जिस ज्वैलरी की कीमत आंकने में जवाहरात के व्यापारी चक्कर खा जाएं, जिस रकम को गिनने में इनकम टैक्स वालों को भी पसीने छूट जाएं, उसी रकम को कमाना उत्तर प्रदेश के एक अदना से अधिकारी के लिए बाएं हाथ का खेल था. यादव सिंह की काली कमाई को लेकर जिस तरह के नए-नए खुलासे हुए हैं वह सचमुच मिट्टी से सोना बनाने की कला का एक नमूना है, मगर यादव सिंह तो शायद काली कमाई के खेल की एक कमजोर कड़ी था जो अब आसानी से फंसता दिख रहा है. उत्तर प्रदेश की शस्य श्यामला धरती की उर्वरता वाकई सोना उगलती है, हीरे-जवाहरात पैदा करती है. ऐसी फसल काटनेवाले मजे से सिरउठा कर जीते रहे हैं, उनका कुछ भी नहीं बिगड़ पाता है. यहां के किसान भले ही भुखमरे हों, गन्ना उगाकर रुपये गिनने के लिए दर-दर ठोकरें खाने पर मजबूर होते रहें, मगर जिस पल उनकी जमीनों पर विकास की दृष्टि पड़ जाती है उसी क्षण से ‘यादव सिंहों’ के लिए काली कमाई की फसल के अंकुर फूटने लगते हैं. नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेस वे प्राधिकरण इस मामले में पूरे सूबे में सिरमौर हैं और इसलिए यहां ‘यादव सिंहों’ की फसल भी खूब लहलहाती है. लेकिन सोना पैदा करने की ये कीमियागिरी सिर्फ यादव सिंह जैसों के दम पर चल रही है यह सोचना भी अपने आप में धोखा है. दरअसल यादव सिंहों को पैदा करने में उत्तर प्रदेश की राजनीति का भरपूर सहयोग, प्रेरणा और संरक्षण मिलता रहा है. और अनेक बार तो यह राजनीति सीधे-सीधे नए-नए यादव सिंहों को अवतरित भी करती रही है.
उत्तर प्रदेश में हाल के वर्षों में जनता के हिस्से के बजट, जनता के हित की योजनाओं और जनता की गाढ़ी कमाई के पैसों की लूट-खसोट के एक के बाद एक अनगिनत मामले सामने आए हैं. पिछले कुछ वर्षों में सबसे पहला ऐसा मामला मुलायम सिंह यादव की सरकार के दौरान सामने आया था. आयुर्वेद घोटाले के रूप में चर्चित इस मामले में दवाओं की फर्जी खरीद, 100 गुना तक बढ़े दामों में खरीद और फर्जी कम्पनियों के जरिए आयुर्वेद विभाग का सारा बजट साफ किया जाता रहा . पोल खुलने के बाद राज्य के आयुर्वेद निदेशक सहित कई डॉक्टर गिरफ्तार हुए और समाजवादी पार्टी से जुडे़ व्यवसायी की भी गिरफ्तारी हुई. तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री बलराम यादव से भी इस मामले में पूछताछ हुई. करोड़ों रुपये के इस पहले चर्चित घोटाले की महापरिणति माया सरकार में हुए एनआरएचएम घोटाले के रूप में हुई. तीन हत्याओं सहित 6 लोगों की संदिग्ध मौत के कारण यह मामला सीबीआई तक पहुंचा और मायावती की सरकार के अंतिम दिनों में मायावती को अपने सबसे खास मंत्री और सहयोगी बाबू सिंह कुशवाहा को बर्खास्त करना पड़ा. एक अन्य मंत्री अनंत मिश्र भी हटाए गए. मामला अब अदालत में है और कई सीएमओ, कुछ व्यवसायी, बाबू सिंह कुशवाहा और अपने बैच के आईएएस टॉपर प्रदीप शुक्ल इस मामले में जेल भी गए. प्रदीप शुक्ल (फिलहाल जमानत पर) का इस मामले में जेल जाना बहुत लोगों को चौंका गया था लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में नाम कमानेवाले वे पहले आईएएस नहीं थे. 1997 में उत्तर प्रदेश में आईएएस अधिकारियों ने खुद ही वोट के जरिए अपने बीच तीन महाभ्रष्टों को चुना था. इन तीन में से दो को मुलायम सिंह सरकार में मुख्य सचिव पद से सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के कारण पद छोड़ना पड़ा था. इनमें से एक अखंड प्रताप सिंह की काली कमाई का खुलासा आयकर छापे में हुआ था और दूसरी नीरा यादव को नोएडा के प्लॉट आवंटन घोटाले में 2010 में चार वर्ष की सजा भी सुनाई गई.
