‘एनआईए’ पर मत जाइये

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
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देश में राजनेताओं के अब तक के सबसे बड़े हत्याकांड की जांच कर रही राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) अपनी अंतिम रिपोर्ट के कारण खुद सवालों के कठघरे में नजर आ रही है. रिपोर्ट देखकर लगता है कि एनआईए ने इस जघन्य हत्याकांड के कारणों की पड़ताल करने के बजाय राज्य सरकार को क्लीन चिट देने में ज्यादा रुचि दिखाई है.

छत्तीसगढ़ में बस्तर का केंद्र कहलाने वाले जगदलपुर की झीरम (दरभा) घाटी में 25 मई 2013 को नक्सलियों ने कांग्रेस के 27 नेताओं को मौत के घाट उतारकर देश के लोकतंत्र को सीधी चुनौती दी थी. परिवर्तन यात्रा पर निकले कांग्रेस के निहत्थे नेताओं को घेरकर नक्सलियों ने न केवल उनकी हत्या कर दी थी, बल्कि उनके शवों के साथ भी अमानवीय व्यवहार किया था. इस घटना में किसी तरह बच गए कांग्रेस के ही नेताओं ने इसे राजनीतिक हत्याकांड करार दिया था. विभिन्न आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच राज्य सरकार ने झीरम हत्याकांड की न्यायिक जांच कराने के निर्देश दिए थे, लेकिन मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसकी पड़ताल एनआईए को सौंप दी थी. उसके बाद से ही यानी पिछले दो वर्षों से एनआईए की जांच रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा था, जिसे नवंबर 2014 में गुपचुप रूप से बिलासपुर हाईकोर्ट में पेश भी कर दिया गया. लेकिन अब जबकि एनआईए का अंतिम चालान सार्वजनिक हो गया है, तो इस पर कई सवाल उठाए जा रहे हैं. सवाल लाजिमी भी हैं, क्योंकि झीरम हत्याकांड के प्रभावितों के साथ-साथ आम लोग भी इस हमले की वजहों को जानना चाहते थे. लेकिन एनआईए की रिपोर्ट ‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया’ साबित हुई है. अपने अंतिम चालान के बाद एनआईए की विश्वसनीयता पर ग्रहण लगता दिखाई दे रहा है.

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
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जब तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने रायपुर में ही ऐलान कर झीरम नक्सल हत्याकांड की जांच एनआईए को सौंपी थी, तब लोगों के साथ ही साथ कांग्रेस पार्टी को भी उम्मीद थी कि यह जांच एजेंसी किसी ठोस नतीजे पर जरूर पहुंचेगी. लेकिन अब एनआईए ने जो अंतिम चालान बिलासपुर हाईकोर्ट में पेश किया है, उसमें कई खामियां नजर आ रही हैं. यह तो सभी जानते हैं कि कांग्रेस नेताओं की हत्या नक्सलियों ने की थी, लेकिन हैरानी की बात यह है कि एनआईए की रिपोर्ट भी ‘केवल’ यही बता रही है. आश्चर्य की बात है कि पूरी रिपोर्ट में कहीं भी न तो सुरक्षा चूक का जिक्र किया गया है और न ही किसी की जिम्मेदारी तय की गई है. जबकि घटना के बाद खुद राज्य सरकार ने ही यह माना था कि नेताओं की सुरक्षा में बड़ी चूक हुई है.

