैं उन्हें अफसोस जरूर हुआ पर आश्चर्य नहीं.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘हर कोई जानता है कि सुशील कुमार शिंदे गांधी परिवार के वफादार रहे हैं. गांधी परिवार को कभी उनसे खतरा नहीं लगा. आप अगर गौर से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की दोनों सरकारों को देखेंगे तो यह पता चलेगा कि गांधी परिवार कभी वैसे व्यक्ति को गृह मंत्रालय में नहीं लाया जो सरकार में स्वाभाविक तौर पर नंबर दो दिखने लगे. अपने यहां यह माना जाता है कि प्रधानमंत्री के बाद गृहमंत्री ही होता है. अपने सबसे कद्दावर नेता प्रणब मुखर्जी को भी गांधी परिवार ने गृहमंत्री नहीं बनाया. अब जब प्रणब नहीं हैं तो चिदंबरम का कद ना बड़ा हो जाए इस भय से उन्हें वित्त मंत्रालय भेज दिया गया और शिंदे को यहां ले आया गया.’

ऊर्जा क्षेत्र में सुधार की बात सालों से चल रही है, पर शिंदे के कार्यकाल में न सुधारों की गाड़ी आगे बढ़ी और न इस क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कोई प्रगति हुई

शिंदे गांधी परिवार के किस कदर वफादार हैं, इसे समझने के लिए एक और उदाहरण दिया जा सकता है. 2004 में लोकसभा चुनावों के बाद महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव हुए. कांग्रेस का इस चुनाव में जीतना बेहद मुश्किल लग रहा था. लेकिन शिंदे की अगुवाई में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के गठबंधन को बहुमत हासिल हो गया. मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार सुशील कुमार शिंदे थे. लेकिन गांधी परिवार ने विलासराव देशमुख को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया. शिंदे ने एक बार फिर बगैर कुछ कहे आलाकमान का यह फैसला स्वीकार कर लिया. इसके बाद शिंदे को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया. किसी राजनेता के राज्यपाल बनने का मतलब आम तौर पर यही मान लिया जाता है कि उसके राजनीतिक करियर पर फुल स्टॉप लग गया. लेकिन गांधी परिवार की वफादारी का इनाम शिंदे को दो साल के भीतर ही मिल गया. उन्हें 2006 में हैदराबाद के राजभवन से लाकर दिल्ली के ऊर्जा मंत्रालय में बैठा दिया गया. यानी शिंदे के बारे में जब-जब यह माना गया कि उनकी सियासी पारी खत्म होने वाली है तब-तब उन्होंने और मजबूत होकर वापसी की और इसकी प्रमुख वजह रही गांधी परिवार के प्रति उनकी वफादारी.

सियासी जानकार यह मान रहे हैं कि शिंदे को गृहमंत्री का पद भी उन्हें गांधी परिवार के प्रति वफादार होने की वजह से ही मिला है न कि उनके प्रदर्शन के आधार पर. जिस दिन शिंदे को गृहमंत्री बनाने की घोषणा हुई, उसी दिन देश ने अब तक का सबसे बड़ा ब्लैकआउट झेला. देश की तीन प्रमुख ग्रिडों के फेल होने से 22 राज्यों के 60 करोड़ से अधिक लोग प्रभावित हुए. जिस मंत्री को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए था उसे सजा देने के बजाय एक तरह से प्रमोशन दे दिया गया. अगर कोई ऊर्जा मंत्रालय के अधिकारियों से बात करे तो पता चलता है कि इस ब्लैक आउट की वजह शिंदे की ढुलमुल कार्यशैली भी थी. केंद्रीय बिजली नियामक आयोग (सीईआरसी) ने जुलाई में ही बताया था कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान नेशनल ग्रिड से अपने कोटे से अधिक बिजली ले रहे हैं. इसके बाद 12 जुलाई को ऊर्जा मंत्रालय ने इन राज्यों को एक पत्र भेजकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली.