उत्तर प्रदेश में एक और बड़ा घोटाला मुलायम सरकार के दौरान हुआ खाद्यान्न घोटाला है, जो 2001 से 2011 तक लगातार चलता रहा. लखीमपुर खीरी में पहली बार इसका खुलासा हुआ, जहां गरीबों के हिस्से का राशन उनके पास पहुंचने के बजाय ऊंची दरों पर बाजार में बेच दिया गया. इसमें राजनीतिक दलों के नुमाइंदे, व्यापारी, खाद्यान्न विभाग और एफसीआई के अधिकारी, कर्मचारियों सहित कई प्रशासनिक अधिकारी शामिल थे. इसकी जांच राज्य की एजेंसियों से लेकर सीबीआई तक पहुंची. जांच में पता चला कि गरीबों का अनाज नेपाल और बांग्लादेश तक बेचा गया था. राज्य के 54 जिलों में फैले इस घोटाले में अनेक पीसीएस और प्रोन्नत आईएएस जेल में हैं. कई व्यापारी और कर्मचारी भी जेल में बंद हैं. अभी यह मामला अदालत में चल रहा है और इस घोटाले की रकम 3000 से 8500 करोड़ के बीच आंकी गई है.
ऐसा ही एक घोटाला ‘मिड डे मील’ घोटाला था, जो चर्चा में आने के तुरंत बाद ही राजनीतिक प्रभाव से दबा दिया गया. इस घोटाले में शामिल लोग माया सरकार में भी मलाई खा रहे थे और चुनाव के दिनों में इस घोटाले पर गुर्राती रही समाजवादी पार्टी के राज में भी खा रहे हैं.
खाद्यान्न घोटाले की तर्ज पर ही लगभग 5000 करोड़ के मनरेगा घोटाले में भी प्रशासनिक अधिकारियों, राजनेताओं और व्यवसाइयों की जुगलबन्दी सामने आई थी. 2007 से 2010 के बीच हुए इस घोटाले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर सभी जिलों में सीबीआई जांच चल रही है. शुरुआती जांच में महोबा, गोण्डा बलरामपुर, कुशीनगर, सोनभद्र, संतकबीरनगर और मिर्जापुर जिलों में मनरेगा की रकम की बड़े पैमाने पर बंदरबांट होने के प्रमाण मिले हैं. इस धांधली में भी 24 आईएएस तथा पीसीएस अधिकारियों के शामिल होने के सबूत हैं. सोनभद्र जिले में एक तालाब पर तीन-तीन बार खुदाई, गैर जरूरी सामान की खरीद और फर्जी दस्तखतों से 250 करोड़ रुपये की रकम हड़पने के प्रमाण मिले. लेकिन जब वहां जांच चल रही थी उसी दौरान वहां के तत्कालीन जिलाधिकारी पंधारी यादव मुख्यमंत्री सचिवालय में ओएसडी बन चुके थे और पूर्व केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश को कहना पड़ा, ‘पंचम तल पर तैनात एक अफसर सीबीआई जांच की राह में रोड़ा बना हुआ है’.
मायावती सरकार में हुए 1400 करोड़ के प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना घोटाले का खुलासा होना नई सरकार के मंत्री को भी रास नहीं आ रहा था. इसलिए घोटाले का खुलासा करनेवाले अधिकारी हरिशंकर पाण्डे को निलंबित कर दिया गया. बाद में हाईकोर्ट से पाण्डे को तो राहत मिल गई लेकिन घोटाला हमेशा के लिए दब गया. मायावती राज का स्मारक घोटाला तो अब सुनाई भी नहीं देता. विधानसभा चुनाव से पूर्व ‘मुख्यमंत्री से लेकर संतरी’ तक को जेल भिजवाने की धमकी देनेवाले अखिलेश यादव को भी न जाने क्यों इस मामले में सांप सूंघ गया है. हालांकि मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने कहा था ‘यह घोटाला तो 40 हजार करोड़ के आसपास का है’. स्थिति यह है कि राज्य सरकार की चुप्पी पर खुद कई विवादों में रहे राज्य के लोकायुक्त एन के मेहरोत्रा तक राज्यपाल को दोषियों पर कार्रवाई के लिए विशेष अनुरोध कर चुके हैं. स्मारक घोटाले में सरकारी जमीनें हड़पने, 250 से ज्यादा इमारतें ध्वस्त करने, तीन जेल और 100 करोड़ की लागत से छह वर्ष पूर्व स्वयं मायावती द्वारा बनाए गए भव्य स्टेडियम को ध्वस्त करने के साथ तीन लाख के हाथी को 70 लाख में बनवाने और 25 हजार रुपये में एक-एक पौधे की खरीद जैसे कई मामलों की जांच अलग-अलग स्तरों पर अटकी पड़ी है. इस घोटाले के आरोपी अरबों डकारकर मौज कर रहे हैं. एलडीए के इंजीनियर एबी मिश्र हों या स्मारक सलाहकार एसए फारूकी, सब बेदाग हैं और मायावती तक तो कोई आरोप पहुंच ही नहीं पाया है.