यही नहीं, एनआईए ने राज्य की पुलिस की उन गुप्त सूचनाओं की चर्चा भी नहीं की है, जो 25 मई को हुए हत्याकांड के करीब तीन माह पहले से ही साझा की जा रही थीं (तहलका के पास वे गोपनीय पत्र मौजूद हैं). इन गोपनीय पत्रों में यह बात बार-बार कही जा रही थी कि नक्सली झीरम घाटी में किसी बड़ी वारदात को अंजाम दे सकते हैं. इस तरह की सूचना की एक बानगी 19 मार्च 2013 को पुलिस मुख्यालय के गोपनीय पत्र क्रमांक पु.मु/विआशा/सूत्र/2013 (एस-580) को देखकर मिल सकती है. पत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि जगदलपुर के दरभा थाना के तहत क्षेत्रों में 100 से 150 की संख्या में माओवादियों की उपस्थिति बनी हुई है. पत्र में लिखा गया है कि माओवादी 10 मार्च से 10 जून 2013 तक टेक्टिकल काउंटर ऑफेंसिव कैम्पेन (टीसीओसी) अभियान चला रहे हैं. इस दौरान वे दरभा या बयानार थाना पर हमला कर सकते हैं या फिर घात लगाकर गश्त पर निकली पुलिस पार्टी पर बड़ा हमला कर सकते हैं. 10 और 17 अप्रैल 2013 को पुलिस मुख्यालय के दो अलग-अलग पत्रों पु.मु/विआशा/सूत्र/2013 (एस-739) और (एस-799) में सूचना दी गई है कि माओवादी टीसीओसी अभियान 2013 के दौरान पूर्व नेता प्रतिपक्ष और सलवा जुडूम नेता महेंद्र कर्मा, कांग्रेस नेता विक्रम मंडावी, अजय सिंह (निवासी भैरमगढ़) और कांग्रेस नेता राजकुमार तामो (निवासी दंतेवाड़ा) को मारने के लिए एक एक्शन टीम का गठन किया गया है, जिसका दायित्व माओवादी मिलिट्री कम्पनी नंबर 02 के पार्टी प्लाटून सदस्य राकेश को सौंपा गया है. इस एक्शन टीम में भैरमगढ़ प्लाटून, गंगालूर प्लाटून तथा भांसी एलओएस से एक-एक सदस्य को शामिल किया गया है. एक्शन टीम के प्रभारी को 9 एमएम पिस्टल और सदस्यों को रिवाल्वर उपलब्ध कराया गया है. पत्र में खास ताकीद की गई है कि महेंद्र कर्मा की सुरक्षा में तैनात अधिकारियों और जवानों को विशेष सतर्कता बरतने को कहा जाए. साथ ही उनके सुरक्षा मापदंड के अनुरूप ही सुरक्षा मुहैया कराई जाए.

यह तो सभी जानते हैं कि कांग्रेस नेताओं की हत्या नक्सलियों ने की थी, लेकिन हैरानी की बात यह है कि एनआईए की रिपोर्ट भी ‘केवल’ यही बता रही है

यही नहीं, 9 मई 2013 यानी हत्याकांड के महज 16 दिन पूर्व पीएचक्यू के एक गोपनीय पत्र पु.मु/विआशा/सूत्र/2013 (एस-1046) में भी चेताया गया है कि सुकमा के थाना तोंगपाल में आनेवाले ग्राम बाढ़नपाल में 50 से 60 सशस्त्र वर्दीधारी नक्सली अस्थाई कैम्प किए हुए हैं, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर झीरम घाटी के पास घटना को अंजाम दे सकते हैं. इसी पत्र में बताया गया है कि थाना गादीरास के ग्राम फूलबगड़ी के जंगल केरलापाल में एरिया कमेटी सचिव केशा भी अपने 35 सशस्त्र नक्सलियों के साथ डेरा डाले हुए है, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर ग्राम बोरगुडा रामाराम के पास सुरक्षा बलों पर हमलाकर नुकसान पहुंचा सकते हैं.

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यह था मामला
25 मई 2013 को नक्सलियों ने झीरम घाटी में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला किया था. इसमें उस समय के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, विद्याचरण शुक्ल और महेंद्र कर्मा सहित 27 लोगों की मौत हुई थी. घटना के बाद सुरक्षा में बड़ी चूक की बात सामने आई थी.


पुलिस जांच भी बेनतीजा
झीरम हमले को लेकर पुलिस की विभागीय जांच बेनतीजा रही. मामले में न तो कोई खुलासा हुआ है और न ही विभागीय अधिकारियों-कर्मचारियों की लापरवाही तय की गई. यही नहीं, नक्सली प्रवक्ता गुडसा उसेंडी से पूछताछ में भी छत्तीसगढ़ पुलिस को कुछ हाथ नहीं लगा. अब पुलिस मुख्यालय के आला अधिकारी एनआईए जांच का हवाला देकर कुछ भी जानकारी देने से बच रहे हैं. घटना के समय पीएचक्यू के आला अधिकारियों ने मामले में लापरवाही तय होने पर कार्रवाई की बात कही थी. घटना की जांच सीआईडी के हवाले की गई थी.