अगर ऊर्जा मंत्रालय इन राज्यों के साथ उसी वक्त सख्ती से पेश आता तो यह संभव था कि इतनी बड़ी बिजली कटौती का सामना नहीं करना पड़ता. मंत्रालय द्वारा बनाई गई एक समिति की शुरुआती जांच में यह बात सामने आई है कि आगरा-दिल्ली और आगरा-ग्वालियर के बीच कहीं ओवर लोडिंग होने की वजह से समस्या पैदा हुई. इससे भी यह बात प्रमाणित होती है कि अगर सीईआरसी की रिपोर्ट पर ऊर्जा मंत्रालय ने कार्रवाई की होती तो ब्लैकआउट टल सकता था. उधर, जब बिजली कटौती से लोग बेहाल थे तो शिंदे इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेने के बजाय यह कुतर्क देते हुए दिखे कि अमेरिका में तो चार-चार दिन तक ग्रिड ठीक नहीं होता लेकिन यहां तो चार घंटे में ही सब ठीक हो गया.

बतौर ऊर्जा मंत्री शिंदे की नाकामी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती. जब 2006 में वे ऊर्जा मंत्री बने थे तो उस वक्त उन्होंने कहा था कि सरकार हर  घर का अंधेरा दूर करेगी. इसका मतलब यह हुआ कि शत प्रतिशत बिजलीकरण का लक्ष्य रखा गया. लेकिन इस वादे का हश्र किसी से छिपा हुआ नहीं है. 11वीं पंचवर्षीय योजना में बिजली उत्पादन की क्षमता में 78,000 मेगावॉट की बढ़ोतरी का लक्ष्य था. लेकिन शिंदे के कार्यकाल के दौरान इसमें 53,000 मेगावॉट का ही इजाफा हुआ. अभी देश की बिजली उत्पादन की कुल क्षमता है 1.87 लाख मेगावॉट. लेकिन अब भी पीक आवर में आपूर्ति और मांग के बीच 12 फीसदी का फासला है. शिंदे के कार्यकाल में सरकारी बिजली कंपनियों का हाल और खस्ता हुआ. इसकी गवाही खुद सरकारी आंकड़े दे रहे हैं. सरकारी बिजली कंपनियों पर बैंकों का 12,000 करोड़ रुपय से ज्यादा का कर्ज है.

आर्थिक मामलों का अध्ययन करने वाली संस्था क्रिसिल का अध्ययन बताता है कि 2006-07 से 2009-10 के बीच सरकारी बिजली कंपनियों का घाटा 24 फीसदी बढ़कर 27,500 करोड़ रुपय हो गया. क्रिसिल ने अनुमान लगाया है कि अगर 2011 का घाटा भी इसमें जोड़ दिया जाए तो घाटा बढ़कर 40,000 करोड़ रुपय पर पहुंच जाएगा. बिजली कंपनियां मुख्य तौर पर कोयले और गैस की कमी की समस्या का सामना कर रही हैं. इस वजह से ज्यादातर कंपनियां अपनी क्षमता से काफी कम बिजली उत्पादन कर रही हैं. इस समस्या को दूर करने के लिए शिंदे कुछ नहीं कर पाए. ऊर्जा क्षेत्र में कई तरह के सुधार की बात सालों से चल रही है. लेकिन शिंदे के छह साल के कार्यकाल में न तो सुधारों की गाड़ी आगे बढ़ी और न ही ऊर्जा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर कोई प्रगति हुई.

