महिलाओं को निगल रहा दहेज़

हाल में संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण सम्बन्धी नारी शक्ति वंदन अधिनियम लोकसभा व राज्यसभा में पारित हो गया। महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बाद क़ानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि विकसित भारत बनाने को नारी सशक्तिकरण आवश्यक है। यह महिलाओं को सामाजिक-आर्थिक सहभागिता बढ़ाने का अवसर देने वाला विधेयक है।’

इसमें कोई दो-राय नहीं कि महिलाओं की भागीदारी राजनीति, आर्थिक व सामाजिक मंचों पर बढ़ती हुई दिखनी चाहिए, इससे किसी को भी एतराज़ नहीं होना चाहिए। लेकिन सवाल यहाँ पर यह भी अहम हो जाता है कि महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए उनके प्रति होने वाली हिंसा, अपराध को रोकने को लेकर सरकार कितनी गम्भीर है? आज क्यों दहेज़ जैसी प्रबल सामाजिक बुराई को रोकने में सरकार व समाज दोनों विफल हैं? दहेज़ निषेध क़ानून तो है; मगर क्या सरकार व अमल में लाने वाली एजेंसियों को इस बात की ख़बर नहीं है कि अब दहेज़ देने व लेने वाले रिवाज़ ने अलग तरह का चोला धारण कर लिया है। देश में दहेज़ सम्बन्धित मौतों के आँकड़ें सरकार के लिए मात्र सरकारी आँकड़े ही हैं, जो हर साल सरकारी दस्तावेज़ों में दर्ज होते रहते हैं। पर क्या वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ व बेटी आगे बढ़ाओ वाली योजना को सवालों के घेरे में खड़ा नहीं करते?

देश में रोज़ाना 20 महिलाएँ दहेज़ के कारण मार दी जाती हैं। 14 दिसंबर, 2022 को संसद में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के हवाला देते हुए यह जानकारी साझा की गयी। दरअसल केंद्रीय गृह मंत्री अजय कुमार मिश्रा द्वारा कांग्रेस सांसद के.सी. वेणुगोपाल को दिये गये लिखित उत्तर के अनुसार, वर्ष 2017 और वर्ष 2021 के बीच भारत में कुल 35,493 दहेज़ हत्याएँ हुईं। वर्ष 2017 में 7,466, वर्ष 2018 में 7,167, वर्ष 2019 में 7,141, वर्ष 2020 में 6,966 और वर्ष 2021 में 6,753 दहेज़ हत्याएँ सरकारी दस्तावेज़ में दर्ज हैं। पर इसके साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हर दहेज़ हत्या सरकारी दस्तावेज़ों में दर्ज हो; क्योंकि बहुत-सी घटनाओं को लेकर लोग ही पुलिस के पास नहीं जाते और फिर ज़रूरी नहीं है कि पुलिस हर दहेज़ उत्पीडऩ के मामले को गम्भीरता से ले और उपयुक्त धारा के तहत मामला दर्ज करें।

बहरहाल सरकारी आँकड़ों के विस्तार में जाएँ, तो पता चलता है कि वर्ष 2017 व वर्ष 2021 की अवधि यानी इन पाँच वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक दहेज़ हत्याएँ (11,874) दर्ज की गयीं। उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार की यह लगातार दूसरी पारी है। योगी जी के नेतृत्व में पहली मर्तबा भाजपा की सरकार वर्ष 2017 में ही सत्ता में आयी थी और 2022 में फिर से सत्ता में है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, जिनकी छवि बुलडोजर वाले मुख्यमंत्री की गढ़ दी गयी है, और जो अपने राज्य में अपराधियों को किसी भी प्रकार की छूट नहीं देने का दावा करते हैं, उनके ही शासन-काल में महिला के प्रति अपराधों की सूची के तहत आने वाले दहेज़ हत्या के मामले में उत्तर प्रदेश देश में शीर्ष स्थान पर है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तस्वीर के साथ प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर वाले बड़े-बड़े होर्डिंग के ज़रिये इस राज्य के विकास को लेकर बड़े-बड़े सरकारी दावे किये जाते हैं; मगर महिलाओं की एक असली तस्वीर यह भी है। उत्तर प्रदेश के बाद बिहार का नंबर आता है, जहाँ 2017-2021 के दरमियान दहेज़ के लिए 5,354 महिलाओं की हत्या कर दी गयी।

