लिट्टे आतंकवाद में तबाह हुई महिलाएँ कैसे बनीं स्वावलंबी?

नीलम गुप्ता

पहले यूक्रेन और अब इजरायल ने एक बार फिर हमें बता दिया है कि युद्ध की विभीषिका कैसे लोगों व इलाक़ों को अपनी आग में झुलसा हमेशा-हमेशा के लिए तबाह कर देती है। इनसे पहले अफ़ग़ानिस्तान का हाल हम देख ही चुके हैं। पर जैसे भी हो, लोगों को तो फिर से उठना ही होता है। पिछले दिनों श्रीलंका की ऐसी दो महिलाओं से मुलाक़ात हुई, जो तमिल ईलम के मुक्ति चीतों (एलईटीटीई) के संघर्ष व हिंसा का शिकार हुई थीं और आज न केवल अपने, बल्कि अपने आसपास के कई गाँवों की महिलाओं को रोज़गार के लिए हुनरमंद बना उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने में लगी हुई हैं।

संद्रासेग्राम कलेवाणी और शिवारास स्वरांजलि दोनों पूर्वी श्रीलंका से हैं और सेवा, अहमदाबाद द्धारा आयोजित किसान महिलाओं के प्रति भेदभाव और जलवायु परिवर्तन से बढ़ती उनकी समस्याओं के सम्बन्ध में हुए तीन दिन के एक सम्मेलन में भाग लेने आयी थीं। अलग से हुई बातचीत में कलेवाणी बताती हैं कि ‘पूर्वी श्रीलंका में लिट्टे का संघर्ष 1989 से पहले ही शुरू हो गया था और यह क़रीब 20 साल चला। जब वह ठंडा पड़ा, तो हमारे गाँव विधवाओं, बेसहारा औरतों व अनाथ बच्चों से भरे हुए थे। छोटे-छोटे स्थानीय उद्योग धंधे पूरी तरह बर्बाद हो चुके थे और खेती भी लगभग नहीं ही थी। हर तरफ़ भूख और बेबसी का आलम था। लोग घोर निराशा में डूबे हुए थे। मानसिक रोगों का शिकार हो चुके थे। इलाज की कोई व्यवस्था थी ही नहीं। अस्पतालों में दवाइयों व स्टाफ, दोनों का ही अभाव था। आदमी लोग रोज़गार के लिए गाँवों से बाहर व मिडिल-ईस्ट देशों में चले गये थे। पर महिलाओं का तो कहीं ठौर नहीं था। गाँवों में हमारा समाज पुरुष प्रधान है। उसमें औरतें गाँव से बाहर कम ही निकलती हैं। मैं पहले तो अपने पति के साथ खेत (बटाई) पर काम करती थी। फिर एक एनजीओं ने मुझे अपने साथ जोड़ लिया। उसका प्रोजेक्ट ख़त्म हो गया, तो सब्ज़ी बेचने का काम करने लगी।’

आज कलेवाणी तीन ज़िलों में चल रही महिलाओं की सहकारिताओं के बोर्ड की उपाध्यक्ष हैं। अपने ज़िले बट्टीकलोआ में उसके रोज़गार प्रशिक्षण के 20 सेंटर चल रहे हैं। 2011 से लेकर अब तक वह 5,000 से भी ज़्यादा ज़रूरतमंद महिलाओं को सिलाई व व्यवसाय प्रबंधन का प्रशिक्षण दे चुकी है। यह कैसे हुआ?

सेवा से मिला प्रशिक्षण

कलेवाणी कहती हैं- ‘मुझे सरकार के डीएस ऑफिस (डिवीजनल सेक्रेटेरिएट) ने बुलाया और पूछा कि क्या मैं काम की ट्रेनिंग लेना चाहूँगी। मैंने हाँ कर दिया। दो बहनों ने मेरा इंटरव्यू लिया मास्टर ट्रेनर के लिए। गारमेंट्स बनाने की ट्रेनिंग देने के लिए। उसके बाद मुझे भारत में अहमदाबाद में सेवा (स्वाश्रयी महिला सेवा संघ) के ऑफिस भेजा गया। वहाँ तीन महीने मेरी ट्रेनिंग हुई। वापस लौटकर मैंने अपने गाँव वालचिन में सेवा फैसिलिटी सेंटर स्थापित किया। शुरुआत गाँव की ही चार विधवाओं से की। यह 2011 की बात है। तबसे अब तक मैं 5,000 से भी ज़्यादा महिलाओं को कपड़े सिलने की ट्रेनिंग दे चुकी हूँ। और यह ट्रेनिंग मात्र सिलाई की ही नहीं है। इसमें सिलाई के लिए कपड़ा ख़रीदने से लेकर उत्पादन व मार्केटिंग, सभी कुछ शामिल है। शुरू में प्रशिक्षण के लिए कपड़ा सेवा देती थी। उत्पादन के लिए हम दुकानदारों से लेकर उन्हें तैयार कपड़े दे देते थे। जो मज़दूरी मिलती, उसमें से 10 प्रतिशत सेंटर के लिए रखकर बाक़ी बहनों को दे देती। बाद में तो कई अन्य गाँवों में भी ऐसे ही सेंटर शुरू किये और व्यवसाय का सेवा का सहकारिता का मॉडल अपनाया।’