जानकारों की राय में इसके बावजूद शिंदे को गृहमंत्री बनाया जाना साबित करता है कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व या यों कहें कि गांधी परिवार ने उन्हें यह प्रोन्नति किसी खास रणनीति के तहत दी है. इसमें वफादारी की भूमिका तो अहम है ही, साथ में इस बात को लेकर भी निश्चिंतता है कि शिंदे का कद कभी भी उतना बड़ा नहीं हो सकता कि वे गांधी परिवार को चुनौती देते नजर आंए. कई राजनीतिक जानकार मानते हैं कि प्रणब मुखर्जी को गृहमंत्री नहीं बनाए जाने की असली वजह गांधी परिवार का यही डर थी. ऐसा लगता है कि शिंदे को गृह मंत्रालय में लाकर सोनिया गांधी दलितों को भी एक बार फिर से कांग्रेस के साथ लाने की योजना को आगे बढ़ाना चाहती हैं. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘एक दलित राजनेता को गृहमंत्री बनाकर सोनिया गांधी ने यह राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की है कि कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है जो दलितों का खयाल रखती है. कांग्रेस चाहेगी कि उसे आने वाले चुनावों में इस बात का फायदा मिले.’ वे आगे जोड़ती हैं, ‘दो साल पहले राहुल गांधी ने भी कहा था कि अगर कांग्रेस को अपने बूते केंद्र की सत्ता में आना है तो दलितों को फिर अपने साथ लाना होगा. इसके बाद से ही राहुल का दलितों के घर में जाना और भोजन करना शुरू हुआ था. शिंदे को गृह मंत्रालय में लाए जाने को इससे भी जोड़कर देखना होगा.’

राजनीति को समझने वाला एक वर्ग यह भी मानता है कि सुशील कुमार शिंदे कुछ मामलों में बतौर गृहमंत्री बेहद उपयोगी साबित हो सकते हैं

यहां सवाल यह उठता है कि क्या सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस आलाकमान ने गृह मंत्रालय जैसा अहम और संवेदनशील विभाग शिंदे  के हाथों में दे दिया या फिर वे गृह मंत्रालय संभालने में सक्षम हैं? इस सवाल का जवाब समझने में आसानी हो, इसके लिए जरूरी है कि शिंदे की पृष्ठभूमि से संबंधित कुछ और बातें जान ली जाएं. अगले चार सितंबर को अपनी जिंदगी के 71 साल पूरे करने वाले शिंदे सात बार विधायक रहे हैं. बतौर सांसद यह उनकी तीसरी पारी है. कोल्हापुर के शिवाजी विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई करने वाले शिंदे ने अपने कामकाज की शुरुआत कोर्ट में बतौर क्लर्क 1957 में की. वे इस नौकरी में 1965 तक रहे. इसके बाद वे पुलिस में सब इंस्पेक्टर बन गए. पुलिस की नौकरी के दौरान ही उन्होंने सीआईडी के लिए भी काम किया. छह साल तक पुलिस की नौकरी करने के बाद 1971 में शरद पवार उन्हें राजनीति में लाए.

इसके तीन साल बाद शोलापुर की करमला विधानसभा सीट पर उपचुनाव होना था. इसमें कांग्रेस की ओर से शिंदे को टिकट मिला और वे जीतकर पहली बार विधायक बन गए. इसके बाद उनका राजनीतिक ग्राफ लगातार बढ़ता ही गया. विधायक बनने के कुछ ही महीनों बाद उन्हें महाराष्ट्र की वीपी नायक सरकार में राज्य मंत्री बनाया गया. शिंदे महाराष्ट्र में वित्त, योजना, शहरी विकास, उद्योग और परिवहन मंत्रालय संभाल चुके हैं. उन्होंने रिकॉर्ड नौ बार महाराष्ट्र का बजट पेश किया है. वे दो मर्तबा 1990 और 1996 में महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं. 1992 में उन्हें महाराष्ट्र से राज्य सभा के लिए चुना गया.

