महानंद डेयरी का संकट टाल सकेगा एनडीडीबी?

लगातार घाटे और भ्रष्टाचार के आरोपों से चर्चा में चल रही महानंद डेयरी चलेगी। महानंद को राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) चलाएगा। सवाल यह है कि क्या डेयरी में काम करने वाले कर्मचारियों की नौकरी बची रहेगी? असल पेच यही है, जो फँसा है। क्योंकि एनडीडीबी ने एक शर्त रखी है कि एनडीडीबी वर्तमान में कार्यरत 940 में से 350 श्रमिकों को समायोजित कर सकता है। ऐसे में शेष 590 कर्मचारियों का भविष्य अधर में लटक गया है।

एनडीडीबी ने कहा है कि वह सभी मौज़ूदा कर्मचारियों को समायोजित नहीं कर सकता है। लेकिन सच्चाई से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। महानंद डेयरी की माली हालत ख़राब होने के कारण महानंद डेयरी के पास कर्मचारियों को वेतन देने तक के पैसे नहीं हैं। सन् 2005 में एक समय महानंद का दुग्ध संग्रह लगभग आठ लाख लीटर था, जो अब सिर्फ़ 25 से 30 हज़ार लीटर ही है। पिछले 15 वर्षों से महानंद का मुनाफ़ा भी लगातार घट रहा है, जो अब घटकर 15 करोड़ रुपये रह गया है। इसलिए फेडरेशन चलाने के लिए बैंकों से ओवरड्राफ्ट लेना पड़ता है। विधानमंडल के शीतकालीन सत्र में पेश की गयी ऑडिट रिपोर्ट में महानंद मिल्क के प्रबंधन की कड़ी आलोचना की गयी थी। रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गयी थी कि महानंद को गिरती सम्पत्ति, बढ़ते घाटे, नयी योजनाओं की कमी और घटती नेटवर्थ को देखते हुए दो-तीन साल में महानंद डेयरी को बंद करना होगा।

विडंबना देखिए, पड़सी गुजरात ने अमूल जैसे दूध के ब्रांड को जहाँ एक और ग्लोबल बना दिया है, वहीं पर सहकारिता में एक आन्दोलन के रूप में वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाने वाले महाराष्ट्र की महानंदा जैसी संस्था ने अपना दम तोड़ दिया है। कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि महानंद जैसे ब्रांड को शासकों (नेताओं सहित) ने खा लिया। इसके लिए सभी दल और उसके नेताओं को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। राज्य में सहकारी दुग्ध उत्पादक संघों के शीर्ष निकाय महानंद को कभी भी अपने अच्छे प्रदर्शन जैसे रिकॉर्ड दूध संग्रह, दूध के नये ब्रांड या प्रसंस्कृत खाद्य के लिए नहीं जाना जाता है। यह दुग्ध संघ भ्रष्टाचार, सरकारी निधि की हेराफेरी से त्रस्त रहा है। इसका इतिहास वित्तीय अनियमितताएँ, पिछले एक दशक से दूध पाउडर और अन्य परियोजनाओं की बढ़ी हुई लागत, लीज पर ली गयी दूध पैकेजिंग इकाई में घोटाला, निदेशकों को महँगे उपहारों का वितरण, कथित चारा ख़रीद की जाँच, उसमें आरोपों की जाँच, निदेशक मंडल की बार-बार बर्खास्तगी और अब ऑडिट रिपोर्ट में गम्भीर आरोप दुष्कर्मों से भरा पड़ा है। महानंद की स्थिति को लेकर कई लोग अपनी ग़लतियाँ छुपाने के लिए आरोप लगाने से नहीं चूकते कि अन्य राज्य के ब्रांड महानंद को बदनाम करने की साज़िश कर रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि महानंद की हालत के लिए सरकार और वे लोग जिन पर इसे चलाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी वही हैं। दरअसल महानंद में पिछले डेढ़ से दो दशक से विद्रोह शुरू होने के बाद ही सहकारिता आंदोलन का रंग फीका पडऩे लगा। लेकिन अभी तक किसी ने भी इससे सबक़ नहीं लिया और आज हम देख सकते हैं कि महानंद की दयनीय स्थिति हो गयी है।

राज्य के शिखर दूध संघ का मक्खन कभी भी उत्पादकों तक नहीं पहुँचे, क्योंकि राज्य शासक इसे अपनी निजी सम्पत्ति मानते थे। जब-जब राज्य में सत्ता हस्तांतरण हुआ, उस वक़्त किसी भी सत्ताधारी ने यह नहीं सोचा इस डेयरी का उत्थान किस तरह से किया जाए? यह सवाल वास्तव में किसी के दिमाग़ में नहीं आया। इसके विपरीत सभी राजनीतिक दलों ने ने बात इतना ही सोचा है कि कैसे महानंद पर उनका पलड़ा भारी होगा और वे इससे अधिक मलाई कैसे खा सकते हैं? महानन्द पिछले कई वर्षों से सरकार के नियंत्रण में है, जबकि व्यापार करना सरकार का काम नहीं है, प्रत्यक्ष काम तो दूर की बात है और सरकार को व्यापार में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

हाल ही के दिनों में दूध पाउडर परियोजना में जबरदस्त वृद्धि हुई, निजी दुग्ध संघों ने इस मौक़े का दोहन किया और अच्छा मुनाफ़ा कमाया। उन्होंने उत्पादकों को दूध के दाम भी बढ़ा दिये। महानंद उस प्रतियोगिता में टिक नहीं सका। अगर इस दौरान सरकार ने महानंद का सहयोग किया होता तो आज महानंद की यह हालत नहीं होती। महानंद के निदेशक मंडल की बर्खास्तगी का हमेशा राजनीतिक लाभ रहा है। राज्य में सत्ता हस्तांतरण के बाद डेयरी विकास मंत्री द्वारा महानंद के निदेशक मंडल को तुरन्त बर्खास्त करने का फ़ैसला भी एक तरह से अपने वर्चस्व को बनाने की रणनीति रही है। बोर्ड बर्खास्त करना एक अलग बात हो सकती है, अपने वर्चस्व की बात हो सकती है; लेकिन नये बोर्ड के साथ महानंद के उद्धार करने की नीयत से कोशिश कभी नहीं की गयी कड़वा सच तो यह है कि हर राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद महानंद की मलाई खाने की साज़िश में लगा रहा; लेकिन उसको महानंद के उद्धार और उत्थान की बातें उनकी प्रधानता में नहीं रही। ऐसे अनेक कारणों के चलते महानन्द की आस्था उत्पादकों के साथ-साथ उपभोक्ताओं में भी कम हो गयी थी।

इस बीच आज महाराष्ट्र में सहकारी समितियों, सरकारी और निजी दुग्ध संघों के बीच समन्वय नहीं होने के कारण सभी की पाउच पैकिंग 50 प्रतिशत तक कम हो गयी है। अमूल इस गैप को भरने का काम कर रहा है। यदि महानन्द को इस तरह के पतन से बाहर लाना है, तो पहले इसमें सरकारी हस्तक्षेप को रोकना होगा। महाराष्ट्र सरकार का यह फ़ैसला कि महानंद अब एनडीडीबी को चलाने के लिए दिया जाएगा, वाक़ई समझदारी भरा फ़ैसला है यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा। फ़िलहाल डेयरी विकास मंत्री राधाकृष्ण विखे पाटिल के विधानसभा में महानंद डेयरी को चलाने के लिए एनडीडीबी को दिये जाने की बात कह चुके हैं।