10वीं पास शिवराज स्वरांजलि पूर्वी श्रीलंका के ही अंपारा ज़िले के तिरूकोविल गाँव में रहती हैं। वह बताती हैं- ‘मैं कभी अपने घर से बाहर नहीं निकली थी। मेरा ज़िला लिट्टे के आतंकवाद से बुरी तरह प्रभावित हुआ था। उसके ख़त्म हो जाने के 10 साल बाद भी हमारे गाँवों में उसका असर साफ़ दिखायी देता था। बची-खुची कसर सुनामी ने पूरी कर दी थी। मेरा गाँव तो पूरी तरह उससे नष्ट हो गया था। ऐसे में ग़रीबी, भूख से हम लोग बुरी तरह जूझ रहे थे। 2014 में मेरे ज़िले के डीएस ऑफिस अधिकारी ने मुझे बुलाया और फूड प्रोसेसिंग ट्रेनिंग का प्रस्ताव रखा। मेरे साथ 19 और महिलाओं का चयन किया गया। हमें जो प्रशिक्षण दिया गया, उसमें बताया गया कि कैसे हमें अपने क्षेत्र में जाकर गाँवों की महिलाओं, युवतियों को फूड प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग देनी है और कैसे वे अपना कारोबार शुरू कर सकती हैं।’

रोज़गार की स्थिरता

प्रशिक्षण कार्यक्रम की सेवा समन्वयक मेघा देसाई बताती हैं- ‘2008 में भारत सरकार ने हमें श्रीलंका के पूर्वी प्रांत में महिलाओं को प्रशिक्षण देने के लिए आमंत्रित किया। उसके बाद श्रीलंका के एक आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल ने अहमदाबाद में सेवा कार्यालय का दौरा कर हमारे काम का अवलोकन किया। उन्हें लगा कि सेवा यहाँ जो काम कर रही हैं, वह उनके देश में भी महिलाएँ कर सकती हैं। इसके बाद सेवा की एक टीम श्रीलंका गयी। वहाँ महिला एवं बाल विकास मंत्री ने पूर्वी प्रांत के आतंकवाद प्रभावित तीन ज़िलों बट्टिकलोआ, अंपारा व त्रिंकोमाली में विधवाओं और अपने परिवारों का ज़िम्मा सँभाल रही एकल महिलाओं के पुनर्वास के लिए उन्हें रोज़गारोन्मुखी प्रशिक्षण देने के लिए कहा। हमारी टीम ने तीनों ज़िलों का जायज़ा लिया। इनके दूरस्थ इलाक़ों में बिजली, पानी, व यातायात कुछ भी नहीं था। खेती तो छोडि़ए, पीने तक के लिए पानी नहीं था। हमारे सामने सबसे ज़रूरी बात यह थी कि हम जो भी काम करें, वह महिलाओं की ज़रूरत को पूरा करता हो। दूसरा, जिस भी काम का प्रशिक्षण देकर उसे वे अपनी क्षमता से आगे भी बढ़ा सकें। उसे पूर्ण रोज़गार में तब्दील कर सकें। इसलिए हमने प्रशिक्षण के तीन स्तर बनाये- कौशल्य प्रशिक्षण, उत्पादन प्रशिक्षण और मार्केटिंग। प्रशिक्षण के तीन क्षेत्र चुने- गारमेंट, फूड प्रोसेसिंग और सामाजिक सुरक्षा। इन तीनों व्यवसायों का चयन पूरे क्षेत्र में घूमकर और स्थानीय संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर लिया गया। बाज़ार कहाँ-कहाँ हो सकता है? इसका पता लगाने के लिए कोलंबो तक हम गयीं। इसके अलावा सोलर लाइट, वर्षा जल संचयन और आईटी। 10,000 महिलाओं को प्रशिक्षण देने का लक्ष्य रखा गया। गारमेंट, सोलर लाइट, वर्षा जल संचयन और आईटी में प्रशिक्षण के लिए 40 महिलाओं को मास्टर ट्रेनर का प्रशिक्षण देने के लिए चुना। अहमदाबाद में उन्हें काम की ही ट्रेनिग नहीं दी, बल्कि आजीविका के प्रति इंटिग्रेटड तरीक़े से कैसे काम करते हुए अपने परिवार व रोज़गार को आगे बढ़ाया जा सकता है; यह भी बताया गया।’

