नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने शुरुआती कुछ महीनों के दौरान ही जिस तरह अध्यादेशों की झड़ी लगा दी है, वह इन दिनों बहस का विषय बन गया है. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस इन अध्यादेशों में मौजूदा सरकार की तानाशाही प्रवृत्तियों की झलक देख रही है, जबकि कुछ दूसरे लोग इसे संवैधानिक और संसदीय तरीकों से बचकर आगे बढ़ने की कोशिश करार दे रहे हैं. बड़ी संख्या में अध्यादेश जारी किए जाने की वजह से मौजूदा केंद्र सरकार को अध्यादेश सरकार भी कहा जाने लगा है.
आठ महीने, दस अध्यादेश
केंद्र की सत्ता में आने के बाद से अब तक सरकार दस अध्यादेश जारी कर चुकी है. इनमें बीमा अधिनियम (संशोधन) अध्यादेश, कोयला खदान (विशेष प्रावधान) अध्यादेश, कोयला खदान (विशेष प्रावधान) द्वितीय अध्यादेश, खदान एवं खनिज (संशोधन) अध्यादेश, नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश, मोटर वाहन अधिनियम (संशोधन) अध्यादेश, वस्त्र उपक्रम राष्ट्रीयकरण अधिनियम (संशोधन एवं विधिमान्यकरण) अध्यादेश, आंध्र प्रदेश पुनर्गठन (संशोधन) अध्यादेश और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (संशोधन) अध्यादेश शामिल हैं.
विपक्ष भले ही अध्यादेशों से नाखुश हो, लेकिन उद्योग जगत सरकार के इस कदम को लेकर उत्साहित है. महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने एक टेलीविजन इंटरव्यू में कहा, ‘जहां तक अध्यादेशों का सवाल है, मेरी इसके बारे में राय सकारात्मक है क्योंकि यह डिलीवरी सुनिश्चित करने के लिए है. अध्यादेशों की राह अपनाकर सरकार ने यह संकेत दिया है कि यह महज बातचीत से आगे बढ़ने को तैयार है. अगर ऐसा करने के लिए उसे अध्यादेश जारी करने पड़ रहे हैं, तो यही सही.’
2008 इंदिरा गांधी ने तकरीबन 16 साल के अपने शासन काल में 208 अध्यादेश जारी कराए थे, जबकि जवाहर लाल नेहरू के लगभग 17 साल के शासन काल में 200 अध्यादेश जारी किए गए
आठ महीनों के दौरान 10 अध्यादेश जारी किए जाने से ऐसा लगता है कि सरकार किसी जल्दबाजी में है. ऐसा लगता है कि इस जल्दबाजी में सरकार यह भी भूल गई है कि किसी कानून को पारित कराने के लिए ही संविधान के जरिए लोकसभा और राज्यसभा के नाम से दो विधायी सदन बनाए गए हैं. इस बारे में सरकार का तर्क यह है कि उसके पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था. संसदीय कार्य मंत्री एम वैंकैया नायडू ने दिसंबर के आखिरी हफ्ते में सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि संसद में कांग्रेस के नकारात्मक और बाधक रवैए की वजह से उसे ऐसा करने को बाध्य होना पड़ा.
कांग्रेस का आरोप, भाजपा का पलटवार
विपक्ष वेंकैया के इस दावे को हवा में उड़ा देता है. उसका सवाल है कि अगर बिल लोकसभा के शीतकालीन सत्र में पास नहीं हुए तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है. सरकार के लोग घर वापसी से लेकर रामजादे और हरामजादे जैसे कार्यक्रम चला रहे थे, प्रधानमंत्री सदन में बोलने को तैयार तक नहीं थे, तो विपक्ष के सामने क्या विकल्प बचता है. अगर प्रधानमंत्री ने घर वापसी जैसे मामलों पर विपक्ष की मांग मानते हुए संसद में बयान दे दिया होता, तो सत्र बर्बाद होने से बच जाता. उस हालत में अहम विधेयकों पर चर्चा के लिए अधिक समय मिल जाता, जिन पर बाद में सरकार को अध्यादेश जारी करने पड़े हैं. मोदी सरकार के दौरान जारी किए गए अध्यादेशों का हवाला देते हुए 13 जनवरी को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक के दौरान कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने टिप्पणी की कि नरेंद्र मोदी में ‘तानाशाही प्रवृत्तियां’ हैं. इस बीच भाजपा ने कांग्रेस पर पलटवार करते हुए पूछा है कि क्या इंदिरा गांधी और जवाहर लाल नेहरू को भी तानाशाह का दर्जा दिया जा सकता है? नायडू ने 14 जनवरी को पत्रकारों से बातचीत के दौरान कहा, ‘सोनिया गांधी को यह स्पष्ट करना चाहिए कि नेहरू तानाशाह थे या लोकतांत्रिक? वह (सोनिया) इंदिरा गांधी को किस नजरिए से देखती हैं? क्या वह तानाशाह थीं?’