$गौरतलब है कि देश में कुल दहेज़ हत्याओं में से लगभग आधी (48 प्रतिशत) उत्तर प्रदेश व बिहार में होती हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो बिहार में बीते कई वर्षों से लगातार मुख्यमंत्री बने हुए हैं; आख़िर दहेज़ हत्याओं को रोकने में वे कहाँ विफल हो रहे हैं। इस पर उन्हें ध्यान देने की ज़रूरत है। महिलाओं की मतदाता के तौर पर राजनीतिक ताक़त का एहसास करने वाले इस राजनेता व राज्य के मुख्यमंत्री के पास संभवत: इस सवाल का कोई जवाब होगा। इस सूची में भाजपा शासित मध्य प्रदेश तीसरे नंबर पर है, यहाँ दहेज़ हत्याओं की संख्या 2,859 है और उसके बाद पश्चिम बंगाल में 2,389 व राजस्थान में 2244 मौतें दर्ज की गयीं।

इसी तरह ओडिशा में 1,653, हरियाणा में 1,235, महाराष्ट्र में 998, कर्नाटक में 934 और तेलंगाना में 933 महिलाएँ दहेज़ के लिए मार दी गयीं। देश की राजधानी दिल्ली में इन पाँच वर्षों में 639 दहेज़ हत्याओं वाला आँकड़ा आता है। पंजाब में 336 तो उत्तराखण्ड में 317 महिलाओं की हत्या की वजह यही दहेज़ बना। राज्य जैसे कि मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, मेघालय, मणिपुर, गोवा, केरल, हिमाचल प्रदेश व तमिलनाडु में 2017-2021 के दरमियान हर साल औसतन 0-50 मामले प्रति वर्ष दर्ज किये गये। देश में दहेज़ की माँग के कारण जान गँवाने व प्रताडि़त होने वाली महिलाओं की संख्या बीते कई वर्षों से अक्सर प्रमुख चर्चा का विषय बनती नज़र नहीं आती। दिल्ली की ही एक सोसायटी में कपड़े प्रेस करने वाली रेणु (नाम असली नहीं) नामक महिला ने बताया कि उसकी बेटी जो कि स्नातक पास है, उसके लिए जो लडक़ा पसन्द आया, उसने शादी से कुछ दिन पहले एक बहुत महँगी मोटरसाइकिल की माँग कर डाली।

रेणु, जो विधवा हैं; ने लडक़े को समझाया कि मेरे पास पैसा नहीं है। लेकिन वह अपनी माँग से टस-से-मस नहीं हुआ और रेणु ने उधार लेकर उसकी इस दहेज़ की माँग को पूरा किया। लेकिन अब भी शादी के दो साल बाद वह अपनी पत्नी (रेणु की बेटी) को अपनी माँ (रेणु) से और दहेज माँगने के लिए प्रताडि़त करता रहता है। यह मसला सिर्फ़ कम आय वालों तक ही सीमित नहीं है। मध्यम आय वाले व उच्च आय वाले परिवारों की माँग महँगी कारों व फ्लैटों, प्लॉट या शेयर बाज़ार में निवेश की शक्ल में बदल गयी है। शादियों में सोने की जगह हीरे के गहनों की माँग प्रचलन में आ गयी है। डेस्टिनेशन शादी की प्रचलन रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। हाल ही में राज्यसभा सांसद व आप पार्टी के नेता राघव चड्ढा ने फ़िल्म अभिनेत्री परिणति चोपड़ा से उदयपुर में शादी की है।

