शिक्षा पर राजनीतिक ग्रहण

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’

छात्र राजनीति एक तरफ़ और कॉलेज, यूनिवर्सिटी का शिक्षण-प्रशिक्षण एक तरफ़। पार्टियों की राजनीति एक तरफ़ और देश व जनता एक तरफ़। इस भँवर जाल में कौन, किसका हितैषी है? इसका आकलन करना आसान नहीं। डीयू के डूसू चुनाव को ही ले लीजिए, जिसमें ख़ूब गहमा-गहमी देखने को मिली। बात प्रचार से लेकर शुरू हुई और मार-पीट तक जा पहुँची। इस दौरान वोटरों को लुभाने, प्रचार में भीड़ जुटाने के लिए 600 से लेकर 1,200 रुपये तक के रेट कार्ड चले। प्रथम वर्ष के छात्र-छात्राओं के लिए पूल पार्टी, बर्गर, पिज्जा, मूवी शो के साथ रेंजरोवर, लैंबॉर्गनी, फॉच्र्यूनर जैसी महँगी-महँगी गाडिय़ों में क़ाफ़िले भी निकले।

कुछ इसी अंदाज़ में चुनावी बिसात बिछायी गयी डूसू चुनाव में। जैसे आम वोटर को लालच दिया जाता है, वैसे कॉलेजों के छात्रों को लालच में फँसा लिया जाता है। फ़र्क़ इतना है कि आम वोटर कम पढ़े-लिखे भी हो सकते हैं और ये ज़्यादा पढ़े-लिखे ही होते हैं। लेकिन नासमझों के लालच में कोई विशेष अंतर नहीं दिखायी देता; चाहे वो ग़रीब हों या अमीर। अनपढ़ हों या पढ़े-लिखे। छात्र संगठनों की भूमिका भारत में स्वतंत्रता आन्दोलनों से अब तक बहुत बदली है। ये आन्दोलन महत्त्वपूर्ण भी रहे हैं; लेकिन आज इनमें नफ़रत और हिंसा बढ़ रही है। परिवर्तनकारी समाज में छात्र या कहें युवा देश की रीढ़ हैं और देश का भविष्य हैं।

भारत में छात्र राजनीति की जड़ें गहरी हैं। सन् 1848 भारत में सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने स्टूडेंट साइंटिफिक एंड हिस्टोरिक सोसाइटी की स्थापना एक छात्र मंच के रूप में की थी। भारत में इस मंच को ही छात्र आन्दोलन का सूत्रधार माना जाता है। सन् 1913 में पहली बार इस संगठन ने अंग्रेजी छात्रों और भारतीयों के बीच अकादमिक भेदभाव के विरोध में किंग एडवर्ड मेडिकल कॉलेज, लाहौर में हड़ताल की थी। सन् 1918 तक छात्र आन्दोलन का दायरा काफ़ी बढ़ गया। सन् 1905 में यह एक स्वदेशी आन्दोलन के रूप में बहुत मज़बूती के साथ देशहित में खड़ा दिखायी दिया। इस आन्दोलन में छात्रों ने सामूहिक रूप से कॉलेजों, ब्रिटिश सामान और छात्र क्लब का बहिष्कार किया। अखिल भारतीय कॉलेज छात्र सम्मेलन में सन् 1912 में अहमदाबाद में महात्मा गाँधी के साथ पहले चरखा स्वराज और शिक्षा का नारा बुलंद किया। सन् 1919 में असहयोग आन्दोलन के दौरान भारतीय छात्रों ने स्कूल और कॉलेज का बहिष्कार किया। सन् 1936 में आरएसएस की विचारधारा के साथ हिन्दू छात्र संघ का गठन किया गया। इस संगठन ने विभिन्न माँगों को लेकर सन् 1936 में अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन लखनऊ में आयोजित किया, जिसमें उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, पंजाब, उड़ीसा के छात्र और प्रतिनिधि शामिल हुए। हिन्दू छात्र संघ के बाद सन् 1937 में मुस्लिम लीग ने अखिल भारतीय मुस्लिम छात्र संघ की स्थापना की। हिन्दुओं की बहुलता को देखते हुए अपने अधिकारों को संरक्षित करने के लिए इस संघ ने मुसलमानों के लिए अलग देश की माँग। इसके लिए आन्दोलन भी चले। 

