जीत के बाद भी चुनौती

भाजपा के लिए पूर्वोत्तर से ज़्यादा चुनौतीपूर्ण होंगे अन्य राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव

क्या तीन पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन इतना जबरदस्त रहा है कि इसे इस साल होने वाले कर्नाटक और अन्य राज्यों में उसकी जीत की गारंटी मान लिया जाए? शायद नहीं। त्रिपुरा, जहाँ उसने अपने दम पर दोबारा सत्ता हासिल की है; वहाँ उसकी सीटें पिछले चुनावों के मुक़ाबले कम हुई हैं। जबकि मेघालय में उसने दो ही सीटें जीतीं और नागालैंड में 12 सीटें। तीनों राज्यों में 60-60 सीटें हैं। लिहाज़ा इसे भाजपा का बहुत प्रभावशाली प्रदर्शन नहीं कहा जा सकता। इन राज्यों के विपरीत राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, कर्नाटक जैसे राज्यों, जहाँ इस साल विधानसभा के चुनाव होने हैं; में भाजपा को मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस से कड़ा मुक़ाबला करना होगा। इन चुनावों के साथ हुए छ: उपचुनावों में कांग्रेस ने तीन, जबकि भाजपा ने दो सीटें जीती हैं।

तीन पूर्वोत्तर राज्यों में नतीजों से भले देश के दूसरे राज्यों की राजनीतिक स्थिति का संकेत न मिले; लेकिन भाजपा ने पूर्वोत्तर में अपनी जड़ें जमाने का जो अभियान चलाया है, उसमें वह कुछ हद तक सफल हुई है। भले अपने दम पर उसे सिर्फ़ त्रिपुरा में ही बहुमत मिला हो; लेकिन उसने तीनों सरकारों में अपने सहभागिता सुनुश्चित कर ली है। प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों राज्यों के शपथ ग्रहण में पहुँचकर वहाँ की जनता को यह सन्देश देने की कोशिश की कि केंद्र में उनकी सरकार आपके साथ खड़ी है। उनका मक़सद वहाँ जाकर अपनी पार्टी के प्रति जनता का समर्थन जुटाना भी हो सकता है।

कांग्रेस का पूर्वोत्तर के इन तीन राज्यों में जनाधार और सिकुड़ गया, भले उसकी उपस्थिति हर राज्य में रही। उसे त्रिपुरा में माकपा से गठबंधन करके भी सिर्फ़ तीन सीटें मिलीं और 8.56 वोट शेयर के साथ माकपा से काफ़ी पीछे रही, जिसे 11 सीटों के साथ 24.62 फ़ीसदी वोट मिले। वहाँ भाजपा को 32 सीटों के साथ 38.97 फ़ीसदी वोट मिले। भले यह पिछली बार से कम हैं। वहाँ टिपरा मोथा ने भी अपना दम दिखाया और 13 सीटें जीतने में सफल रही। हालाँकि उसकी उपस्थिति से भाजपा और कांग्रेस दोनों का नुक़सान हुआ।

कांग्रेस को नागालैंड में शर्मनाक स्थिति झेलनी पड़ी, जहाँ उसे कोई भी सीट नहीं मिली और वोट शेयर भी महज़ 3.50 फ़ीसदी के क़रीब रहा। वहाँ भाजपा 12 सीटें जीतने में सफल रही। उसे 18.21 फ़ीसदी वोट मिले। एनडीपीपी 25 सीटें जीतकर 32.22 फ़ीसदी वोट लेने में सफल रही। हालाँकि राज्य में जनता ने काफ़ी बिखरा हुआ जनादेश दिया। क्योंकि वहाँ शरद पवार की एनसीपी भी सात सीटें जीतने में सफल रही और उसे 9.56 फ़ीसदी वोट मिले। वहाँ जद(यू) और चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी तक ने सीटें जीत लीं।

बात करें मेघालय की, तो वहाँ कांग्रेस एनपीपी सबसे बड़ी पार्टी बनी और कांग्रेस सिर्फ़ पाँच सीटें ही जीत सकी, जबकि उसका वोट शेयर 13.14 फ़ीसदी रहा। भाजपा मेघालय में कमाल नहीं दिखा सकी। हालाँकि वह 9.33 फ़ीसदी वोट शेयर लेने में सफल रही और उसे दो ही सीटें मिलीं। मेघालय में ममता बनर्जी की टीएमसी ने ज़रूर कमाल दिखाया, जिसे वहाँ पहली बार पाँच सीटें मिलीं। भाजपा ने चतुराई दिखाते हुए नतीजों के तुरन्त बाद एनपीपी से बात कर ली और सरकार में शामिल हो गयी।

