न्याय संहिता, केंद्र की मंशा पर उठ रहे सवाल

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’

केंद्र सरकार आपराधिक न्याय प्रणाली को बदलना चाहती है। गृह मंत्री अमित शाह ने इसके लिए 11 अगस्त को लोकसभा में तीन नये विधेयक पेश किये। ये विधेयक भारतीय दंड संहिता (आईपीसी)-1860, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी)-1973 तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 में बदलाव के लिए हैं। इनकी जगह भारतीय न्याय संहिता (विधेयक)-2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (विधेयक)-2023 तथा भारतीय साक्षी विधेयक-2023 का प्रस्ताव है। ये विधेयक भारत के लिए प्रस्तावित एक नयी न्याय संहिता हैं। इन्हें एक व्यापक न्याय संहिता के रूप में देखा जा रहा है। इन तीनों विधेयकों के क़ानून बनने से देश की न्याय व्यवस्था पूरी तरह से बदल जाएगी।

केंद्र सरकार इस विधेयक के कई फ़ायदे गिना रही है। सरकार का कहना है कि इस अधिनियम के क़ानून बनने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता सशक्त होगी। राजद्रोह क़ानून निरस्त हो जाएगा। महिलाओं तथा बच्चों को हिंसा से बचाया जा सकेगा। अपराध पीडि़तों को न्याय मिलने में आसानी होगी। इसके अतिरिक्त इस विधेयक में भारतीय दंड संहिता की धारा-377 को पूर्ण रूप से हटाने की बात कही गयी है। ऐसा होने से समलैंगिकता, पुरुषों तथा महिलाओं के बीच सहमित, असहमति से हुए किसी भी तरह के प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक सम्बन्धों को भी वैध माना जाएगा। आईपीसी को प्रतिस्थापित करने के लिए को एक स्थायी समिति को भेजा जा चुका है। विदित हो कि गृह मंत्रालय ने सन् 2020 में आपराधिक क़ानून की तीनों संहिताओं की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय क़ानून विश्वविद्यालय, दिल्ली के पूर्व कुलपति डॉ. रणबीर सिंह की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इस समिति को देश के आपराधिक क़ानूनों में सैद्धांतिक, प्रभावी तथा कुशल सुधार की सिफ़ारिश करने को कहा गया था। इसमें न्याय, गरिमा तथा व्यक्ति के अंतर्निहित संवैधानिक मूल्यों को प्राथमिकता देने की बात कही गयी है। समिति ने फरवरी, 2023 में आपराधिक क़ानून में संशोधन के साथ अपनी सिफ़ारिशें प्रस्तुत कीं। इन सिफ़ारिशों को विधेयक के रूप में केंद्र सरकार ने लोकसभा में पेश किया।

पूर्व क़ानून मंत्री कपिल सिब्बल ने भारतीय न्याय संहिता विधेयक-2023 को असंवैधानिक बताया है। कपिल सिब्बल का आरोप है कि केंद्र सरकार औपनिवेशिक युग के क़ानूनों को ख़त्म करने के बहाने ऐसे क़ानूनों के माध्यम से न्यायपालिका पर तानाशाही थोपना चाहती है। कपिल सिब्बल ने राज्यसभा में तीनों विधेयकों वापस लेने का आह्वान किया। कपिल सिब्बल का आरोप है कि ये क़ानून देश का भविष्य ख़तरे में डाल देंगे। केंद्र सरकार ऐसे क़ानून बनाना चाहती है, जिनके तहत सर्वोच्च न्यायालय के साथ ही उच्च न्यायालयों तथा अन्य न्यायालयों के न्यायाधीशों के अतिरिक्त मजिस्ट्रेट, लोक सेवकों, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) तथा अन्य सरकारी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जा सके। कपिल सिब्बल ने इन विधेयकों को लेकर न्यायाधीशों से सतर्क होने को कहा है। कपिल सिब्बल ने कहा है कि भारतीय न्याय संहिता (विधेयक)-2023 सबसे अधिक ख़तरनाक है। संसद के दोनों सदनों में इसके पास होने से सभी न्यायिक संस्थानों पर केवल सरकार का आदेश चलेगा। इससे सरकार मनमानी तथा तानाशाही करेगी। ये (तीनों) विधेयक पूरी तरह से न्यायपालिका की स्वतंत्रता के विपरीत हैं। असंवैधानिक हैं तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता की जड़ पर प्रहार करने वाले हैं।

