महिला न्यायाधीशों की दरकार

हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने महाराष्ट्र से नवनियुक्त 75 न्यायिक अधिकारियों के सम्मान समारोह में उम्मीद जतायी कि आने वाले 20 वर्षों में देश की उच्च अदालतों व सर्वोच्च अदालत में 50 प्रतिशत महिला न्यायाधीश होंगी। दरअसल इसकी प्रमुख वजह इन 75 न्यायिक अधिकारियों में से 45 महिला अधिकारियों का होना भी है। उन्होंने इसे बदलते हुए वक़्त का इशारा बताया। प्रथम दृष्टया यह पारंपरिक तौर पर पुरुष प्रधान न्यायपालिका के ढाँचे में लैंगिक बराबरी की ओर एक ठोस बदलाव लगता है। लेकिन फ़िलहाल उच्च अदालतों और सर्वोच्च अदालत में न्यायाधीशों / न्यायमूर्तियों की संख्या के मुक़ाबले महिला न्यायाधीशों / न्यायमूर्तियों की संख्या बहुत कम नज़र आती है।

इंडियन जस्टिस रिपोर्ट-2022 के अनुसार, 25 उच्च अदालतों में महिला न्यायाधीशों की संख्या 13 प्रतिशत है। (उस समय तक) इन उच्च अदालतों में एक भी प्रमुख न्यायाधीश महिला नहीं है। यह रिपोर्ट इस तथ्य पर भी रोशनी डालती है कि सन् 2020 से सन् 2022 के दरमियान उच्च अदालतों में महिला न्यायाधीशों के प्रतिनिधित्व में दो प्रतिशत से भी कम की वृद्धि दर्ज की गयी। सिक्किम उच्च अदालत में महिला न्यायाधीश का प्रतिशत 33.3 है और उसके बाद तेलंगाना में यह प्रतिशत 27.3 है। इस अवधि में आंध्र प्रदेश में महिला न्यायाधीश के प्रतिनिधित्व में गिरावट पायी गयी, उनकी संख्या 19 प्रतिशत से 6.7 प्रतिशत रह गयी है। छत्तीसगढ़ में 14.3 प्रतिशत से गिरकर 7.1 प्रतिशत तक रह गयी है। यह गिरावट चिन्ता पैदा करती है। यही नहीं, इंडियन जस्टिस रिपोर्ट यह भी ख़ुलासा करती है कि बिहार, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय और उत्तराखण्ड की उच्च अदालतों में एक भी महिला न्यायाधीश नहीं है। सर्वोच्च अदालत में मौज़ूदा 32 न्यायाधीशों में से तीन महिला न्यायाधीश हैं।

ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत की स्थापना 1950 में हुई और स्थापना के 39 साल बाद यानी 1989 में फ़ातिमा बीबी इस अदालत की पहली महिला न्यायमूर्ति बनीं। फ़ातिमा बीबी ने एक बार कहा था कि उन्होंने एक बंद दरवाज़ा खोला है। उल्लेखनीय है कि अभी तक इस शीर्ष अदालत के प्रमुख न्यायाधीश पुरुष ही रहे हैं। मौज़ूदा मुख्य न्यायाधीश भी पुरुष हैं। इस समय शीर्ष अदालत में तीन महिला न्यायाधीश हैं और इनमें से एक न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना 2027 में पहली प्रमुख न्यायाधीश बन सकती हैं। लेकिन अगर ऐसा हुआ, तो उनका यह कार्यकाल महज़ 36 दिन का होगा। संवैधानिक अदालतों यानी उच्च अदालतों व सर्वोच्च अदालत में महिला न्यायाधीशों का कम प्रतिनिधित्व एक अहम मुद्दा है।

इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश की निचली अदालतों में महिला न्यायिक अधिकारियों का प्रतिनिधित्व 35 प्रतिशत है। गोवा देश में पहले नंबर पर है, यहाँ यह संख्या 70 प्रतिशत है। इसके बाद मेघालय में 62.7 प्रतिशत और तेलंगाना में 52.8 प्रतिशत महिला न्यायिक अधिकारी हैं। न्यायपालिका में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के पीछे कई कारण भी हैं। जैसे क़ानूनी पेशे में पुरुषों का आधिपत्य, समाज द्वारा इस पेशे को महिलाओं के अनुकूल नहीं मानने वाला नज़रिया। इस संकीर्ण सामाजिक नज़रिये की क़ीमत महिलाएँ किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे न होने पर भी चुका रही हैं। न्याय व्यवस्था के बुनियादी ढाँचे को भी महिलाओं को मौक़ा देने पर विशेष ध्यान देना होगा। न्याय देते वक़्त न्यायाधीश क़ानून की व्याख्या व अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्यों को ध्यान में रखते हैं; लेकिन फिर भी महिला न्यायधीशों की संख्या बढ़ाने की दरकार है।

उच्च अदालतों व शीर्ष अदालत में न्यायाधीशों के पदों पर लैंगिक समानता से अलग ही सामाजिक संदेश ध्वनित होगा। इससे समाज को फ़ायदा होगा। क़ानून के जानकार लोगों का यह भी मानना है कि यौन हिंसा से जुड़े मामलों में संतुलित और सहानुभूतिपूर्ण नज़रिया अपनाने के लिए न्यायपालिका में महिलाओं का बेहतर प्रतिनिधित्व होना चाहिए। देश में महिलाओं की तादाद क़रीब 68.5 करोड़ है व क़ानून के पेशे में महिलाओं की संख्या बहुत कम है। इस पेशे में महिलाओं को आगे बढ़ाने देने के लिए उनके अनुकूल सुविधाएँ मुहैया कराने के साथ-साथ प्रगतिशील नज़रिया भी बनाकर रखना होगा।