न्यायपालिका को बख़्श दीजिए हुजूर!

शिवेंद्र राणा

राजनीतिक चिंतक लास्की के अनुसार, ‘एक राज्य की न्यायपालिका, अधिकारियों के ऐसे समूह के रूप में परिभाषित की जा सकती है, जिनका कार्य राज्य के किसी क़ानून विशेष के उल्लंघन या तोडऩे सम्बन्धी शिकायत, जो विभिन्न लोगों के बीच या नागरिकों व राज्य के बीच एक दूसरे के विरुद्ध होती है; का समाधान वह फ़ैसला करना है।’

संवैधानिक नियमों के व्याख्याकार एवं न्याय के अधिष्ठाता होने के कारण न्यायपालिका का देश में न्यायपालिका और सेना दो ऐसी संस्थाएँ है; जिनके प्रति आम भारतीयों के मन में अगाध श्रद्धा है। आज भी देश का आम नागरिक किसी सरकार के बजाय भारतीय सेना के भरोसे ही राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होता है। उसी प्रकार जब दमन-शोषण से पीडि़त आम आदमी का यह विश्वास होता है कि न्यायपालिका उसे न्याय देगी और उसके अधिकारों की रक्षा करेगी।

उच्चतम न्यायालय का ध्येय वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ है। न्याय-धर्म का यह मंदिर पिछले कुछ समय से नकारात्मक कारणों से चर्चा में है। कारण है- न्यायपालिका का राजनीतिकरण। वर्तमान सत्तारूढ़ दल का नौकरशाही प्रेम बढ़ते हुए अब न्यायपालिका तक प्रसारित होने लगा है। न्यायाधीश ए.के. गोयल, न्यायाधीश आर.के. अग्रवाल, न्यायाधीश पी. सदाशिवम, न्‍यायाधीश रंजन गोगोई जैसे इसके कई उदाहरण हैं। सरकार यह समझने के लिए तैयार नहीं है कि उसकी कृपादृष्टि नौकरशाही की भाँति न्यायपालिका को भी दूषित और पथभ्रष्ट करेगी। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायधीश दीपक गुप्ता ने पिछले दिनों ठीक ही कहा था कि न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद कोई लाभ नहीं दिया जाना चाहिए; क्योंकि यह जारी रहा, तो न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं होगी। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर लिखते हैं- ‘जो आदमी राजनीति में सही ढंग से सोचता है, उसकी प्राथमिकताएँ नहीं बदलतीं।’

सन् 2014 में देश के बदलाव के नाम पर आयी हुई सरकार की प्राथमिकताएँ देश का बदलाव था, न कि न्यायपालिका में अनाधिकृत हस्तक्षेप की ग़लत परम्परा का निर्वहन। लेकिन ऐसा हुआ है। न्यायपालिका के राजनीतिकरण का विशेष मामला लक्ष्मणा चंद्रा विक्टोरिया ग़ौरी का है, जिनकी नियुक्ति फरवरी, 2023 में मद्रास उच्च न्यायालय में बतौर न्यायमूर्ति हुई। मद्रास उच्च न्यायालय में वकील रहीं विक्टोरिया ग़ौरी का नाम कॉलेजियम द्वारा प्रस्तावित करने के बाद से ही ख़ासा विवाद हुआ। इस विवाद से जुड़ी दो कारण थे; पहला- ग़ौरी का सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़ाव, और दूसरा- घृणापूर्ण भाषण (हेट स्पीच) का मामला। हालाँकि एल. ग़ौरी को अतिरिक्त न्यायाधीश बनाये जाने के ख़िलाफ़ उच्चतम न्यायालय में दायर याचिका पीठ ने ख़ारिज़ कर दी। वैसे भी किसी राजनीतिक दल से सम्बन्ध न्यायधीश के रूप में नियुक्ति हेतु अयोग्यता नहीं माना जाता, परन्तु तब भी ग़ौरी के सार्वजनिक द्वेषपूर्ण वक्तव्य की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए थी। मूल प्रश्न है कि ऐसे विवादों को समझने में सरकार और कॉलेजियम से भूल हुई या यह प्रायोजित नियुक्ति थी? दोनों ही मामलों में न्यायपालिका के सम्मान पर प्रश्नचिह्न लगा।

इसी प्रकार 2014 में उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम सेवानिवृत्ति के तुरन्त बाद केरल के राज्यपाल बनाये गये थे। पुन: मुख्य न्यायाधीश तरुण गोगोई सेवानिवृत्ति के तुरन्त बाद 2020 में राज्यसभा के लिए नामित किये गये, जिसके बाद विवाद प्रारम्भ हो गया। वैसे क़ानूनन उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को राज्यसभा भेजने में कोई भी संवैधानिक दिक़्क़त नहीं है। अनुच्छेद-80 के तहत राज्यसभा की सदस्यता के लिए नामित किये जाने वालों में कला, साहित्य, विज्ञान आदि के साथ विधि विशेषज्ञ भी शामिल हैं। हालाँकि सामान्य तौर पर महत्त्वपूर्ण पदों से सेवानिवृत्त हुए लोगों की अन्य नियुक्तियों के लिए दो साल तक प्रतिबंध रहता है। इस लिहाज़ से देखें, तो गोगोई को नामित करने में नि:संदेह जल्‍दबाज़ी की गयी है।