इस तरह देखें, तो तीन राज्यों में 180 में भाजपा को सिर्फ़ 46 सीटें ही मिलीं। वैसे इन 180 सीटों में से भाजपा 130 सीटों पर लड़ी थी। कांग्रेस 180 में से 96 सीटों पर लड़ी थी, जिसे महज़ आठ सीटें मिलीं। भले भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी ने नतीजों के बाद इसे भाजपा की बड़ी जीत बताया; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह नहीं है। हाँ, भाजपा पूर्वोत्तर में अपनी उपस्थिति ज़रूर दर्ज करवा रही है। इसका लाभ उसे लोकसभा चुनाव में मिल सकता है; भले ही पूर्वोत्तर में असम को छोड़ बहुत कम लोकसभा सीटें हों।

इस साल जम्मू-कश्मीर को मिलाकर आठ और राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा भले पूर्वोत्तर में कुछ हद तक सफल रही, उसे कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में सत्ता तश्तरी में रखी नहीं मिलेगी। दक्षिण में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद जतायी जा रही है, ख़ासकर कर्नाटक में; जबकि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकारों का काम बुरा नहीं रहा है और उनके ख़िलाफ़ एन्टी इन्कमवेंसी कम-से-कम अभी तो नहीं दिखती। कर्नाटक भाजपा के लिए कठिन बन सकता है, जबकि मध्य प्रदेश में भी उसे कांग्रेस से कड़ी टक्कर लेनी होगी।

कांग्रेस को कमज़ोर करने में भाजपा सफल

इन चुनाव नतीजों से भाजपा की पूर्वोत्तर में राजनीतिक रणनीति का पता चलता है। उसने बहुत सूझबूझ से अपने क्षेत्रीय सहयोगियों की मदद से अपनी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को राजनीतिक परिदृश्य में हाशिये पर ला खड़ा किया है। एक समय था, जब पूर्वोत्तर की राजनीति कांग्रेस के इर्द-गिर्द घूमती थी। उसकी तूती बोलती थी। अब उसकी जगह भाजपा ले रही है। कमोवेश सभी पूर्वोत्तर राज्यों में उसने कांग्रेस को कमज़ोर कर दिया है। अब हालत यह है कि जहाँ भाजपा की दो सीटें भी हैं, वहाँ भी सरकार बनाने या सरकार में उसकी भूमिका है।

हालाँकि जिस तरह त्रिपुरा में उसकी सीटें घटी हैं, इससे संकेत मिलता है कि पूर्वोत्तर के मैदान में भाजपा को स्थायी जगह बनने के लिए अभी काफ़ी मेहनत करनी पड़ेगी, जहाँ कांग्रेस के प्रति लोगों के दिल में ख़ास जगह रही है। भाजपा चूकी, तो कांग्रेस की वापसी सम्भव हो जाएगी। नागालैंड में भाजपा 12 सीटों पर पहुँच गयी है और उसने एनडीपीपी के साथ मिलकर फिर सत्ता हासिल कर ली है।

मेघालय में सिर्फ़ दो सीटें हाथ में होने के बावजूद उसने जिस तेज़ी से एनपीपी का समर्थन किया, उससे ज़ाहिर होता है कि वह सत्ता के साथ रहना चाहती है, ताकि लोगों में उसकी लगातार चर्चा रहे।

मेघालय में कांग्रेस को पार्टी टूटने का दंश झेलना पड़ा है। उसने पिछले चुनाव में 21 सीटें जीती थीं। लेकिन उसके नेता मुकुल संगमा सभी विधायकों के साथ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में चले गये। अब इस चुनाव में दोनों के वोटों का बँटवारा हो गया। कांग्रेस 5 सीटों पर सिमट गयी और टीएमसी को भी पाँच ही सीटें मिलीं। कांग्रेस तो पिछली बार 21 सीटें जीतकर भी सरकार नहीं बना पायी थी।

त्रिपुरा में कांग्रेस को अपने ही पुराने नेता प्रद्युत माणिक्य से झटका मिला। उन्होंने कांग्रेस से बाहर आकर टिपरा मोथा पार्टी का गठन कर लिया और 13 सीटें हासिल कर लीं। माकपा, जिससे कांग्रेस ने गठबंधन किया था; उसे 11 सीटें मिलीं और कांग्रेस को तीन। साल 2018 में कांग्रेस शून्य पर अटक गयी थी। इस लिहाज़ से तो उसे फ़ायदा ही हुआ है।