शिंदे को राजनीति में आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका शरद पवार की रही. लेकिन पवार के कांग्रेस से अलग होने से पहले से ही शिंदे गांधी परिवार के करीब हो गए थे. जब सोनिया गांधी ने अमेठी से अपना पहला चुनाव लड़ा तो शिंदे को उन्होंने चुनाव एजेंट बनाया था. इससे गांधी परिवार से शिंदे की नजदीकी और बढ़ी. हालांकि, गृहमंत्री बनने के बाद भी एक दिन शिंदे ने यह बयान दिया कि शरद पवार उनके राजनीतिक गुरु हैं. इस बयान को कांग्रेस और शरद पवार के बीच खराब हो रहे रिश्ते को ठीक करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है. जब पिछली बार शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे तो उसी दौरान आदर्श सोसाइटी को जमीन आवंटित की गई थी. 2010 में जब आदर्श घोटाला सामने आया तो उससे शिंदे का भी नाम जुड़ा. इस घोटाले की जांच कर रही समिति के सामने भी शिंदे को पेश होकर अपना पक्ष रखना पड़ा. शिंदे आदर्श सोसाइटी की गड़बड़ियों से पल्ला झाड़ते हुए सारा दोष महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख पर मढ़ते हैं.

शिंदे के साथ काम करने वाले लोग उनकी खूबियों को गिनाते हुए उनकी विनम्रता का उल्लेख सबसे पहले करते हैं. हाल तक शिंदे के सहयोगी के तौर पर काम करने वाले एक अधिकारी कहते हैं, ‘वे बहुत विनम्र हैं. वे सबकी यहां तक कि एक चपरासी की बात भी काफी गंभीरता से सुनते हैं. इसकी एक वजह यह हो सकती है कि उन्होंने खुद कचहरी में चपरासी की नौकरी की है और बाद में पुलिस में बतौर सब इंस्पेक्टर काम किया है. सत्ता और पैसे का मद उनमें नहीं दिखता. इन्हीं योग्यताओं के बूते उन्होंने एक सामान्य चपरासी से लेकर देश के गृहमंत्री तक का सफर तय किया है.’  उनकी तीन बेटियों में एक प्रणिति शिंदे महाराष्ट्र में विधायक हैं. प्रणिति कहती हैं, ‘वे कभी भी नाराज नहीं होते. धैर्य के साथ अपना काम निपटाते हैं. वे हमेशा मुस्कुराते रहते हैं और काफी मेहनत करते हैं.’ प्रणिति से बातचीत में ही यह पता चलता है कि लोक कला और मराठी साहित्य से शिंदे को लगाव है और वे हिंदी व मराठी फिल्मों के पुराने गाने सुनना पसंद करते हैं. विचार वेद के नाम से उन्होंने मराठी में एक किताब भी लिखी है.

लेकिन क्या ये योग्यताएं उन्हें बतौर गृहमंत्री सफल बनाएंगी? ऊर्जा मंत्रालय के उनके कामकाज को देखते हुए कई जानकार आशंकित हैं.  इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) के एक पूर्व प्रमुख कहते हैं, ‘यह बात तो गृह मंत्रालय के अधिकारी भी समझ रहे हैं कि शिंदे को गृहमंत्री क्यों बनाया गया है. उनके पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि चिदंबरम के शुरू किए गए काम को आगे बढ़ाना भी उनके लिए चुनौती साबित होने जा रहा है. उनकी असल परीक्षा नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी), तेलंगाना, माओवाद, कश्मीर और आतंकवाद के मोर्चे पर होने वाली है.’ गृह मंत्रालय में उनके शुरुआती दिनों का कामकाज देखकर मंत्रालय के अधिकारी भी उत्साहित नहीं है. मंत्रालय में उच्चपदस्थ एक  आईएएस अधिकारी बताते हैं, ‘जिस दिन वे गृहमंत्री बने, उसी दिन पुणे में विस्फोट हुआ, लेकिन वैसी तत्परता नहीं दिखी जैसी चिदंबरम के समय दिखती थी. गृह मंत्रालय के कामकाज से शिंदे कितने वाकिफ हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें यह जानकर भी आश्चर्य हुआ कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मॉर्निंग मीटिंग के लिए रोज गृह मंत्रालय आते हैं. कार्यभार संभालने वाले दिन शिंदे ने ढाई घंटे तक अधिकारियों की बैठक ली, लेकिन इसके बावजूद अधिकारी शिंदे की रणनीति नहीं समझ पाए. अधिकारी आपसी बातचीत में इस बैठक को उबाऊ बता रहे थे.’ 