वैसे भी नौकरशाही की तरह ही भ्रष्टाचार का रोग न्यायपालिका को भी अपनी गिरफ़्त में ले चुका है। अभी सीबीआई ने जुलाई, 2020 में सेवानिवृत्त हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एस.एन. शुक्ला के विरुद्ध आय से अधिक सम्पत्ति का केस दर्ज किया है। किसी पूर्व न्यायाधीश के ख़िलाफ़ दर्ज भ्रष्टाचार का यह दूसरा मामला है। इससे पहले जाँच एजेंसी द्वारा दिसंबर, 2019 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश एस.एन. शुक्ला के साथ आई.एम. कुद्दुसी, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश और चार अन्य के ख़िलाफ़ लखनऊ स्थित मेडिकल कॉलेज के पक्ष में पैसे लेकर आदेश प्राप्त करने के आरोप में मुक़दमा दर्ज किया गया।

न्यायपालिका की अधोगति के पाश्र्व में दूसरा गम्भीर मुद्दा कॉलेजियम सिस्टम है। बाक़ी तकनीकी विषय को छोड़ भी दें, तो न्यायधीशों का स्वयं अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के परिपेक्ष्य में परिवारवाद-वंशवाद को प्रश्रय देने का मोह विशुद्ध अनैतिकता है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के प्रति उच्चतम न्यायालय का रवैया उसका संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का दुरुपयोग ही कहा जाएगा। यह दुनिया का एकमात्र लोकतंत्र है, जहाँ न्यायाधीश संसद यानी जनप्रतिनिधि शासन के नियमों को अस्वीकृत करने को तत्पर है। इसी कारण उच्चतम न्यायालय पर हाल के कुछ वर्षों में न्यायिक निरंकुशता का आरोप निरंतर लगता रहा है। ऐसे में क्या परिवारवाद के समर्थक न्यायधीशों को सामाजिक-राजनीतिक शुचिता पर बोलने का नैतिक अधिकार है?

न्यायपालिका के राजनीतिकरण के अतीत पर दृष्टिपात करें, तो देखेंगे कि स्वतंत्र भारत में आज़ादी के बाद मात्र अगले दो दशकों में ही न्यायपालिका में दूषित राजनीतिक स्वार्थ का आरोपण शुरू हो गया था। मार्च, 1973 में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल में न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप हुआ। वरिष्ठता क्रम की अनदेखी करते हुए ए.एन. रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। यह शासन सत्ता द्वारा न्यायपालिका को नियंत्रित करने का पहला प्रत्यक्ष प्रयास था। इससे पूर्व कांग्रेस सरकार के तत्कालीन क़ानून मंत्री एच.आर. गोखले ने सम्पत्ति के अधिकार के मसले पर कहा था कि न्यायालय का रवैया सरकार की प्रतिबद्धता की राह में एक बड़ी बात है। ऐसा ही एक बयान इंदिरा गाँधी के क़रीबी पी.एन. हक्सर ने देते हुए न्यायाधीशों को सरकार की नीतियों और दर्शन के प्रति प्रतिबद्ध होने को कहा था। उसी समय मुंबई में एक जन समारोह में न्यायमूर्ति के.एस. हेगडे ने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि राजनीतिक व्यवस्था और नेताओं के निजी स्वार्थ ने प्रशासनिक मशीनरी के कार्यों को विकृत कर दिया है।

उस दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ए.एन. रे की नियुक्ति का विरोध करते हुए प्रधानमंत्री को लिखे अपने पत्र में ‘नियमों से बाहर जाकर की जा रही पदोन्नतियों के द्वारा उच्चतम न्यायालय को सरकार के अधीन किये जाना’ कहा था। जिस पर इंदिरा गाँधी ने इसे हल्का निष्कर्ष निकाला जाना कहकर इस आलोचना को ख़ारिज कर दिया था। संविधान विशेषज्ञ ए.जी. नूरानी ने भी इसे न्यायपालिका के राजनीतिकरण का प्रयास कहते हुए चेतावनी दी थी कि अगर इन चुनौतियों से नहीं निपटा गया, तो लोगों की व्यक्तिगत आज़ादी ख़तरे में पड़ सकती है। वहीं 15 मार्च, 1975 को नई दिल्ली में एक सेमिनार में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के. सुब्बाराव ने कहा था- ‘निरंकुश सत्ता हर जगह स्वयं को स्थापित कर लेती है और सार्वजनिक हित के नाम पर स्वयं को सत्ता में बनाये रखती है।’