इन बिंदुओं पर होनी थी जांच
घटना कैसे हुई? क्या घटना के पहले नक्सलियों का जमावड़ा आसपास के इलाके में था? परिवर्तन यात्रा के दौरान रोड ओपनिंग पार्टी थी या नहीं? थाना बल तैनात थी या नहीं? इन्हीं बिंदुओं पर सीआईडी की जांच केंद्रित थी. घटनास्थल पर मौजूद पीएसओ तथा अन्य लोगों के बयान भी दर्ज किए गए थे. जांच के बाद रिपोर्ट पुलिस मुख्यालय को सौंपी जानी थी, लेकिन रिपोर्ट पूरी ही नहीं हुई.


संपत्ति की जांच तक नहीं कर पाई एनआईए
एनआईए यह भी पता नहीं लगा पाई कि फरार आरोपियों के नाम पर कोई संपत्ति है भी या नहीं. एनआईए ने बिलासपुर हाईकोर्ट में 25 फरार आरोपियों की संपत्ति कुर्क करने के लिए इस्तगासा पेश किया था. लेकिन पुलिस जांच के दौरान पता चला कि उनके नाम पर संपत्ति ही नहीं है. इस मामले में भी कोर्ट में एनआईए की किरकिरी हुई. झीरम घाटी मामले में कुल 34 नामजद आरोपी हैं. इनमें नौ लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं, जबकि 25 आरोपी अब तक फरार हैं, जिनकी तलाश की जा रही है.


कुछ खास उपलब्धि नहीं रही है एनआईए की
मुंबई हमलों के बाद वर्ष 2008 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी नाम के संघीय संगठन के गठन के लिए संसद में एक विधेयक पेश किया था. देशभर में बने माहौल के चलते हालात को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों ने इस विधेयक का समर्थन किया. 17 दिसंबर 2008 को लोकसभा में पारित होने के बाद 31 दिसंबर को इसे राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिल गई. यह बात और है कि सभी दलों की सहमति के बाद भी 6 जनवरी 2009 को नई दिल्ली में प्रधानमंत्री द्वारा बुलाए गए मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में ज्यादातर गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने एनआईए के गठन पर आपत्ति जताई थी, जिनमें छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह भी शामिल थे. रमन सिंह एनआईए को दिए गए अधिकारों को राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप के रूप में देख रहे थे. जम्मू-कश्मीर कैडर के 1975 बैच के आईपीएस अधिकारी राधा विनोद राजू को एनआईए का पहला मुखिया नियुक्त किया गया था.

एनआईए का गठन देश की ऐसी आंतरिक जांच एजेंसी के रूप में किया गया है, जिसका काम आतंकवाद या नक्सलवादी हमलों की तह तक जाना है. इसका काम ऐसे हमलों की सहायक बनी परिस्थितियों की पड़ताल करनी है. देश की संप्रभुता और एकता से जुड़ी चुनौती, विस्फोट, विमान या जलपोत अपहरण और परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमले इसी एजेंसी की जांच के दायरे में आते हैं. एजेंसी ऐसी घटनाओं की भी जांच करती है, जो पेचीदा अंतर-राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय संपर्कों वाली होती हैं और जिनका संभावित संबंध हथियारों और नशीली दवाओं की तस्करी, जाली भारतीय मुद्रा और सीमापार से घुसपैठ से होता है. लेकिन आज तक एनआईए के खाते में कोई विशेष उपलब्धि नहीं आई है.


न्यायिक जांच आयोग कर रहा है अलग जांच
झीरम कांड न्यायिक जांच आयोग मामले की अलग से जांच कर रहा है. अभी उसकी जांच पूरी नहीं हुई है. मामले में अब तक 44 लोगों का बयान दर्ज किया जा चुका है. आयोग के समक्ष एक गवाह मदन दुबे ने शपथ पत्र में दिए गए बयान में कहा है कि अतिविशिष्ट लोगों को दिए जानेवाले सुरक्षा मानक के अनुरूप सुरक्षा व्यवस्था झीरम की घटना के दौरान नहीं की गई थी. यही कारण था कि नक्सली अपने मंसूबों में कामयाब हो गए.