वह आगे बताती हैं कि वापसी पर यहाँ से चार महिलाएँ सेवा की भी उनके साथ श्रीलंका गयीं। इस बीच श्रीलंका सरकार ने उन्हें एक इमारत दे दी। उसी में उन्होंने अपने उपकरण स्थापित किये। ये उन्हें भारत सरकार ने दिये थे। जो वे यहाँ सीखकर गयी थीं, उसके आधार पर उन्होंने अपने बाज़ार विकसित किये। इसके बाद प्रांतीय स्तर पर उनकी सहकारिता का पंजीकरण करवाया गया। सहकारिता बोर्ड में तीनों ज़िलों के सभी ट्रेंड्स व सभी धर्मों के प्रतिनिधि शामिल किये गये। इसके बाद तो डीएस ऑफिस से भी उन्हें प्रोजेक्ट मिलने लगे।’

कठिन था महिलाओं को मनाना

सेवा ने इससे पहले अफ़ग़ानिस्तान में भी आतंकवाद से प्रभावित महिलाओं को प्रशिक्षण दिया था। मेघा के अनुसार, ‘उन्हें वहाँ महिलाओं को तैयार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। क्योंकि काम उनकी ज़रूरत था। हमें लगा था, वही अनुभव यहाँ भी काम आएगा। पर नहीं। यहाँ हालात एकदम अलग थे। यहाँ सरकार आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को राशन दे रही थी। इसलिए भूख उन्हें सालती नहीं थी। पर आतंकवाद का रूहानी व जिस्मानी असर बहुत गहरा था। दूसरा, यहाँ की महिलाएँ घर से कम ही बाहर निकलती थीं। ऐसे में पहले तो उन्हें उनकी हताशा-निराशा से बाहर लाना पड़ा। वे सब अपना आत्मविश्वास बुरी तरह खो चुकी थीं। उन्हें भरोसा नहीं था कि वे फिर से सिर उठाकर पहले की तरह एक अच्छा पारिवारिक व सामाजिक जीवन जी सकती हैं। क्योंकि पहले वे घर से बाहर निकलकर काम नहीं करती थीं, इसलिए उन्हें काम के लिए सेंटर पर जाकर प्रशिक्षण के लिए तैयार करना भी आसान नहीं था। बाज़ार की समझ देने के लिए कोलंबो जाना पड़ता था। उन्हें यह भी समझाना पड़ा कि सतत व स्थायी रोज़गार क्यों ज़रूरी है और सेंटर में उनका आना किस तरह से उन्हें मदद करता है। क़रीब एक साल तो उन्हें काम के लिए तैयार करने और पूर्ण रोज़गार की ज़मीन तैयार करने में ही लग गया। आज सेवा की बहने 11 ज़िलों के 52 गाँवों में काम कर रही हैं। 2021 आते-आते श्रीलंका सरकार ने बहनों को पाँच बिल्डिंग अपने काम के लिए दे दी थीं। उनकी अपनी ‘वूमन सेल्फ एंप्लायमेंट को-ऑपरेटिव सोसायटी’ है। 670 बहने इसकी सदस्य हैं। कलेवाणी इसी की उपाध्यक्ष है। सेवा ने हमें स्वावलंबी बनाया। उसका प्रोजेक्ट सरकार के साथ ख़त्म हो गया। पर हम आज भी सेवा के साथ जुड़ी हुई हैं। हमारा मार्गदर्शन वह करती रहती है। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए कैसे हमें अपनी क्षमताएँ बढ़ानी हैं, यह अब हम सेवा से सीख रही हैं। यह उसी के प्रशिक्षण का नतीजा है कि चीन की वजह से श्रीलंका में इतना बड़ा आर्थिक संकट आया, पर हमारा रोज़गार बचा रहा। आर्थिक संकट ने हमें प्रभावित किया, पर हम उसके सामने टिकी रह सकीं।’

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।)