वास्तव में भारतीय न्याय संहिता विधेयक की धारा-254, धारा-255 तथा धारा-257 में बदलाव से न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों तथा सरकारी अधिकारियों को काम करने में समस्या आएगी। इससे उनको न्यायिक फ़ैसले सुनाने में परेशानी होगी। ग़लत फ़ैसला देने पर उन्हें जेल हो सकती है। फ़ैसला ग़लत है या सही यह केंद्र सरकार तय करेगी। कपिल सिब्बल ने कहा है कि सरकार का यह रुख़ एक तरह से न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों तथा सरकारी अधिकारियों को धमकाना है। पूर्व क़ानून मंत्री ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने संस्थानों को ख़त्म कर दिया है। जो कुछ बचा है, वह प्रस्तावित क़ानूनों से नष्ट हो जाएगा। उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि फिर आप ख़ुद को लोकतंत्र की जननी क्यों कहते हैं? आपको कहना होगा कि मैं तानाशाही का जनक हूँ। आप किस तरह के लोकतंत्र की बात करते हैं? क्या दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में ऐसे क़ानून हैं? विदित हो कि समाजवादी पार्टी से राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल अन्याय से लडऩे के उद्देश्य से एक ग़ैर-चुनावी मंच इंसाफ़ बना चुके हैं।

भारतीय न्याय संहिता विधेयक-2023 आईपीसी की वर्तमान में लागू धाराओं को निरस्त करके नये तरीक़े से प्रस्तावित करता है। वर्तमान भारतीय दण्ड संहिता को सन् 1860 में अंग्रेजों की सरकार ने क़ानून बनाया था। इसका मसौदा-1834 में थॉमस बैबिंगटन मैकाले की अध्यक्षता वाले पहले क़ानून आयोग ने तैयार किया गया। इस क़ानून में आईपीसी की 511 धाराएँ हैं, जबकि विधेयक में 356 प्रावधान हैं। इस विधेयक में मानहानि, महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध तथा आत्महत्या के प्रयास सहित मौज़ूदा प्रावधानों में कई बदलाव किये गये हैं।

इसमें आईपीसी की धारा-124(ए) राजद्रोह के अपराध से सम्बन्धित है। आजीवन कारावास का प्रावधान करती है। अब इसमें तीन साल तक की सज़ा बढ़ाने के साथ ज़ुर्माना जोडऩे का प्रस्ताव है। इस विधेयक में राज्य के ख़िलाफ़ अपराध से सम्बन्धित अध्याय है। इसके प्रावधान 150 में भारत की संप्रभुता, एकता तथा अखंडता को ख़तरे में डालने वाले कृत्यों के बारे में नया क़ानून बनाना है। इसके अतिरिक्त आतंकवाद को पहली बार इस विधेयक में परिभाषित किया गया है। परन्तु इस विधेयक में एक ऐसे व्यक्ति को आतंकवादी के रूप में परिभाषित किया गया है, जो भारत की एकता, अखंडता तथा सुरक्षा को ख़तरे में डालता है। आम जनता, जनता के किसी वर्ग को डराने या सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाडऩे के इरादे से भारत या विदेश में कोई कार्य करता है। यह सरकार तय करेगी कि कौन देश के ख़िलाफ़ काम कर रहा है। अभी तक देखा गया है कि सरकार ने उन लोगों को देशद्रोही माना है, जिन्होंने सरकार की निंदा की है तथा जिन्होंने लोगों से सरकार के ख़िलाफ़ कुछ बोला है। इस आधार पर सरकार की कमियाँ उजागर करने वाले तथा निंदा करने वाले मीडिया चैनल, सामाजिक कार्यकर्ता तथा लोग सरकार के निशाने पर होंगे। इस विधेयक में मानहानि मामले में दो साल तक की साधारण क़ैद या ज़ुर्माना या दोनों या सामुदायिक सेवा का प्रावधान है।