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इसके अलावा 17 मई 2013 को भेजे गए एक पत्र में नक्सलियों द्वारा ग्रामीणों की बैठक में भाजपा की विकास यात्रा व कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा का विरोध करने और किसी भी नेता को गांव में न घुसने देने का निर्देश देने की सूचना भेजी गई थी. एनआईए अपने चालान में नक्सलियों द्वारा जो चावल व चंदा एकत्र करने की बात कर रही है, उसके बारे में भी राज्य की पुलिस के गोपनीय पत्रों में घटना के पहले ही बता दिया गया था. ऐसे तीन-चार नहीं बल्कि दर्जनों गोपनीय पत्र पुलिस मुख्यालय से जगदलपुर, दंतेवाड़ा, बस्तर, कोंडागांव, सुकमा के पुलिस अधीक्षकों को भेजे जा रहे थे, जिनमें नक्सलियों के टीएलओसी अभियान के तहत 10 जून 2013 तक किसी बड़ी वारदात की आशंका जताई जा रही थी. पुलिस यह भी जानती थी कि वारदात राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर दरभा थाना के आसपास ही होनी थी. पुलिस की गोपनीय सूचनाओं में बार-बार झीरम घाटी का भी जिक्र हो रहा था. लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि एनआईए ने अपनी जांच रिपोर्ट में एक बार भी यह जिक्र नहीं किया है कि जब स्थानीय पुलिस के पास इतनी पुख्ता सूचनाएं थीं, तो कांग्रेस नेताओं को झीरम घाटी जाने की अनुमति क्यों दी गई. सवाल कई हैं. यदि कांग्रेस नेताओं को झीरम घाटी से गुजरने की अनुमति दी गई, तो उन्हें सुरक्षा मुहैया क्यों नहीं करवाई गई. कांग्रेस के काफिले के पहले रोड ओपनिंग पार्टी (पुलिस का गश्ती दल, जो यह सुनिश्चित करता कि रास्ते में कोई खतरा नहीं है) क्यों नहीं भेजी गई. जब राज्य की पुलिस के पास यह पुख्ता जानकारी थी कि झीरम घाटी में नक्सली किसी बड़ी वारदात को अंजाम देने की फिराक में हैं और महेंद्र कर्मा को मारने के लिए एक्शन टीम बनाई गई है, तो भी कांग्रेस नेताओं को नक्सलियों की मांद में बगैर किसी सुरक्षा के कैसे भेज दिया गया. लेकिन एनआईए ने इन सभी सवालों को अनदेखा करते हुए अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश कर दी.

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
झीरम घाटी की असभ्यता नक्सलियों के नृशंस हमले की तस्वीरें जिसमें छत्तीसगढ़ कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं के साथ कुल 27 लोग मारे गए थे;
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

एनआईए के अंतिम चालान से घटना के वे प्रत्यक्षदर्शी भी आश्चर्यचकित हैं, जिन्हें कभी बयान के लिए बुलाया ही नहीं गया. प्रत्यक्षदर्शियों का यह आरोप गंभीर प्रश्न खड़े करता है. कई प्रत्यक्षदर्शियों को एनआईए की तरफ से केवल एक बार कॉल की गई कि वे तैयार रहें, उनके बयान लिए जाएंगे, लेकिन कभी उन्हें बयान के लिए बुलाया ही नहीं गया. झीरम हमले में मारे गए कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल के प्रवक्ता रहे दौलत रोहड़ा घटना के वक्त शुक्ल के साथ उसी गाड़ी में थे. हमले से वह सकुशल बचकर वापस आ गए. रोहड़ा बताते हैं, ‘राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने मुझे एक बार फोन किया कि आप तैयार रहें, आपको कभी भी बयान देने के लिए बुलाया जा सकता है. लेकिन कभी बुलाया नहीं.’  नक्सल हमले में घायल हुए कांग्रेस के एक अन्य नेता शिवनारायण द्विवेदी सवाल करते हैं, ‘हमसे एनआईए ने पूछताछ क्यों नहीं की. हमसे ब्यौरा क्यों नहीं लिया गया, जबकि हम अपने नेताओं की हत्या के वक्त मौके पर मौजूद थे.’

एनआईए के अंतिम चालान से घटना के वे प्रत्यक्षदर्शी भी आश्चर्यचकित हैं, जिन्हें कभी बयान के लिए बुलाया ही नहीं गया