इस शादी में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने भी शिरकत की। इस शादी पर कितने करोड़ ख़र्च हुए? यह वास्तविक रक़म सामने आएगी या नहीं, पता नहीं। हाँ; यहाँ दहेज़ का मसला भी नहीं होगा। पर इस तरह की होने वाली शादियाँ समाज के अन्य तबकों पर एक दबाव बनाने का काम करती हैं, और इस दबाव में लोग उधार लेकर या अपनी अन्य कई महत्त्वपूर्ण ज़रूरतों को एक तरफ़ धकेलकर सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर बड़ी हस्तियों का अनुसरण करते हैं। इससे वे एक बोझ तले दबते चले जाते हैं। क्या राजनेताओं को सिंपल शादी करके आम जनता के सामने एक मिसाल नहीं पेश करनी चाहिए। ऐसी शान-ओ-शौक़त जो आमजन के हित में नहीं है। उसके विरोध में खड़े होकर अपनी अलग पहचान बनाने का यह मौक़ा इस युवा नेता ने संभवत: खो दिया है। बहरहाल देश में दहेज़ निशेध अधिनियम-1961 है। इस अधिनियम का मक़सद दहेज़ प्रथा पर रोक लगाना और इससे पीडि़त महिलाओं को सुरक्षा देना था। विवाहित महिलाओं के प्रति दहेज़ सम्बन्धी क्रूरता को रोकने के लिए सन् 1983 में आईपीसी की धारा-498(ए) के तहत मामले दर्ज करने का ख़ास प्रावधान किया गया। इसके तहत यह प्रावधान किया गया कि अगर शादी के सात साल के अन्दर महिला की मौत ससुराल में अस्वाभाविक तरीक़े से होती है, तो यह दहेज़ हत्या माना जाएगा। यह सच है कि इस धारा ने दहेज़ की माँग से पीडि़त कई महिलाओं को इंसाफ़ दिलाने में मदद की; लेकिन इसके समानांतर यह हमेशा से आलोचना के घेरे में भी रही है।

क़ानून के कई जानकार इससे सहमत हैं कि कई महिलाएँ अपने पतियों को परेशान करने के लिए इसका बेजा इस्तेमाल करती हैं। वर्ष 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं द्वारा आईपीसी की धारा-498(ए) के दुरुपयोग को क़ानूनी आतंकवाद क़रार दिया था। यही नहीं, कुछ महीने पहले सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान अपने फ़ैसले में कहा- ‘यदि मौत का कारण पता नहीं हो, तो शादी के सात साल के भीतर ससुराल में सभी अस्वाभाविक मौत को दहेज़ हत्या नहीं माना जा सकता है।’ न्यायालय क़ानून के साथ-साथ तर्कों, साक्ष्यों के आधार पर अक्सर अपने फ़ैसले सुनाते हैं। दहेज़ देश में आज भी क़ानून बनने के बाद भी सामाजिक कुप्रथा के तौर पर मौज़ूद है।

सामाजिक ताने-बाने में आज भी यह कुप्रथा समायी हुई है। दहेज़ को समाज एक अनुष्ठान के तौर पर लेता है। सरकार भी दहेज़ के विरोध में अधिक मुखर भूमिका निभाती नज़र नहीं आती। संसद में 2021 में महिला व बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि मंत्रालय समय-समय पर महिलाओं की सुरक्षा को लेकर जागरूकता अभियान चलाता रहता है। राष्ट्रीय महिला आयोग व राज्य महिला आयोग सेमिनार, कार्यशालाओं के ज़रिये लोगों को दहेज़ की बुराइयों व क़ानून के ज़रिये जागरूक करते रहते हैं। भारत विश्व गुरु बनने की छवि गढऩे में कोई कसर नहीं छोड़ रहा, उसे दहेज़ से होने वाली हत्याओं को रोकने के लिए ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है।