नक्सल नहीं, मलेरिया पीड़ित

पापा निम्मा माकीन, बिड़सी दायमुंती

 ममो बालेआस मंतोम, निवा एरकते ममो…

गोंडी बोली का यह गीत हमें पहली बार समझ में नहीं आया. स्थानीय लोग बताते हैं कि यह एक शोकगीत है. इसका मोटा-मोटा भावार्थ है कि हे बच्चे तुम हमें छोड़कर तो जा रहे हो लेकिन कभी यह भी सोचा है कि हम लोग कैसे जिएंगे. जब हम तुम्हारी याद में बीमार पड़ जाएंगे तो तुम्हारे पीछे-पीछे हमको भी आना पड़ेगा… इस समय छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में आपको ये गीत अक्सर सुनने को मिल जाएगा. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 570 किलोमीटर दूर नक्सल प्रभावित इलाके चिंतागुफा  ( पहले दंतेवाड़ा अब सुकमा जिला)  में प्रवेश करते ही हमें दो ग्रामीण पुरानी-सी खाट में एक बच्चे के शव को चादरों से ढांककर जंगल के भीतर जाते हुए दिखते हैं.. ये यहां के आम दृश्य हैं. पूछताछ करने पर ग्रामीणों ने बताया कि पुसवाड़ा गांव के पांच वर्षीय देव को मलेरिया प्रेत अपने साथ लेकर चला गया है. आदिवासी इलाकों में किसी बीमारी के साथ प्रेत शब्द का जुड़ जाना भी हैरानी की बात नहीं है. दरअसल बस्तर क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं का पूरी तरह से अभाव है. जहां डॉक्टरों की तैनाती की जाती है वहां वे नक्सलियों की आड़ लेकर गायब रहते हैं, फलस्वरूप आदिवासी अपने इलाज के लिए झाड़-फूंक और टोना-टोटके के नाम पर दुकानदारी चलाने वाले बैगा-गुनियाओं के पास ही जाते हैं. प्रेत शब्द इन्हीं लोगों के दिमाग की उपज है.

बस्तर इलाके में मलेरिया के प्रकोप का यह पहला साल नहीं है लेकिन इस बार हालात इस हद तक खराब हो चुके हैं कि पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक चेतावनी जारी करके बाहरी लोगों को छत्तीसगढ़ जाने से मना किया है. हालांकि सरकारी दस्तावेजों में बीमारी का प्रकोप अभी तक नियंत्रित ही बताया जा रहा है. तहलका की टीम ने जब दंतेवाड़ा के सरकारी अस्पताल (जिला अस्पताल) में मलेरिया से होने वाली मौतों की जानकारी चाही तो वहां पदस्थ चिकित्सकों ने दावा किया कि पिछले कुछ सालों में किसी भी शख्स की मौत मलेरिया से नहीं हुई. चिकित्सकों के इस दावे की पोल दंतेवाड़ा से महज आठ किलोमीटर दूर एक गांव कारली में ही खुल जाती है. गांव में रहने वाले एक ग्रामीण रामनारायण यादव ने बताया कि उसकी नौ साल की बेटी गरिमा अच्छी-खासी थी लेकिन कुछ महीने पहले ही उसे अचानक तेज बुखार ने जकड़ लिया. वे अपनी बच्ची को बेहतर इलाज के लिए दंतेवाड़ा के सरकारी अस्पताल ले गए जहां डॉक्टरों ने परीक्षण के उपरांत मामले को गंभीर बताते हुए यह कह दिया कि अब बच्ची का बचना मुश्किल है. दो दिन बाद ही गरिमा की मौत हो गई. इसी गांव में रहने वाले जमीनाथ की पुत्री संगीता भी मलेरिया से पीड़ित थी. जमीनाथ ने अपनी बेटी का इलाज चिकित्सकों से तो कराया ही, गांव में रहने वाले बड्डे यानी बैगा-गुनियाओं की भी मदद ली, लेकिन किसी भी तरह की मदद कारगर साबित नहीं हुई और संगीता भी चल बसी. आलनार गांव में हमारी मुलाकात मेहनत मजदूरी के जरिए जीवन यापन करने वाले एक ऐसे दंपति से हुई जिसके दो बच्चे मलेरिया का शिकार हुए थे. सोमारू और उनकी पत्नी सन्नी बताती हैं कि पिछले साल गर्मी के दिनों में सबसे पहले बड़ी लड़की रीना की तबीयत बिगड़ी.

