झारखण्ड के राजनीतिक संकेत

देश में नारी शक्ति वंदन अधिनियम यानी महिला आरक्षण लागू करने के लिए आने वाले वर्षों में देश की जनगणना और परिसीमन का काम होगा। ज़ाहिर है झारखण्ड में भी जनगणना के साथ परिसीमन होगा। लेकिन परिसीमन से झारखण्ड की राजनीतिक जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी) बदल जाएगी। झारखण्ड के तमाम दलों और नेताओं के राजनीतिक भविष्य की दिशा भी इन्हीं बदलावों से तय होगी।

झारखण्ड में विधानसभा की सीटों को बढ़ाने की माँग लम्बे समय से लंबित है। लेकिन झारखण्ड में परिसीमन और विधानसभा सीटों को बढ़ाना आसान नहीं है। परिसीमन आयोग को पहले राज्य से विरोध का सामना करना पड़ चुका है। उधर राज्य की तमाम कोशिशों के बावजूद 23 साल में झारखण्ड विधानसभा की सीटें नहीं बढ़ीं। राज्य से विधानसभा में सीटों को बढ़ाने और विधान परिषद् के गठन की पूर्व की माँग एक बार फिर उठेगी।

कबसे नहीं हुआ परिसीमन?

झारखण्ड देश में ऐसा अकेला राज्य है, जहाँ सन् 1972 के बाद लोकसभा और राज्य की विधानसभा के चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन नहीं हुआ है। 2002 में गठित परिसीमन आयोग के बाद 2007 में देश भर में झारखण्ड को छोडक़र शेष सभी राज्यों में लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन का काम पूरा हो चुका है। झारखण्ड में जब परिसीमन आयोग की टीम का दौरा हुआ, तो जनजातीय समुदाय के नेताओं ने इसका विरोध कर दिया। इस कारण बिरसा मुंडा हवाई अड्डे से ही आयोग की टीम लौट गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि केंद्र की तत्कालीन सरकार ने झारखण्ड में परिसीमन कार्य को रोक दिया। यह मामला झारखण्ड हाईकोर्ट में भी पहुँचा। हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से इसका कारण पूछा था। यह भी कहा कि विरोध के कारण क़ानून लागू कराने से नहीं रोका जा सकता है। इसके बावजूद फलाफल कुछ नहीं निकला।

वर्तमान में सीटों का गणित

15 नवंबर, 2000 में 81 विधानसभा और 14 लोकसभा की सीटों के साथ झारखण्ड का गठन हुआ। इनमें से अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए 28 सीटें आरक्षित हैं। जबकि अनुसूचित जाति (एससी) के लिए नौ सीटें आरक्षित हैं। इसी तरह लोकसभा की 14 सीटों में पाँच सीटें एसटी और एक सीट एससी के लिए आरक्षित है।

दरअसल परिसीमन के बाद राज्य में ब$गैर सीट बढ़े डेमोग्राफी बदल रही थी। झारखण्ड की तत्काल जिस समुदाय की जितनी आबादी थी, उसके अनुपात में एससी की सीटें बढ़ रही थीं, तो एसटी की कम हो रही थीं। परिसीमन आयोग के प्रस्ताव के अनुसार, एसटी के लिए आरिक्षत 28 सीटों में छ: सीटें घटकर 22 और एससी के लिए दो सीटें बढक़र नौ की जगह 11 हो जातीं। इसी तरह लोकसभा में भी एसटी के लिए आरक्षित पाँच में से एक सीट घट जाती और एससी के लिए एक आरक्षित सीट बढ़ रही थी। नतीजतन इसका विरोध हुआ और परिसीमन का काम झारखण्ड में नहीं हो सका।

परिसीमन से बढ़ेंगे क्षेत्र

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर परिसीमन होता है, तो झारखण्ड में परिसीमन के बाद कई लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों में कई बड़े बदलाव होंगे। कई नये क्षेत्र जुड़ेगे और कई पुराने क्षेत्र कट जाएँगे। जानकारों का कहना है कि 2024 के लोकसभा या विधानसभा चुनाव में भले ही इसका असर न हो; लेकिन इसके बाद ज़रू पड़ेगा। लिहाज़ा राजनीतिक दलों और राजनेताओं को अपने-अपने क्षेत्र के लिए इसी के मुताबिक सियासी गोटियाँ सेट करनी होंगी।

सीटें बढ़वाने का मौक़ा

झारखण्ड में सभी राजनीतिक दल विधानसभा की सीटों को बढ़ाने की लम्बे समय से माँग कर रहे हैं। विधानसभा की सीटें बढ़ाने के लिए वर्ष 2002, 2004, 2005, 2007 और वर्ष 2009 में प्रस्ताव सदन द्वारा केंद्र को भेजा गया। यहाँ तक कि 15 जून 2005 में इसके लिए विधानसभा की एक कमेटी बनायी गयी। तत्कालीन भाजपा विधायक कडिय़ा मुंडा इस कमेटी के संयोजक थे। 4 जुलाई 2005 को कमेटी ने रिपोर्ट सौंपी। इसमें विधानसभा की सीटें 81 से बढ़ाकर 150 करने का प्रस्ताव दिया गया।