इस बारे में एनआईए के आईजी संजीव सिंह केवल यही बताते हैं कि ‘अब तक नौ नक्सलियों की गिरफ्तारी हो चुकी है. घटना को आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नक्सलियों ने मिलकर अंजाम दिया था. झीरम घाटी में वारदात को अंजाम देनेवाले नक्सलियों में ओडीसा का एक भी बड़ा कमांडर शामिल नहीं है. इसे एनआईए की टीम नक्सलियों के बीच चल रहे वैचारिक मतभेद के रूप में देख रही है.’ लेकिन एनआईए की जांच रिपोर्ट में छूटे गए बिंदुओं पर वह कोई भी बात करने को तैयार नहीं दिखते. सिंह कहते हैं, ‘रिपोर्ट तथ्यपरक है, जो पाया गया, वही पेश किया गया है.’ वहीं छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक अमरनाथ उपाध्याय कहते हैं, ‘झीरम घाटी में नक्सली वारदात की जांच एनआईए की टीम ने की है. इस मामले में छत्तीसगढ़ पुलिस का कोई हस्तक्षेप नहीं है. कोर्ट में मामला होने के कारण अभी कोई टिप्पणी नहीं कर सकता.’

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को पूरी तरह नकार दिया है. कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल का आरोप है कि एनआईए ने आधी-अधूरी रिपोर्ट पेश की है और यह राज्य सरकार को बचाने का काम रह रही है. नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव और उमेश पटेल (हमले में मारे गए तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल के पुत्र) ने झीरम घाटी में मारे गए कांग्रेस नेताओं के परिजनों के साथ मुख्यमंत्री रमन सिंह से मुलाकातकर एनआईए की रिपोर्ट पर आपत्ति दर्ज करवाई है. कांग्रेस के इस प्रतिनिधिमंडल ने घटना की सीबीआई जांच करवाने की मांग दोहराई है. रमन सिंह ने प्रतिनिधि मंडल को गृहमंत्री राजनाथ सिंह से भी मुलाकात करने की सलाह दी है.

हालांकि एनआईए की रिपोर्ट पर खुद राज्य सरकार दो तरह से प्रतिक्रिया देती नजर आ रही है. मुख्यमंत्री रमन सिंह ने रिपोर्ट से पल्ला झाड़ते हुए कहा है, ‘मुझे तो जस्टिस प्रशांत मिश्रा की अध्यक्षता में बनाई गई न्यायिक जांच रिपोर्ट का इंतजार है. एनआईए की रिपोर्ट से राज्य सरकार का कोई लेना-देना नहीं है.’ वहीं प्रदेश के गृहमंत्री रामसेवक पैकरा ने रिपोर्ट को सही ठहराया है. पैकरा कहते हैं, ‘एनआईए ने जो पाया, वही अपने अंतिम चालान में पेश किया है.’

हालांकि छत्तीसगढ़ समाज पार्टी के अध्यक्ष अनिल दुबे, जिन्होंने झीरम घाटी हत्याकांड के बाद पुलिस मुख्यालय के गोपनीय पत्रों को सार्वजनिक करने में अहम भूमिका निभाई है, उनकी इस बात से सहमत नजर नहीं आते. वह तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘माओवाद की समस्या केंद्र और राज्य सरकार की मिलीभगत का नतीजा है. यह एक बार फिर एनआईए की आधी-अधूरी रिपोर्ट से साबित हो गया है.’ दुबे कहते हैं, ‘कांग्रेस और भाजपा दोनों की यह नीयत नहीं है कि माओवाद खत्म हो, क्योंकि इसमें बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार की संभावना बनी रहती है. यह बात सभी जानते हैं कि झीरम घाटी की घटना सोची-समझी साजिश है, जो बिना राजनीतिक संरक्षण के संभव नहीं थी. आप देखिए, उसी दौरान मुख्यमंत्री की विकास यात्रा भी निकल रही थी, जिसे पूरी सुरक्षा प्रदान की गई थी, वहीं उसके पंद्रह दिन बाद कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा निकली. लेकिन परिवर्तन यात्रा के दौरान जितने नेता थे, उतने सिपाही भी नहीं लगाए गए. सरकार को हर दिन किसी बड़े हमले की जानकारी मिल रही थी, लेकिन फिर भी जरूरी कदम नहीं उठाए गए.’

दुबे आगे कहते हैं, ‘एनआईए की रिपोर्ट में केवल एक महत्वपूर्ण काम किया गया है. वह यह कि इसमें आरोपी नक्सलियों को सूचीबद्ध कर दिया गया है. लेकिन दूसरे अहम बिंदुओं की इसमें कोई पड़ताल नहीं की गई है. सरकार को मिल रही सटीक गोपनीय सूचनाओं तक का इसमें हवाला नहीं दिया गया है. सही मायनों में एनआईए की जांच अधूरी है.’