इसके बाद आज़ाद भारत में सन् 1949 में संघ कार्यकर्ता बलराज मधोक की अगुवाई में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) का गठन हुआ। धीरे-धीरे छात्र आन्दोलन का स्वरूप बदलने लगा। स्वतंत्रता के बाद देखा जाए, तो छात्र संगठन राजनेताओं के लिए एक प्रमुख राजनीतिक हथियार बनकर उभरे; लेकिन इसके बावजूद चिपको आन्दोलन, आपातकाल के दौरान हुए आन्दोलन, मंडल विरोधी आन्दोलन इत्यादि में छात्रों ने बढ़ चढक़र हिस्सा लिया। आज़ादी के बाद विभिन्न कॉलेजों में कई सारे संगठन अपनी माँगों को लेकर सामने आये।

सन् 1959 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने युवा पीढ़ी की प्रगतिशीलता और लोकतांत्रिक रूप से एकजुट करने के लिए अखिल भारतीय युवा संघ की स्थापना की। सन् 1967 में चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल ने सामंती शोषण के विरुद्ध नक्सलवादी आन्दोलन की शुरुआत की। बाद में छात्रों की एकजुटता ने इसे और भी ज़्यादा क्रांतिकारी बना दिया, जिसका आज बिगड़ा रूप हम देख सकते हैं। इंदिरा गाँधी ने सन् 1971 को एक राष्ट्रीय छात्र संगठन बनाने के लिए केरल स्टूडेंट यूनियन और पश्चिम बंगाल राज्य परिषद् के विलय के बाद नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) की स्थापना की। भगवान बुद्ध के ज्ञान को प्रचार-प्रसार के लिए बाबा साहेब अंबेडकर ने विदर्भ रिपब्लिक छात्र संघ की स्थापना की। 

आज़ादी के काफ़ी वर्ष बाद सन् 1974 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और समाजवादी छात्रों ने पहली बार एकजुट होकर संघर्ष समिति का गठन किया और आपातकाल के विरोध में आन्दोलन शुरू किया। उस दौरान राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव इसके अध्यक्ष और बीजेपी के नेता सुशील कुमार मोदी इसके महासचिव चुने गये। इस दौरान आन्दोलन में नयी ऊर्जा भरने के लिए जयप्रकाश नारायण को छात्रों द्वारा आमंत्रित किया गया, जिसके बाद आपातकाल के विरोध में ज़ोरदार किया गया, किसके कारण कांग्रेस सरकार को घुटने टेकने पड़े। इस प्रकार देखें, तो छात्र आन्दोलनों ने देश की भागीदारी में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यह अलग बात है कि धीरे-धीरे छात्र आन्दोलन नेता और आन्दोलन नेताओं के हाथ में कठपुतली बनकर रह गये।