जहाँ तक नागालैंड की बात है, वहाँ नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) और उसकी सहयोगी भाजपा ने मिलकर 37 सीटें जीतीं। दूसरी बार नागालैंड में सत्ता बरक़रार रखी और कांग्रेस को डुबो दिया। उसे एक भी सीट नहीं मिली। एनडीपीपी ने 25 सीटों पर जीत हासिल की, जो 2018 की तुलना में आठ अधिक है, जबकि भाजपा ने 12 सीटें हासिल कीं। उसे पिछले चुनाव में भी इतनी ही सीटें मिली थीं। लिहाज़ा न नुक़सान हुआ, न फ़ायदा।

पूर्वोत्तर में भाजपा ने केंद्र की सत्ता का लाभ उठाते हुए विकास पर बहुत फोकस किया है। मोदी सरकार ने 15वें वित्त आयोग (2022-23 से 2025-26) की बाक़ी बची अवधि के लिए 12,882.2 करोड़ रुपये के परिव्यय के साथ पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय (एमडीओएनईआर) की योजनाओं को मंज़ूरी दी है। सरकार के मुताबिक, एमडीओएनईआर योजनाओं के तहत पिछले चार साल में वास्तविक व्यय 7,534.46 करोड़ रुपये था, जबकि 2025-26 तक अगले चार वर्षों के लिए उपलब्ध धनराशि 19,482.20 करोड़ रुपये (क़रीब 2.6 गुना) है।

ममता बनर्जी, मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल

मोदी सरकार का यह भी दावा है कि उसकी कोशिशों से पूर्वोत्तर में विद्रोह (उग्रवाद) की घटनाओं में 74 फ़ीसदी कमी आयी है। सुरक्षा बलों पर हमलों में 60 फ़ीसदी और नागरिक मौतों में 89 फ़ीसदी की कमी हुई है। क़रीब 8,000 युवा मुख्यधारा में लौट आये हैं, जिससे उनके और उनके परिवारों के लिए बेहतर जीवन की शुरुआत हुई है।

अब कांग्रेस की बात करें। राहुल गाँधी ने तीनों राज्यों में सिर्फ़ मेघालय में एक जनसभा की। पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े बहुत कम दिखे और दूसरे बड़े नेता भी नहीं आये। इसे अंदाज़ा लग जाता है कि कांग्रेस तीन राज्यों के इस चुनाव में कितनी सक्रिय थी।

इन चुनाव नतीजों से एक बात साफ़ हो गयी है कि भाजपा की पूर्वोत्तर की रणनीति में असम के मुख्यमंत्री हिमंत विसवा सरमा अब काफ़ी महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। एक समय किरण रिजुजू उसके मुख्य चेहरा थे; लेकिन सरमा ने उन्हें पीछे छोड़ दिया है। जिस तरह सरमा का कद भाजपा में बढ़ रहा है, उसे देखकर लगता है कि उन्हें भाजपा नेतृत्व हिन्दी भाषी राज्यों में भी चुनावों में इस्तेमाल करेगा। वह एक बेहतर रणनीतिकार तो हैं ही, कांग्रेस को हमेशा निशाने पर रखते हैं। राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा में बढ़ी दाढ़ी पर उन्हें सद्दाम हुसैन कहने वाले सरमा इसी कारण भाजपा नेतृत्व की नज़रों में चढ़ गये हैं, भले बहुत-से लोग यह भी मानते हैं कि इस तरह की भाषा ज़्यादा दिन नहीं चलती।

इस तरह देखें तो पूर्वोत्तर में भाजपा का लगभग पूरा क़ब्ज़ा हो गया है। मणिपुर में मार्च, 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में 60 में से कांग्रेस ने 28 सीटें जीती थीं; लेकिन 2022 में वह पाँच सीटों पर सिमट गयी। जिस भाजपा को तब 21 सीटें मिली थीं, उसने 2022 में 32 सीटें जीतकर पूरा बहुमत हासिल कर लिया था। अरुणाचल प्रदेश में भाजपा की सरकार है ही। सियासी उठापटक के बीच 2016 में पेमा खांडू कांग्रेस छोड़ पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल प्रदेश में शामिल हुए और फिर भाजपा में चले गये। अब वहाँ भाजपा की ही सरकार है।

मिजोरम में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं और भाजपा वहाँ अपनी कोशिशों में जुटी है। पिछले चुनाव 2018 में हुए थे, जिसमें मिजो नेशनल फ्रंट को 40 में से 26 सीटें मिली थीं। राज्य में मिजो नेशनल फ्रंट या कांग्रेस का ही अब तक प्रभुत्व रहा है। कांग्रेस को पिछले चुनाव में 5 सीटें मिली थीं, जबकि वहाँ वह कई बार सत्ता में रही है। अब भाजपा वहाँ कांग्रेस के वोटों में सेंध लगाने की तैयारी में हैं।

