‘गांधी चाहते तो भगत सिंह को फांसी नहीं होती’

bhagat_singhदेश की बहुत बड़ी आबादी खासकर नौजवानों के मन में गांधी बनाम भगत सिंह के शीर्षक से कई काल्पनिक कहानियां रची-बसी हैं. इनसे उपजनेवाला अंतिम सवाल अक्सर ये होता है कि आखिर गांधी ने भगत सिंह और उनके साथियों की रिहाई के लिए कुछ क्यों नहीं किया? इसके बाद तर्कों और तथ्यों की तरफ पीठ करके गांधी के व्यक्तित्व के तमाम पहलुओं का पोस्टमार्टम शुरू हो जाता है, कोई कहता है कि गांधी स्वार्थी थे और अपनी शोहरत चाहते थे? कोई कहता है कि गांधी की वजह से भारत का विभाजन हुआ. लोक में गांधी की तमाम स्वीकार्यता के बावजूद लंबे समय तक देश के वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों उनसे समान रूप से दूर रहे. यह जुमला भगत सिंह की मौत के बाद से आज तक उछाला जा रहा है कि महात्मा गांधी, भगत सिंह की लोकप्रियता से बहुत जलते थे. उनको लगता था कि भगत सिंह का क्रांति दर्शन लोगों को उनकी अहिंसा के मुकाबले अधिक भाता है और यही वजह है कि गांधी ने भगत सिंह की रिहाई में कोई रुचि नहीं ली. यह भी कि गांधी के साथ वैचारिक टकराव की कीमत भगत सिंह और उनके साथियों को अपनी जान देकर गंवानी पड़ी. विडंबना तो यह है कि ऐसी बातें केवल गांव की चौपालों का हिस्सा नहीं हैं बल्कि कई प्रतिष्ठित विद्वानों ने भी इस विषय पर तमाम कागज काले किए हैं.


गौर फरमाएं

सच्चाई यह है कि गांधी ने भगत सिंह और उनके साथियों की रिहाई के लिए अपनी सीमा के भीतर हर संभव प्रयास किया. इस मुद्दे पर गांधी की आलोचना करनेवाले यह भूल जाते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों की जान बचने का सबसे अधिक फायदा उनको ही मिलता. गांधीजी को अच्छी तरह पता था कि भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी होने पर देश के युवा खासतौर पर कांग्रेस के युवा बहुत नाराज होंगे और हुआ भी यही. गांधीजी का अहिंसा में दृढ़ विश्वास था और यह बात किसी से छिपी नहीं है. भगत सिंह के मामले में उनके रुख को भी इसी नजरिये से देखना होगा. वह आजादी की लड़ाई में हिंसा का रास्ता अपनाने वालों को भ्रमित मानते थे. दिल्ली में एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने कहा था कि वह हर तरह की हिंसा के खिलाफ हैं फिर चाहे वह सरकार की हिंसा ही क्यों न हो. उन्होंने इसी आधार पर भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी का भी विरोध किया था. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी के तीन दिन बाद कांग्रेस के कराची सत्र में उन्होंने कहा, ‘आपको जानना चाहिए कि मैं हत्यारों तक को सजा देने के खिलाफ हूं. यह शंका निराधार है कि मैं भगत सिंह को बचाना नहीं चाहता था लेकिन मैं उनकी गलतियों से भी आपको अवगत कराना चाहता हूं. उनका रास्ता गलत था.’

यह बात भी गलत है कि भगत सिंह के मामले में गांधीजी ने फांसी के कुछ दिन पहले ही सक्रियता दिखाई. गांधी ने 4 मई 1930 को ही वायसराय को खत लिखकर इस बात पर नाराजगी जताई थी. इसके बाद लाहौर षडयंत्र मामले की सुनवाई के लिए अलग पंचाट बनाया गया. 31 जनवरी 1931 को उन्होंने इलाहाबाद में कहा कि भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी नहीं दी जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि उन्हें फांसी तो क्या जेल तक में नहीं रखा जाना चाहिए.

गांधी और इर्विन के बीच फरवरी-मार्च 1931 में हुई वार्ता के दौरान गांधीजी पर बहुत दबाव था कि वह बातचीत के लिए भगत सिंह की रिहाई को शर्त बनाएं लेकिन गांधी ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने वायसराय के साथ बातचीत में यह जरूर कहा कि अगर आप माहौल को और अधिक अनुकूल बनाना चाहते हैं तो आपको भगत सिंह की फांसी रोक देनी चाहिए. एक हकीकत यह भी है कि तत्कालीन कानूनों के मुताबिक एक बार प्रिवी काउंसिल का निर्णय आ जाने के बाद खुद वायसराय भी सजा को कम नहीं करवा सकते थे.