झारखण्ड विधानसभा सदन से इस रिपोर्ट को पारित कर प्रस्ताव केंद्र को भेज दिया गया। केंद्र द्वारा इस पर कोई निर्णय नहीं लिया गया। झारखण्ड के सांसदों ने भी लोकसभा में इस मुद्दे को कई बार उठाया। कोडरमा के तत्कालीन सांसद रवींद्र कुमार राय ने 2018 में लोकसभा में झारखण्ड विधानसभा की सीटों की संख्या 81 से बढ़ाकर 150 करने की माँग की थी। जमशेदपुर के सांसद विद्युत वरण महतो, पलामू सांसद वीडी राम और तत्कालीन रांची सांसद रामटहल चौधरी ने भी इसका समर्थन किया था। इसके अलावा राज्य से विधान परिषद् के गठन की माँग भी होती रही है। जानकारों का कहना है कि इस बार राज्य के पास सीटों को बढ़ाने का अच्छा मौक़ा है।

विधि विशेषज्ञों और राजनीतिक जानकारों का कहना है कि परिसीमन और सीटों की बढ़ोतरी दोनों में रोक है। दरअसल वर्ष 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने संविधान में 84वाँ संशोधन करके साल 2026 से पहले तक सीटों की बढ़ोतरी पर रोक लगा दी थी। इसी तरह परिसीमन के लिए होने वाली जनगणना को मानने के लिए भी संविधान में संशोधन करना होगा। यानी पहले जनगणना होगी, फिर परिसीमन होगा। साथ ही लोकसभा या विधानसभा की सीटों को बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन लाना होगा। झारखण्ड या किसी अन्य राज्य के मामले में भी अगर केंद्र सरकार अलग से निर्णय लेने की सोचती है, तो भी संविधान में संशोधन कर संसद से पारित करना होगा।

आबादी बढ़ी, संशोधन ज़रूरी

बिहार से बँटवारे के समय झारखण्ड की आबादी 1.67 करोड़ थी। इसी के आधार पर विधानसभा की सीटों का भी बँटवारा हुआ था। बिहार विधानसभा की कुल सीटें 324 थीं और इसकी एक-तिहाई सीटें झारखण्ड के हिस्से आयीं। वर्ष 2000 से लेकर 2023 तक झारखण्ड की आबादी बढक़र 3.50 करोड़ से ज़्यादा हो चुकी है। उधर विभिन्न रिपोट्र्स में राज्य में एसटी की आबादी घटने और एससी की आबादी बढऩे की बात सामने आ रही है। यानी बीते 23 वर्ष में राज्य की मौज़ूदा जनसांख्यिकी पहले ही बदल चुकी है। लिहाज़ा राज्य में आबादी के अनुसार परिसीमन और आरक्षण में संशोधन ज़रूरी है।

एकमत होकर उठाना होगा क़दम

देश में सामान्य परिस्थिति में लोकसभा का चुनाव अगले वर्ष अप्रैल-मई में और झारखण्ड में विधानसभा का चुनाव नवंबर-दिसंबर में होना है। इससे पहले जनगणना और परिसीमन क़तई सम्भव नहीं है। लिहाज़ा ये दोनों चीज़ें चुनाव के बाद होंगी। इसलिए आगामी चुनाव में ख़ास अंतर नहीं पड़ेगा। इसके बावजूद राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को अभी से इस दिशा में क़दम उठाने की ज़रूरत है। केंद्र सरकार की जो मंशा दिख रही, उसमें चुनाव के तत्काल बाद जनगणना और परिसीमन पर काम शुरू होगा। विशेषज्ञों का कहना है कि झारखण्ड में परिसीमन से विधानसभा सीटों का भौगोलिक क्षेत्र बदलना तय है।

अगर विधानसभा की सीटें नहीं बढेंगी, तो भी कई नये क्षेत्र जुड़ेंगे और कटेंगे। साथ ही आरक्षित सीटें भी बदलेंगी। ऐसे में राजनीतिक दलों और राजनेताओं के सामने वही पुरानी स्थिति रहेगी। इसलिए परिसीमन के विरोध की जगह विधानसभा की सीटों को बढ़ाने के लिए अभी से सभी को मिलकर पूरा प्रयास करना होगा। सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को एकमत होकर एक मंच पर आना होगा। अगर सीटों के बढ़ोतरी का मामला इस बार अटक गया, तो फिर झारखण्ड के नेताओं के पास हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं बचेगा। नये विधानसभा में पहले से 160 सदस्यों के लिए बनायी गयी सीटें ऐसे ही ख़ाली पड़ी रह जाएँगी। विधान परिषद् के गठन का सपना तो अधूरा रह ही जाएगा।