दीदी की ताक़

बहुत कम लोगों को पता है कि भाजपा के साथ काफ़ी कड़वे शब्दों का इस्तेमाल करने वाली बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के आरएसएस से काफ़ी अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। एक वह भी समय था, जब आरएसएस नेता तरुण विजय ने ममता बनर्जी को ‘बंगाल की दुर्गा’ कहकर पुकारा था और ममता ने 2003 में आरएसएस से अपील की थी कि वह यदि साथ दे, तो बंगाल में वह लाल आतंक (वामपंथ) का सफ़ाया कर सकती हैं।

उस समय दीदी एनडीए के साथ थीं और वामपंथियों से जमकर लोहा ले रही थीं। और आख़िर वे बंगाल में अपनी पार्टी टीएमसी को सत्ता में लाने में सफल रही थी। उसके बाद वामपंथी बंगाल में कभी सत्ता में नहीं लौट सके हैं। हालाँकि अब स्थितियाँ कुछ अलग दिखती हैं। टीएमसी और ममता बनर्जी काफ़ी मज़बूत हो चुके हैं। कोर्ट से कोई $फैसला आ गया, तो तीन महीने में बंगाल में पंचायत चुनाव हो सकते हैं।

कहा जा रहा है कि वहाँ सीपीएम टीएमसी को कमज़ोर करने के लिए आरएसएस-भाजपा की मदद करने को भी तैयार है। हालाँकि ममता बनर्जी हिन्दू वोट बैंक को यूँ ही थोड़े जाने देंगी। मार्च के पहले पखवाड़े ममता बनर्जी वरिष्ठ सहयोगियों के साथ कोलकाता में बाबूघाट पर गंगा आरती में शामिल हुईं। ममता को चतुर रणनीतिकार माना जाता है, जिन्होंने बिना हार माने अपने बूते पर पार्टी को ज़मीन पर मज़बूत किया है। इसकी सम्भावना कम ही लगती है कि आरएसएस और वामपंथी एक मंच पर आएँगे। इसका कारण यह भी माना जाता है कि तमाम बातों के बावजूद एक सच यह भी है कि केंद्र सरकार ने जहाँ एजेंसियों के ज़रिये तमाम राज्यों में ग़ैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों या उनकी सरकारों को परेशान किया है, ममता बनर्जी इस मामले में एक अपवाद रही हैं।

उपचुनावों में कांग्रेस को तीन सीटें

तीन पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव के साथ चुनाव आयोग ने पाँच राज्यों की छ: ख़ाली विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव कराया था। इनमें कांग्रेस को सबसे ज़्यादा तीन, जबकि भाजपा को दो सीटें मिलीं। कांग्रेस ने चौंकाने वाला नतीजा पश्चिम बंगाल में हासिल किया, जहाँ उसने टीएमसी और भाजपा को झटका देते हुए सागरदिघी सीट जीत ली। पार्टी के बेरॉन बिस्वास 22986 वोटों से जीते। इस तरह बंगाल विधानसभा में कांग्रेस का खाता खुल गया। वहाँ टीएमसी के देबाशीष बनर्जी और भाजपा के दिलीप साहा को हार मिली। यह सीट टीएमसी विधायक सुब्रत साहा की मौत से ख़ाली हुई थी। इस जीत को पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की वापसी कहना जल्दबाज़ी होगा; लेकिन उसने जीत हासिल कर यह तो बता दिया है कि वह ख़त्म नहीं है। हालाँकि ममता बनर्जी का आरोप है कि भाजपा ने वहाँ कांग्रेस की मदद की।

यह जीत इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली थी। राज्य में टीएमसी अभी भी जड़ें जमाये हुए है। महाराष्ट्र में दो सीटों पर उपचुनाव हुए। क़स्बापेठ सीट कांग्रेस के रवींद्र धंगेकर ने जीत ली, जहाँ 1995 से लगातार भाजपा जीत रही थी। ज़ाहिर है भाजपा के लिए यह बड़ा झटका है। हालाँकि भाजपा महाराष्ट्र की चिंचवाड़ सीट जीतने में सफल रही। तमिलनाडु की ईरोड सीट कांग्रेस के एलंगोवन ने 66,397 वोटों के बड़े अंतर से जीती।  ज़ाहिर होता है कि राज्य में कांग्रेस-डीएमके गठबंधन मज़बूत बना हुआ है और एआईडीएमके अभी वापसी करने की स्थिति में नहीं। इस का लाभ गठबंधन को अगले साल के लोकसभा चुनाव में मिल सकता है। झारखण्ड की रामगढ़ सीट पर भाजपा- एजेएसयू गठबंधन जीता जबकि अरुणाचल प्रदेश में भाजपा जी त्सेरिंग ल्हामू निर्विरोध चुनी गयीं, क्योंकि और कोई उम्मीदवार वहाँ नहीं था।