अधिकारियों में यह बात चल रही है कि कहीं फिर से गृह मंत्रालय में वैसा माहौल न बन जाए जैसा शिवराज पाटिल के कार्यकाल के दौरान था. बताते चलें कि चिदंबरम ने गृह मंत्रालय की कार्यशैली में काफी बदलाव किया था. अधिकारी और अन्य कर्मचारी समय पर आएं, इसके लिए उन्होंने बायोमेट्रिक सिस्टम लगवाया था. वे खुद समय से पहले दफ्तर पहुंचते थे.  इस वजह से अन्य अधिकारी भी बिल्कुल समय से मंत्रालय आने लगे. चिदंबरम के कार्यकाल के दौरान तकरीबन दो दर्जन आतंकी योजनाएं पटरी से उतारी गईं. चिदंबरम के कार्यकाल में ही अमेरिका को इस बात के लिए मजबूर होना पड़ा कि वह मुंबई हमले के मुख्य आरोपित डेविड कोलमैन हेडली से भारत को पूछताछ की मंजूरी दे. सऊदी अरब को भी अबु जुंदाल का प्रत्यर्पण करना पड़ा. चिदंबरम के कार्यकाल के दौरान गृह मंत्रालय ने अर्धसैनिक बलों की संख्या 45,000 से बढ़ाकर 1.10 लाख की.

भले ही अधिकारी शिंदे की कार्यशैली को लेकर चिंतित हों लेकिन राजनीति को समझने वाला एक वर्ग मानता है कि शिंदे कुछ मामलों में बतौर गृहमंत्री बेहद उपयोगी साबित हो सकते हैं. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘एनसीटीसी का मामला राज्यों के विरोध की वजह से आगे नहीं बढ़ पाया. कई क्षेत्रीय दलों के नेता मानते हैं कि चिदंबरम थोड़े जिद्दी नेता हैं और कई बार वे अपने फैसले थोपते हैं. लेकिन शिंदे की छवि टकराव से बचने वाले और सबको साथ लेकर चलने वाले नेता की है. शिंदे ने गृह मंत्रालय संभालते ही यह बयान दिया कि वे राज्यों को साथ लेकर चलेंगे. माओवाद के मसले पर भी उन्होंने कहा कि वे बातचीत शुरू करने के लिए हिंसा रोकने की शर्त नहीं रखेंगे. जबकि चिदंबरम इसके उलट सोचते थे. ऐसा लगता है कि शिंदे राज्यों के साथ केंद्र के संबंध सुधारने की एक प्रमुख कड़ी साबित होने की कोशिश करेंगे.’

शिंदे के सहयोगी और देश की राजनीति की बारीक समझ रखने वाले लोग अब यह बात भी कर रहे हैं कि अगर 2014 में किसी तरह फिर से कांग्रेस कमजोर बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आती है तो शिंदे प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं क्योंकि कमजोर बहुमत की स्थिति में संभवतः राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने से परहेज करें. 2014 में शिंदे की उम्र 73 साल होगी और गांधी परिवार उन्हें शीर्ष पद देकर दलितों का हितैषी होने का संदेश देने की कोशिश कर सकता है. नीरजा चौधरी तो यह भी कहती हैं कि संभव है कि चुनाव से पहले ही दलितों का समर्थन पाने के लिए कांग्रेस ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करे कि अगले प्रधानमंत्री शिंदे हो सकते हैं.