नूरानी एवं सुब्बाराव सही साबित हुए और देश को इंदिरा गाँधी के आपातकालीन तानाशाही का सामना करना पड़ा। आपातकाल के दौरान भी न्यायपालिका राजनीतिक गतिविधियों से दूषित होती रही। इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने एक बार फिर न्यायालयी नियुक्ति में अनाधिकृत हस्तक्षेप किया था। न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना ने तब भारत के न्यायिक इतिहास के विख्यात और प्रेरणादायी एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) मामले में तानाशाह सरकार के विरुद्ध जाकर नागरिक स्वतंत्रता को सुरक्षित करने वाला फ़ैसला दिया था। इससे क्रुद्ध इंदिरा गाँधी ने पुन: नियमों का अतिक्रमण किया तथा न्यायमूर्ति खन्ना पर अधिक्रमण (सुपरसीड) करते हुए कर न्यायमूर्ति एच.एम. बेग को प्रधान न्यायधीश नियुक्त करवाया, जो सरकार समर्थक थे।

ध्यातव्य है कि 1957 में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य के.एस. हेगड़े भी इस्तीफ़ा देकर मैसूर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बने थे। इसके अतिरिक्त कांग्रेस शासन-काल में ही सन् 1970 में भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे मोहम्मद हिदायतुल्ला को सन् 1979 में उपराष्ट्रपति बनाया गया। वहीं उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा कांग्रेस के ही टिकट पर सन् 1998 में राज्यसभा सदस्य बने। लेकिन न्यायपालिका में न्यायमूर्ति इस्लाम की सार्वजनिक जीवन यात्रा भारतीय राजनीति और न्यायपालिका के घालमेल का सबसे भद्दा उदाहरण है।

उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता बहरुल इस्लाम को कांग्रेस ने सन् 1962 तथा सन् 1968 में राज्यसभा भेजा। लेकिन दूसरा कार्यकाल पूरा करने के पूर्व ही उन्हें असम और नगालैंड (अब गुवाहाटी) उच्च न्यायालय का न्यायधीश नियुक्त किया गया। बाद में वह उच्चतम न्यायालय पहुँचे। सन् 1983 में न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्ति के तुरन्त बाद कांग्रेस ने पुन: उन्हें तीसरी बार राज्यसभा भेजा। कहा जाता है कि इस कृपा की मुख्य वजह न्यायमूर्ति इस्लाम का बिहार के कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को विवादस्पद अर्बन को-आपरेटिव बैंक घोटाले में क्लीन चिट देना था। इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी पर भ्रष्टाचार के पर्याप्त प्रमाणों के पश्चात् मई, 1993 में लाया गया महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा में गिर गया, क्योंकि सत्तारूढ़ कांग्रेस ने इसमें हिस्सा नहीं लिया।

कांग्रेस द्वारा प्रारम्भ की गयी न्यायपालिका में राजनीति के दूषित आरोपण की अशोभनीय परम्परा को अब भाजपा निभा रही है और कुतर्कों से इसका औचित्य साबित करने पर लगी है। इस देश की राजनीति में एक कुत्सित परम्परा स्थायी हो चुकी है। हर अनैतिक कार्य के समर्थन में पिछली सरकारें भी तो ये कर चुकी हैं; का कुतर्क स्थायी हो चुका है। अगर पिछली सरकारों की गलतियाँ ही जारी रखनी थीं, तो आपकी क्या आवश्यकता थी? पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा ‘जीवन जैसा जिया’ में लिखते हैं- ‘जनमत लहर की तरह चलता है। एक बार जो राय बन जाती है, वह मज़बूत होती जाती है।’ फ़िलहाल जनमत की राय इस दिशा में बन रही है कि सरकार लोकतांत्रिक संस्थाओं राजनीतिकरण कर रही है। हो सकता है कि अभी सत्ता को बहुमत की लहर और जन-समर्थन के चलते ऐसे विरोधी तर्क समझ न आते हों; लेकिन देर-सबेर इनका दुष्परिणाम आना तय है। रही बात जनमत के लहर की, तो ऐसी लहर के सामने जब जन-विरोध का कहर टूटता है, तो अर्श और फ़र्श के बीच का अन्तर बिलकुल स्पष्ट समझ आने लगता है।

ऐसे जन-कोप ने इंदिरा गाँधी के अहंकार को ज़मीन दिखायी थी। राजीव गाँधी भी अपनी कुर्सी गँवा बैठे। ऐसे ही फीलगुड शाइनिंग इंडिया के नारों के विरुद्ध जनमत लहर ने अटल सरकार की सत्ता में वापसी की सारी संभावनाएँ ध्वस्त कर दी थीं। इसलिए ऐसे जनमत क्रोध को नज़रअंदाज़ करना कम-से-कम राजनीतिक जीवन के लिए तो ख़तरनाक साबित हो सकता है। सरकार को समझना होगा कि न्यायपालिका में व्याप्त संदूषण न्याय और न्यायिक प्रक्रिया दोनों को दूषित करेगा। लेकिन जिस राष्ट्र में न्याय प्रक्रिया दूषित होती है, वहाँ शनै:-शनै: अराजकता व्याप्त हो जाती है। इस अप्रिय स्थिति से बचना ही सरकार का ध्येय होना चाहिए।

(लेखक पत्रकार हैं और ये उनके अपने विचार हैं।)