चिंतागुफा इलाके में सीआरपीएफ की 150वीं बटालियन में फिलहाल 97 जवान तैनात हैं जिसमें 30 जवान मलेरिया से ग्रसित हैं

 

बुखार में तपती हुई बेटी को लेकर अस्पताल की दौड़ लगाई तो वहां कोई डॉक्टर नहीं मिला. थोड़ी ही देर में गांव से यह सूचना मिली कि छोटे बेटे संजू को भी बुखार चढ़ गया है. वे बेटे को अस्पताल लाने के लिए गांव की ओर भागे तो बेटी ने दम तोड़ दिया और जब गांव पहुंचे तब बेटा भी चल बसा था. तहलका की टीम ने जब दंतेवाड़ा से 37 किलोमीटर दूर बिंजाम इलाके का जायजा लिया तो वहां मलेरिया से मौत की कई घटनाएं और पीड़ित परिवारों की व्यथाएं सुनने को मिलीं. बिंजाम इलाके की एक महिला जैबती के पुत्र भुवनेश्वर को भी कुछ समय पहले मलेरिया ने लील लिया था. जैबती का कहना था कि यदि गांव में कोई स्वास्थ्य केंद्र होता तो शायद उसके बच्चे को जीवन मिल सकता था. जबकि बारसूर के हितामेटा इलाके में रहने वाली शकुंतला मंडावी गांव में अस्पताल रहने के बावजूद अपनी छह वर्षीया पुत्री सानिया को बचाने में कामयाब नहीं हो पाई थी. शकुंतला कहती है, ‘गांववालों की मांग पर सरकार ने अस्पताल तो खोल दिया है लेकिन अस्पताल कब खुलता है और कब बंद होता है इसकी जानकारी किसी के पास नहीं होती.’

तहलका की टीम बारसूर इलाके की सातधारा नदी को पार करने के बाद नक्सलियों के एक प्रमुख आधार क्षेत्र के रूप में विख्यात अबूझमाड़ के पठार पर बसे दो गांव एरपुड़ और मालेवाही भी पहुंची. एरपुड़ गांव के दो युवकों ने बताया कि बारसूर में तैनात की गई सीआरपीएफ गांवोंवालों के बीच से मुखबिर पैदा करने के लिए सिविक एक्शन प्रोग्राम का संचालन कर रही है. इस प्रोग्राम के तहत न केवल दवा-दारू बल्कि  टेलीविजन, हारमोनियम, साड़ी, गमछा यहां तक लुंगी और रेडीमेड ब्लाउज का वितरण भी किया जा रहा है. युवकों ने सीआरपीएफ के बारसूर केंप से संचालित किए जा रहे सिविक एक्शन प्रोग्राम को लेकर सवाल खड़े किए. युवकों का आरोप था कि सीआरपीएफ के इस कथित कल्याणकारी कार्यक्रम की वजह से कभी-कभार दर्शन देने वाले डॉक्टरों ने भी इलाके में आना-जाना छोड़ दिया है. डॉक्टरों को शायद लगता है कि जब सीआरपीएफ दवा बांट ही रही है तो फिर वे क्यों मरने जाएं. इसी गांव में रहने वाले चैतराम बताते हैं कि इलाके में यदा-कदा डॉक्टर आते रहे हैं लेकिन जबसे पुलिस ने उन्हें भी मुखबिर बनाने की कोशिश की है तब से उनका आना-जाना बंद हो गया है. उनके मुताबिक इस इलाके में पदस्थ डॉक्टर दीपककुमार को उन्होंने पिछले कई महीनों से नहीं देखा. ऐसा भी नहीं है कि मलेरिया का कहर केवल बच्चों और ग्रामीणों पर ही देखने को मिल रहा है. इलाके में नक्सलियों से मोर्चा लेने के लिए डटे हुए जवानों और खुद नक्सलियों को भी मच्छरों के खतरनाक डंक से मुकाबला करना पड़ रहा है. लगभग एक साल पहले जब नक्सली नेता गणेश उइके की मौत की खबर उड़ी थी तब यह बात आम थी कि उइके को पुलिस की गोली ने नहीं बल्कि मलेरिया ने अपना निशाना बनाया है. नक्सल समर्थक नेता कोबाड गांधी की पत्नी अनुराधा की मौत की वजह को भी फेल्सीपेरम मलेरिया को ही माना गया था. नक्सलियों से लोहा लेने के लिए आई हुई नागा बटालियन भी लंबे समय तक मच्छरों का प्रकोप झेलती रही है. बस्तर के बारसूर में सीआरपीएफ की 195 बटालियन के जवान कभी नक्सलियों से मुकाबला करते हुए हताहत नहीं हुए लेकिन उन्हें भी मच्छरों से मात खानी पड़ी है. कमांडेंट सुनील कुमार तहलका से बातचीत में यह स्वीकारते हैं कि बटालियन के दो जवान बाबूलाल और बृजेश कुमार की मौत की वजह मलेरिया रही है. 