‘यादव सिंहों’ के विकास में मायावती का पिछला राज अनुकूल परिस्थितियों वाला था. यूपी एसआईडीसी के इंजीनियर अरुण मिश्र की प्रतिभा इसी काल में निखरी. करोड़ों के बैंक घोटाले में जेल गए और फिर फर्जी दस्तावेजों के आधार पर नौकरी पाने के आरोप में बर्खास्त हुआ, यह भ्रष्ट इंजीनियर अब भी मौज में है. यादव सिंह की तरह दोनिका सिटी मामले में चर्चित होनेवाले इस इंजीनियर की काली कमाई की एक अट्टालिका दिल्ली में प्रवर्तन निदेशालय ने जब्त भी की थी मगर काली कमाई के पैसों से ऊंची पैरवी की काबिलियत के चलते यह इंजीनियर फिर से बहाल होकर अब तक सुख से जी रहा है. ऐसा ही कारनामा मायाराज में राजकीय निर्माण निगम के एमडी पद पर रहे सीपी सिंह का भी था. बड़े भ्रष्टाचार के आरोप में सिंह के खिलाफ लोकायुक्त और विजिलेंस जांच भी हुई. पैसे के खेल से वह बच निकला और सेवानिवृत्त होने के बाद उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का सलाहकार बन गया. हालांकि मीडिया में चर्चा होने के बाद बहुगुणा को उसे हटाना पड़ा. ऐसे ही एक प्रतिभावान इंजीनियर टी राम थे जो मायावती के काल में पीडब्ल्यूडी के मुख्य अभियन्ता बने. दो बार सेवा विस्तार पाया. घर पर नोट गिनने की मशीनें लगाने के लिए चर्चित रहे टी राम अब सूबे में बसपा के विधायक बन चुके हैं.
सोना पैदा करने की जादूगरी सिर्फ यादव सिंह जैसों के दम पर नहीं चल रही है, दरअसल यादव सिंहों को पैदा करने में उत्तर प्रदेश की राजनीति का भरपूर सहयोग, प्रेरणा और संरक्षण मिलता रहा है
इन सारे मामलों में एक बात साफ दिखाई देती है कि इन तमाम ‘यादव सिंहों’ के बनने, फलने-फूलने में राजनेताओं और सत्ता का सीधा-सीधा वरदहस्त रहता है. राज्य के विकास प्राधिकरणों में तो यह और भी साफ दिखाई देता है. इलाहाबाद, गोरखपुर, बनारस, मेरठ किसी भी विकास प्राधिकरण को देख लें हर जगह ‘यादव सिंह ही यादव सिंह’ नजर आते हैं. गाजियाबाद विकास प्राधिकरण में लंबे समय तक रहे इंजीनियर अनिल गर्ग हों या लखनऊ विकास प्राधिकरण के इंजीनियर, निलम्बन और फिर बहाली, इसके अलावा इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाया. लखनऊ विकास प्राधिकरण की जानकीपुरम योजना में तीन सेक्टरों में 425 प्लॉट ग्रीन बैल्ट पर बना दिए गए. इनका मनमाना आवंटन भी कर दिया गया. फायदा एलडीए के लोगों ने उठाया, मगर 2006 में सीबीआई जांच शुरू हुई तो अब सारे निर्माण ध्वस्त किए जाने की तैयारी है. एलडीए के कुछ अधिकारी जेल में हैं, 11 लोग निलंबित हैं और तीन बर्खास्त हो चुके हैं, लेकिन बड़ी मछलियां अब भी आराम से किसी दूसरे तालाब में तैर रही हैं. हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ के कड़े रुख के बाद लखनऊ में 600 से अधिक बड़े अवैध निर्माण जांच के घेरे में हैं, मगर चर्चा इस बात की ज्यादा है कि ‘कोई भी निर्माण ध्वस्त नहीं होगा, सब सही कर लिया जाएगा’. जाहिर है यह सब ऊपर के निर्देशों और नोटों की गर्मी के कमाल से ही होगा.
यादव सिंह का मामला अब चूंकि एसआईटी की निगरानी में है और यह एसआईटी केन्द्र की मोदी सरकार की प्रतिष्ठा से जुड़ी है. कालेधन और मोदी के ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ जैसे सूत्र वाक्य से भी इसका तार जुड़ता है. इसलिए यह माना जाना चाहिए कि यह मामला पिछले प्रकरणों की तरह यूं ही ठण्डे बस्ते में नहीं चला जाएगा और यादव सिंह की अंगूठियों के हर खरीददार, हर सूत्रधार तक इसकी आंच जाएगी. अमर सिंह ने जिस तरह इस प्रकरण में एसआईटी को कुछ साक्ष्य सौंपने का दावाकर और अशोक चतुर्वेदी का नाम लेकर राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है उससे काली कमाई के धंधे के असीमित विस्तार का कुछ-कुछ खुलासा हो रहा है. ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि यादव सिंह प्रकरण काली कमाई के गोरखधंधे को पूरी तरह खत्म करने का एक उदाहरण बनेगा और फिर किसी मामले में अदालतों को ‘आईएएस राजीव कुमार और संजीव शरण जैसे अधिकारियों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तैनात न करने’ जैसे कड़े निर्देश नहीं देने पड़ेंगे. लेकिन अगर इस मामले का हश्र भी मुलायम सिंह और मायावती के आय से अधिक सम्पत्ति वाले मामलों जैसा ही हुआ तो यह न सिर्फ मोदी सरकार की छवि के लिए खतरनाक होगा बल्कि बदलाव की बाट जोह रही जनता के साथ भी एक बड़ा विश्वासघात होगा.