इस विधेयक में पहली बार मॉब लिंचिंग करने वालों के लिए मृत्युदंड की सज़ा का प्रावधान किया गया है। इसमें कम-से-कम सज़ा के रूप में 7 साल की क़ैद या आजीवन कारावास का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त शादी, नौकरी, प्रमोशन का लालच देकर या अपनी पहचान छिपाकर किसी महिलाओं का यौन शोषण भी इस विधेयक में अपराध माना गया है। इस विधेयक में व्यभिचार के अपराध का प्रावधान हटाया गया है। प्रस्तावित विधेयक में किसी मामले में 90 दिनों के भीतर आरोप-पत्र दाख़िल करना होगा। न्यायालय 90 दिनों के लिए अनुमति दे सकता है। 180 दिनों के भीतर जाँच पूरी कर ट्रायल के लिए भेजना आवश्यक होगा। न्यायाधीशों को सुनवाई प्रक्रिया शुरू होने के 30 दिन में फ़ैसला सुनाना होगा। गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से तीनों विधेयकों को पड़ताल के लिए गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति को भेजने का आग्रह किया है। प्रश्न उठते हैं कि क्या इन विधेयकों के क़ानून बनने पर देश में निष्पक्ष रूप से न्याय की आशा की जा सकेगी? क्या न्यायाधीश स्वतंत्र रूप से बिना किसी दबाव के न्याय कर सकेंगे? वर्तमान सरकार पर न्यायाधीशों पर दबाव बनाने के पहले ही आरोप हैं। ऐसे में क्या सरकार न्यायिक संस्थानों पर अपनी मर्ज़ी नहीं थोपेगी? जिस सरकार को अपनी निंदा बर्दाश्त नहीं होती हो, उसकी नीयत साफ़ कैसे हो सकती है? हाल ही में एक अध्यापक को केवल इसलिए नौकरी से हटा दिया गया कि उसने यह कहा कि अनपढ़ों को वोट न दें।

इन विधेयकों के क़ानून बनने पर क्या ऐसे लोगों को सज़ा नहीं होगी? इसके अतिरिक्त कई न्यायाधीशों को जेल की सज़ा होगी। इसके अतिरिक्त जिन नेताओं, मंत्रियों पर आपराधिक मुक़दमे चल रहे हैं; उन्हें सरकार चाहेगी, तो समाप्त करा देगी। वहीं विपक्षी नेताओं को आसानी से जेल भिजवा देगी। यह अभी भी हो रहा है, परन्तु उतनी आसानी से नहीं हो पा रहा है, जितनी आसानी से इन विधेयकों के क़ानून बनने से होगा। ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका की सभी कार्रवाइयाँ पूरी तरह निष्पक्ष हैं, परन्तु सरकार के दबाव से मुक्त अधिकतर फ़ैसले सही होते हैं। देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपने एक बयान में कहा था कि किसी मामले में ट्रायल में 15 से 20 साल लगते हैं। इस दौरान व्यक्ति न्यायिक हिरासत में रहता है। बाद में निर्दोष साबित हो जाता है। ऐसे में क्या उसके जीवन का कोई हर्ज़ाना तय हो सकता है? इसी 15 अगस्त को उन्होंने अपने एक भाषण में वर्तमान भारत में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका को लेकर कहा कि विध्वंस की धमकी के मामले में मनमानी गिरफ़्तारी के मामलों में न्यायपालिका पर भरोसा होना चाहिए।

न्यायपालिका के सामने न्याय तक पहुँच में आने वाली बाधाओं को दूर करने की चुनौती है तथा इसके लिए एक रोडमैप मौज़ूद है। किसी व्यक्ति में मनमाने ढंग से गिरफ़्तारी, विध्वंस की धमकी, अगर उनकी सम्पत्तियों को ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से कुर्क किया जाता है, तो इस विश्वास की भावना को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में सांत्वना और आवाज़ मिलनी चाहिए। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ का बयान ऐसे समय में आया है, जब भाजपा के शासन-काल में न्यायाधीशों पर दबाव तथा शत्रुओं या विरोधियों की सम्पत्तियों पर बुलडोजर चलाकर उन्हें ध्वस्त करने के आरोप हैं। विदित हो कि मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ को सही फ़ैसले करने वाला माना जाता है। क्या इन क़ानूनों के बनने से देश में चंद्रचूड़ जैसे न्यायाधीश पैदा हो सकेंगे?

मैं जजों से सतर्क रहने का अनुरोध करना चाहता हूँ। अगर ऐसे क़ानून पारित किये गये, तो देश का भविष्य ख़तरे में पड़ जाएगा। हम देश का दौरा करेंगे तथा लोगों को बताएँगे कि आप किस तरह का लोकतंत्र चाहते हैं, जो क़ानूनों के माध्यम से लोगों का गला घोंट दे तथा उनका मुँह बन्द कर दे। मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से पूछना चाहता हूँ कि किस इरादे से इन क़ानूनों को लोकसभा में विचार के लिए पेश किया गया है। क्या आप लोक-सेवकों को डराना चाहते हैं? मैं आपसे इन्हें वापस लेने का अनुरोध करता हूँ। मैं लोगों को बताना चाहता हूँ कि औपनिवेशिक युग के क़ानूनों को हटाया जा रहा है, परन्तु आप औपनिवेशिक-काल की तुलना में अधिक कठोर क़ानून ला रहे हैं।’’

कपिल सिब्बल

राज्यसभा सदस्य एवं पूर्व क़ानून मंत्री