समय, काल परिस्थिति के हिसाब से आज छात्र संगठनों की भूमिका संकुचित हो गया है। एक दौर था, जब छात्रों की आवाज़ देश की आवाज़ होती थी, जिससे समाज को नयी दिशा और दशा मिलती थी। आज वह राजनीतिक पार्टियों, विशेषतौर पर एक पार्टी विशेष तक सीमित होकर रह गयी है और ज़्यादातर छात्र उन्हीं के एजेंडे में शामिल होकर एक एजेंट की तरह काम कर रहे हैं। आज छात्रों और पढ़ाई के मुद्दे नहीं, बल्कि किसी भी तरीक़े से जीत सर्वोपरि है। आज छात्र संगठनों का सरोकार नहीं, उनका आकार मायने रखते हैं। आज बुनियादी बातें नहीं, ल$फ्फ़ाज़ी मायने रखती है। काम नहीं, प्रचार मायने रखता है। किसी चीज़ में क्या बुनियादी सुधार हो सकता है? इसकी चर्चा ही नहीं होती। राजनीति का स्तर क्या होना चाहिए? छात्रों का क्या स्तर होना चाहिए? विश्वविद्यालय में पढ़ाई का कैसा माहौल होना चाहिए? छात्रों और शिक्षकों के बीच अकादमिक संवाद को कैसे बढ़ाया जाना चाहिए? किसी भी मामले का हल सौहार्दपूर्ण तरीक़े से कैसे निकाला जाए? इन तमाम बुनियादी बातों की तरफ़ किसी का ध्यान ही नहीं है। विश्वविद्यालय में कोई नया नियम निकालने की बात हो या नया प्रोग्राम लॉन्च करने की बात हो, सब ऐसे चलते हैं कि जैसे कॉलेज प्रशासन का शिक्षकों और छात्रों से इत्तिफ़ाक़ ही न हो। कई नियम प्रशासन मनमाने तरीक़े से थोप देता है। अब चाहे उससे छात्रों को नुक़सान हो या शिक्षकों का। बस फ़रमान जारी कर दिया जाता है। ऐसे कुप्रबंधन की वजह सरकार की नीतियाँ और छात्र आन्दोलन की कमी है, जिसके कारण हालत सुधर नहीं रहे हैं। ऐसे कई मामले हैं, जो छात्रों के भविष्य को लेकर चिन्तित करते हैं। 

छत्तीसगढ़ के बस्तर विश्वविद्यालय की स्थिति भी कुछ यही बयाँ करती है। इसी साल बस्तर विश्वविद्यालय से सम्बन्धित क़रीब 23 विश्वविद्यालयों के परीक्षा परिणाम में 20,000 से अधिक छात्र फेल हो गये। माना जा रहा है कि इसकी मुख्य वजह परीक्षा में हुआ बदलाव है। वहीं दूसरी बड़ी वजह शिक्षकों की कमी बतायी जा रही है। छात्रों का आरोप है कि विश्वविद्यालय ने मनमाने तरीक़े से कुछ ऐसे नियम बनाये, जिससे छात्रों को परीक्षा में बेहतर परिणाम नहीं मिल रहे हैं। वहीं जेएनयू जैसे नामी संस्थान में लगातार छात्रों की कमी से विश्वविद्यालय के कामकाज और नीति-निर्धारण को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। जेनएयू शिक्षक संघ ने एक रिपोर्ट जारी करते हुए बताया कि शिक्षण वर्ष 2016-17 में छात्र-छात्राओं का अनुपात 62.21 प्रतिशत था, जो कि 2021-22 में कम होकर 46 प्रतिशत रह गया। जेएनयू शिक्षक संघ के मुताबिक, यह प्रवेश परीक्षा में बदलाव की वजह से हुआ है। जेएनयू में प्रवेश अब एनटीए के ज़रिये होता है।

पहले जब यह परीक्षा जेएनयू लेता था, तब ग़रीब और वंचित तब$कों को परीक्षा में अतिरिक्त नंबर दिये जाते थे; लेकिन इसे अब ख़त्म कर दिया गया है। एनटीए द्वारा आयोजित परीक्षा केंद्र इतने दूर होते हैं कि बहुत-से छात्र-छात्राएँ पहुँच ही नहीं पाते, जिससे छात्रों का अनुपात प्रभावित हुआ है। एक तरफ़ जहाँ बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ सहित महिलाओं के सशक्तिकरण का बिल पास किया गया, तो वहीं जेएनयू जैसे संस्थान में छात्राओं की कमी देश के लिए एक गम्भीर चिन्ता का विषय है। लेकिन मौज़ूदा केंद्र की राजनीति ऐसे फ़ैसले लेने पर आमादा है। छात्र संगठनों का पार्टियों के रूप में कार्य करना छात्रों की समस्याओं को बढ़ाने की भूमिका में है। छात्र आपस में ही लड़ते रहते हैं। पार्टियों के बैनर तले छात्र संगठनों का चाल-चरित्र नेताओं की ही तरह हो गया है; चाहे बात ख़र्चे की हों या पर्चे की। दोनों एक ही सांचे में ढले हुए दिखायी देते हैं। चुनाव लडऩे वाले छात्र नेता भी आम नेताओं की तरह सत्ता हासिल करने के लिए करोड़ों ख़र्च करते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के डूसू चुनाव की अगर बात करें, तो एक उम्मीदवार के ख़र्च की सीमा 5,000 रुपये तय की गयी थी। इसके बावजूद उम्मीदवारों ने करोड़ों रुपये ख़र्च किये गये और तर्क दिया कि यह ख़र्च प्रत्याशियों के समर्थक कर रहे हैं। डूसू चुनाव में आचार संहिता की भी जमकर धज्जियाँ उड़ायी गयीं।

