महामारी बन रहा डेंगू

छोटे शहरों, क़स्बों और गाँवों में फैला डेंगू, आयुष्मान भारत योजना से नहीं चल रहा काम

सुशील मानव

एक दशक पहले तक डेंगू, चिकनगुनिया जैसी मच्छर जनित बीमारियाँ दिल्ली जैसे महानगरों में ही पायी जाती थीं और देश के अन्य क्षेत्रों के लोग टीवी, अख़बार के मार्फ़त ही जानते थे कि राजधानी में डेंगू, चिकनगुनिया जैसी भी बीमारियाँ होती हैं। वहीं छोटे शहरों में मलेरिया, डायरिया, टाइफाइड, जापानी बुख़ार (इंसेफेलाइटिस), चमकी बुख़ार आदि बीमारियाँ होती थीं। अब छोटे शहरों के साथ-साथ क़स्बों और गाँवों तक डेंगू भी तेज़ी से फैल रहा है। चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली जैसे महानगरों में इस साल भी डेंगू का प्रकोप दिखा है, पर इनसे ज़्यादा भयावह स्थिति उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश और बिहार की है, जहाँ डेंगू महामारी बन चुका है। उत्तर प्रदेश के कई शहरों में डेंगू का प्रकोप है।

पिछले साल प्रयागराज में डेंगू का केंद्र बना हुआ था, जहाँ दज़र्नों लोगों की डेंगू से मौत हुई थी। तब एक कारण यह बताया गया था कि डेंगू गंगा-जमुना के किनारे वाले उन क्षेत्रों में फैला, जहाँ बाढ़ का पानी घुसा था। लेकिन इस साल तो सूखा पड़ा हुआ है। महानगरों की अपेक्षा छोटे-पिछड़े शहरों में डेंगू का संक्रमण दर भी बहुत ज़्यादा है। डेंगू से हुए मौत की चपेट में भी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए लोग ज़्यादा आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश की अगर बात करें, तो 18 अक्टूबर तक क़रीब दो दज़र्न मौतें हो चुकी थीं। ज़्यादातर गाँव के लोगों का आरोप है कि एएनएम और आशा वर्कर्स द्वारा किसी भी तरह का जन जागरूकता कार्यक्रम या जानकारी, ज़रूरी दवाएँ और ब्लीचिंग पाउडर आदि का वितरण नहीं किया गया है। न समय रहते कहीं छिड़काव करवाया गया।

बता दें कि डेंगू संक्रमित एडीज एजिप्टी नामक मादा मच्छर के काटने से होता है। आमतौर पर इसमें मरीज़ को कम-से-कम तीन दिन बुख़ार ज़रूर रहता है। डेंगू बुख़ार तीन तरीक़े का होता है- साधारण डेंगू, डेंगू हैमरेजिक बुख़ार (डीएचएफ) और शॉक सिंड्रोम डेंगू (डीएसएस)। अलग अलग निजी पैथोलॉजी में डेंगू का टेस्ट आमतौर पर 1000-1600 रुपये में होता है। पैसे की कमी के चलते अधिकांश ग़रीब लोग बुख़ार आने पर इलाज के लिए झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाते हैं। दरअसल क्षेत्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के दो प्रमुख बुनियादें- प्राथमिक स्वास्थ्य (पीएचसी) केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) ख़स्ताहाल हैं। यहाँ पर कभी जाँच किट नहीं होती, तो कभी दवाइयाँ। घंटों लाइन में लगने के बाद नंबर लगाकर डॉक्टर तक पहुँचने पर वह मरीज़ को देखकर जाँचें और दवाइयाँ लिख देते हैं।

सवाल है जब दवाइयाँ और जाँच दोनों के लिए पैसा ही ख़र्च करना है, तो फिर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र क्यों जाना? दिहाड़ी पेशा लोगों के पास इतना पैसा नहीं होता, ऊपर से उनके तीमारदार के काम का नुक़सान होता है। ज़्यादातर मरीज़ों का इलाज उधार के पैसों से होता है। नीम-हक़ीम यानी झोलाछाप छोटी-मोटी मौसमी बीमारियों का इलाज तो कर देते हैं; लेकिन डेंगू जैसी बड़ी बीमारियों में जब मरीज़ की हालत जब गम्भीर हो जाती है, तब ये लोग पल्ला झाड़कर ज़िला अस्पताल रेफर कर देते हैं। लेकिन कई बार देर होने के चलते रास्ते में ही मरीज़ की मौत हो जाती है। यह एक भयावह आँकड़ा है कि हर साल पाँच करोड़ लोग महँगे इलाज के चलते ग़रीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। मौज़ूदा सरकार ग़रीबों के लिए आयुष्मान भारत भारत योजना का ढोल पीट रही है। पर 8 अगस्त 2023 को भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा लोकसभा में पेश की गयी रिपोर्ट ने आयुष्मान योजना के आँकड़ों में फ़ज़ीर्वाड़े की पोल खोलकर रख दी कि कैसे एक फ़ज़ीर् मोबाइल नंबर- 9999999999 से 7.50 लाख आयुष्मान कार्ड जुड़े हुए हैं। 1.39 लाख आयुष्मान कार्ड एक अन्य फ़ज़ीर् मोबाइल नंबर- 8888888888 से और लगभग एक लाख आयुष्मान कार्ड एक अन्य फ़ज़ीर् मोबाइल नंबर- 9000000000 से जुड़े मिले। यानी आयुष्मान भारत योजना एक जीता जागता फ़ज़ीर्वाड़ा है। आयुष्मान कार्ड बनाने का ज़िम्मा ग्रामीण स्तर पर आशाकर्मियों के ज़िम्मे है।

स्वास्थ्य कार्यकर्ता डॉ. आशीष मित्तल कहते हैं, डेंगू एक सामान्य संचारी बीमारी है और सामान्य चिकित्सा सुविधाओं से इसका पूरी तरह से इलाज किया जा सकता है। लेकिन सरकार ने इसे लगातार नज़रअंदाज़ किया है, जिससे स्थितियाँ दिन-ब-दिन विकट रूप लेती चली गयी हैं। इस पर समुचित मीडिया रिपोर्टिंग नहीं हो रही है। कोरोना महामारी के बाद सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त किया जाना चाहिए था; लेकिन सरकार ने स्वास्थ्य व्यवस्था को निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है। जो ग़लत इलाज करके मरीज़ से मोटा पैसा बनाते हैं। निजी क्षेत्र के अस्पतालों की प्राथमिकता में निजी स्वास्थ्य बीमा वाले ग्राहक मरीज़ होते हैं। वो इलाज करते नहीं, बेचते हैं; जिसे ग़रीब व्यक्ति नहीं ख़रीद सकता। उसके लिए सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को ही पुनर्जीवन देना होगा। साथ ही बारिश के मौसम में साफ़-सफ़ाई, पानी की निकासी और डेंगू से जुड़े जन जागरूकता के कार्यक्रमों को चलाने वाले निकायों को चुस्त-दुरुस्त करना होगा।