दंतेवाड़ा से लगभग 35 किलोमीटर दूर बड़ेगुडरा में सीआरपीएफ की अल्फा यूनिट में एक सहायक कमांडंेट रहे पवन कुमार भोजक को लगभग सात मर्तबा मलेरिया ने अपनी गिरफ्त में लिया था. मलेरिया से लगातार पीड़ित रहने की वजह से कुछ समय पहले ही उन्हें तबादले में अमेठी भेजा गया है. दोरनापाल सीआरपीएफ कैंप के एक चिकित्सक संतोष कुमार की मानें तो पिछले साल फरवरी, 2011 से दिसंबर, 2011 तक कांकेरलंका, पोलमपल्ली, और चिंतागुफा,  इलाकों में तैनात दो सौ से ज्यादा जवान मलेरिया से पीड़ित पाए गए थे. चिंतागुफा इलाके में सीआरपीएफ की 150 वीं बटालियन में फिलहाल 97 जवान तैनात हंै जिनमें 30 जवान मलेरिया से ग्रसित हंै. बटालियन के कमांडंेट वी तिनी बताते हैं कि जवान नक्सलियों से बचने के लिए तो हथियार उठाकर चौकसी कर लेते हैं लेकिन मच्छरों से बचने के लिए उन्हें हर रोज फॉगिंग, फेस मास्क, हरे पत्ते का धुंआ, मच्छरदानी सहित और भी बहुत सारे उपायों का सहारा लेना पड़ता है. लेकिन इन सब एहतियातों के बावजूद जवान मौत के मुंह में जाने से नहीं बच पाते. l

 

मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम फेल

छत्तीसगढ़ में मलेरिया प्रकरणों की संख्या के लिहाज से दंतेवाड़ा, कांकेर, बीजापुर और नारायणपुर जैसे नक्सल प्रभावित जिलों को सबसे ज्यादा खतरनाक माना गया है. छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य महकमे के दस्तावेजों में यह उल्लिखित है कि गत वर्ष 2011 में मलेरिया के एक लाख 52 हजार 106 प्रकरण दर्ज किए गए थे जिनमें से ज्यादातर में फेल्सीपेरम मलेरिया का प्रभाव देखा गया. राज्य में मलेरिया से मृत्यु के कुल 42 प्रकरण दर्ज किए गए थे जिनमें सर्वाधिक 28 मौतें बस्तर संभाग में ही हुई थीं (यह एक सरकारी आंकड़ा है). मौतों का यह आंकड़ा कई गुना ज्यादा इसलिए भी हो सकता है कि हाल ही में स्वास्थ्य महकमे की समीक्षा बैठक में बस्तर संभाग के स्वास्थ्य संचालक ने यह स्वीकारा है कि कई उप स्वास्थ्य केंद्र अत्यंत दुर्गम स्थानों पर मौजूद है जहां स्वास्थ्य सुविधाओं का पहुंच पाना बेहद कठिन है. इलाके  के सात जिलों के लिए 212 चिकित्सा विशेषज्ञों की जरूरत बताई जाती है लेकिन महज 24 विशेषज्ञ ही कार्यरत हंै, जबकि 34 चिकित्सा अधिकारियों की कमी भी सीधे तौर पर बनी हुई है. जहां तक राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग ( मलेरिया ) नियंत्रण कार्यक्रम का सवाल है तो यह कार्यक्रम छत्तीसगढ़ में इसलिए भी फेल नजर आता है क्योंकि राज्य का मलेरिया नियंत्रण करने वाला महकमा ही घोटालों के चलते सीबीआई जांच में उलझा हुआ है. यहां यह बताना लाजिमी होगा कि वर्ष 2004-05 में मलेरिया महकमे के अफसरों और कर्मचारियों ने मलेरिया उन्मूलन के लिए विश्वबैंक से मिली 25 करोड़ रुपये की बड़ी राशि से माइक्रोस्कोप, पंप, स्लाइड, मच्छरदानी खरीदने के नाम पर फर्जी बिलों और दस्तावेजों के जरिए जमकर बंदरबांट की थी. इस मामले की जांच सीबीआई कर तो रही है लेकिन गड़बड़ घोटाले का आलम यह है कि दस्तावेजों को एकत्रित करने के लिए सीबीआई को भी सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगनी पड़ी है. इधर मलेरिया नियंत्रण के लिए केंद्र के स्वास्थ्य महकमे की तरफ से नौ लाख से ज्यादा कीटनाशक सिंचित मच्छरदानियां छत्तीसगढ़ को हासिल हुई है लेकिन इन मच्छरदानियों का ठीक-ठाक वितरण अब तक सुनिश्चित नहीं हो पाया है. गत वर्ष राज्य ने मलेरिया नियंत्रण के लिए 21 करोड़ 38 लाख 20 हजार का बजट निर्धारित किया था. इस बजट में से मात्र 14 करोड़ 25 लाख 68 रुपए का ही खर्च हो पाया.