विश्वविद्यालय में प्रत्याशियों ने जिस तरह से ताक़त झोंकी, उससे यही लगता है कि इस जीत में मलाई-ही-मलाई है, जिसके लिए वे करोड़ों ख़र्च करने से भी नहीं कतराते। ऐसा भी नहीं है कि मु$फ्त की रेवड़ी सिर्फ़ विधानसभा या लोकसभा चुनावों में बँटती है। यह ट्रेंड छात्र संघ चुनाव में भी साफ़ देखा जा सकता है। डूसू प्रत्याशी छात्र वोटरों को लुभाने के लिए यही सब करते हैं; इस बार भी किया। कैंपस में पटे पड़े बैनरों, पोस्टरों, पर्चों और धुआँधार प्रचार से साफ़ लगता है कि चुनाव में प्रत्याशियों ने जमकर पैसे उड़ाये और कैंपस को चुनावी दफ्तर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह चुनाव भले ही छात्रों का चुनाव हो; लेकिन उनकी प्रक्रिया आम चुनावों जैसी ही है। छात्र राजनीति अब एक अलग तरह की दबंग राजनीति में तब्दील हो गयी है, जिसमें अब रुतबा, पैसा, लड़ाई, नहीं है। बैनरों और पोस्टरों को देखकर लगता है कि इनके बीच कॉलेज और विश्वविद्यालय कहीं खो-से गये हैं। ऐसे माहौल को देखकर लगता नहीं कि यही छात्र देश के भविष्य हैं, जो चंद वोटों की ख़ातिर कुछ भी करने को आतुर हैं।

ऐसे में हर स्तर पर राजनीति का दूषित होना चिन्ता का विषय है। यही कारण है कि अब बड़ी संख्या छात्र इससे तौबा करने लगे हैं। डूसू चुनाव में जिस तरह से छात्रों ने जमकर नोटा का बटन दबाकर इसका विरोध किया, उससे तो यही लगता है। सचिव, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष व संयुक्त सचिव पर कुल 16,559 छात्रों ने नोटा का बटन दबाया। डूसू चुनाव में भले एबीवीपी ने उपाध्यक्ष पद को छोडक़र तीनों पदों पर क़ब्ज़ा कर लिया हो; लेकिन इससे विश्वविद्यालय और छात्रों का क्या भला होता है? इसे गहनता से देखा जाना चाहिए।

विश्व गुरु का दम भरने वाला भारत शिक्षा पर जारी वैश्विक रैंकिंग में फिसड्डी साबित हुआ है। क्यूएस विश्वविद्यालय रैंकिंग-2023 के टॉप 250 में महज़ आईआईटी दिल्ली 197वें और आईआईटी मुंबई 149वें स्थान पर हैं। इस साल जारी रैंकिंग में ज़्यादातर संस्थानों की रैंकिंग में गिरावट दर्ज की गयी है। दिल्ली विश्वविद्यालय को 521 और 530 रैंकिंग मिली है। क्या भारत के टॉप 10 विश्वविद्यालयों की यह रैंकिंग हमें विश्व गुरु बना सकेगी? जिस तरह की देश की राजनीति और उसकी देखा-देखी छात्र राजनीति चल पड़ी है, क्या वो हमारी नैया पार लगा पाएगी?