बहुत हद तक संभव है कि आप सबने यह कहानी सुनी हो. कहानी यह कि ताजमहल दरअसल भगवान शिव का मंदिर है और उसका नाम अतीत में तेजोमहालया था. अगर आप आगरा गए होंगे तो इस बात से इत्तफाक रखेंगे कि आगरे के रिक्शेवालों और तांगेवालों से बड़ा किस्सागो शायद ही कोई हो. आपके बैठने की देर है कि वे आपको मुगलिया हरम और शाही परिवार के किस्से ऐसे सुनाना शुरू करते हैं मानो उनकी पैदाइश उसी दौर की है और वे टाइम मशीन में बैठकर इधर टहलने आए हैं. अक्सर उनकी बातचीत का एक सिरा इस बात पर जाकर खुलता है कि ताजमहल दरअसल मुगल बादशाह शाहजहां और उनकी बेगम मुमताज महल का मकबरा नहीं बल्कि भगवान शिव का मंदिर है और उसका असली नाम तेजोमहालया था.
इस बात को आप कोरी गप्प मानकर खारिज कर सकते हैं लेकिन जिंदगी में हैरानियां इतनी जल्दी खत्म नहीं होती हैं. हिंदूवादी इतिहासकार पीएन ओक ने तो बकायदा इस पर एक किताब ही लिख मारी है. ओक साहब कहते हैं कि मुस्लिम शासक अपने समय में राजघराने के मृतकों को दफनाने के लिए हिंदुओं से हथियाए गए मंदिरों तथा अन्य भवनों का इस्तेमाल करते थे. ताजमहल के तेजोमहालया होने की दलील देते हुए वह कहते हैं कि दुनिया के किसी भी मुस्लिम देश में भवन के लिए महल शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाता. वह खारिज करते हैं कि यह नाम मुमताज महल के नाम से लिया गया है. क्योंकि अगर शाहजहां को अपनी पत्नी के नाम पर इमारत बनवानी होती तो वह उसके पूरे नाम यानी मुमताज महल का इस्तेमाल करते न कि आधा अधूरा. पीएन ओक का कहना है कि ताजमहल दरअसल तेजोमहालया का अपभ्रंश है. शिवमंदिर से एक और तुलना करते हुए वह कहते हैं कि ताजमहल में दोनों कब्रों के ऊपर निरंतर पानी की बूंदे टपकने की व्यवस्था की गई जो कि दुनिया के तमाम शिवालयों में देखी जा सकती है जहां शिवलिंग पर कलश से जल की बूंदें गिरती हैं.
गौर फरमाएं
इतिहास का ज्ञान रखनेवाला हर विद्यार्थी जानता है कि ताजमहल का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल के नाम पर करवाया था. सन् 1631 से 1653 के बीच 22 सालों की अवधि में बनी इस इमारत में शाहजहां और मुमताज की कब्रें दफन हैं. इस इमारत की प्रेरणा दिल्ली स्थित हुमायूं का मकबरा है. ताजमहल काफी हद तक उसकी अनुकृति लगता है. ताजमहल परिसर में मौजूद बागे बहिश्त शैली में बने चारबाग भी इसके मुगल वास्तु की गवाही देते हैं. इसका वास्तु उस्ताद अहमद लाहौरी ने तैयार किया था. करीब 20,000 मजदूर 22 सालों तक दिन रात इसे बनाने में लगे रहे. देश की सर्वोच्च अदालत सन् 2000 में ही पीएन ओक की स्थापना को खारिज कर चुकी है.