नायडू जिन संदर्भों में इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू का उल्लेख कर रहे थे, उन पर भी नजर डालना जरूरी है. इंदिरा गांधी ने 5825 दिनों (तकरीबन 16 साल) के अपने शासन काल में 208 अध्यादेश जारी कराए थे, यानी तकरीबन हर 28 दिन में उनके शासन काल में एक अध्यादेश जारी हुआ. इसके अलावा, जवाहरलाल नेहरू के 6126 दिनों (तकरीबन 17 साल) के शासन काल में 200 अध्यादेश जारी किए गए थे यानि लगभग 31 दिन में एक. अब हम इन दोनों के शासनकाल की तुलना मौजूदा मोदी सरकार के साथ कर लेते हैं. मौजूदा केंद्र सरकार के शुरुआती नौ महीनों के दौरान 10 अध्यादेश जारी किए गए हैं, यानी तकरीबन 24 दिनों में औसतन एक अध्यादेश. लेकिन यह तुलना करते समय यह याद रखना भी अहम है कि गांधी और नेहरू के जमाने में कांग्रेसी सरकारों को कभी भी राज्यसभा में अल्पमत की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा था, जबकि नरेंद्र मोदी की मौजूदा सरकार को इस दिक्कत से भी दो-चार होना पड़ रहा है, क्योंकि उसके पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है.
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अध्यादेश और उसकी वैधता
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति को विधि से संबंधित कुछ विशेष शक्तियां देता है. यह शक्तियां उस समय के लिए होती हैं जब संसद के दोनों सदन न चल रहे हों और संसद के जरिए कानून बनाना संभव न हो. लेकिन कानून बनाने के इस तरीके पर भी हमारे संविधान निर्माताओं ने कुछ सीमाएं लगा रखी हैं. अध्यादेश केवल उन्हीं विषयों के बारे में जारी किया जा सकता है, जिनके बारे में संसद को कानून बनाने का अधिकार है. इसके अलावा राष्ट्रपति केवल तभी अध्यादेश जारी कर सकता है जब संसद का सत्र न चल रहा हो.
अनुच्छेद 123 आगे कहता है, ‘राष्ट्रपति केवल तभी अध्यादेश जारी कर सकते हैं जब वह इस बात से पूरी तरह संतुष्ट हो जाएं कि मौजूदा परिस्थितियों में इस बारे में त्वरित कार्रवाई करना जरूरी है.’ दरअसल अनुच्छेद 123 का यही वह बिंदु है जिसकी वजह से विपक्षी दल सरकार पर हमलावर हो गए हैं. सवाल यह उठाए जा रहे हैं कि अब तक जो अध्यादेश जारी किए गए हैं, उनमें से आखिर किनमें मौजूदा परिस्थितियों में त्वरित कार्रवाई करना जरूरी हो गया था.
संसद के दो अधिवेशनों के बीच अधिकतम छह महीने का अंतर हो सकता है और संसद का सत्र बुलाए जाने के छह हफ्तों के भीतर अध्यादेश को कानून बनवाना अनिवार्य होता है. इसका मतलब यह है कि कोई अध्यादेश अधिकतम साढ़े सात महीने तक ही अस्तित्व में रह सकता है. अगर इस अवधि के दौरान उसे विधेयक के तौर पर पेशकर कानून का रूप नहीं दिलाया जाता, तो वह स्वतः समाप्त हो जाता है.
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राष्ट्रपति दो बार कर चुके हैं टिप्पणी
अध्यादेशों का रास्ता अपनानेवाली मोदी सरकार पर इसकी वजह से राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी अब तक दो बार टिप्पणी कर चुके हैं. 66वें गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में मुखर्जी ने कहा, ‘बिना बहस के कानून लागू करना संसद की विधि निर्माण की भूमिका पर असर डालता है. यह उस भरोसे को तोड़ता है, जो लोग इस पर जताते हैं. यह न तो लोकतंत्र के लिए अच्छा है और न ही उन नीतियों के लिए.’ इससे पहले केंद्रीय विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के छात्रों व शिक्षकों को विडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए संबोधित करते हुए 19 जनवरी को मुखर्जी ने टिप्पणी की थी कि अध्यादेश खास उद्देश्यों के लिए होते हैं, इन्हें ‘असामान्य परिस्थितियों में असामान्य दशाओं से निबटने के लिए लाया जाता है.’ उन्होंने ताकीद की कि इस तरीके का इस्तेमाल सामान्य विधायी प्रक्रिया के लिए नहीं किया जाना चाहिए.
राष्ट्रपति ने विपक्ष को दी नसीहत
हालांकि 19 जनवरी के अपने संबोधन के दौरान राष्ट्रपति विपक्ष को भी नसीहत देने से नहीं चूके. उन्होंने कहा कि विपक्ष को सदन की गतिविधियों को बाधित करने से बचना चाहिए. उनके शब्दों में, ‘यह सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि वे एक साथ बैठें और मिलकर कामकाज का माहौल तैयार करें.’
राज्यसभा से बचने की मंशा
खबर है कि सरकार इन सभी अध्यादेशों के बदले विधेयक लाने की तैयारी कर रही है, ताकि 23 फरवरी से शुरू हो रहे बजट सत्र में इन्हें दोनों सदनों में पारित कराया जा सके. संसदीय कार्य मंत्रालय ने सभी संबंधित मंत्रालयों को विधेयक तैयार करने के लिए कहा है और जनवरी के आखिरी हफ्ते में ही सभी विभागों के प्रमुखों की बैठक बुलाई है, ताकि इन विधेयकों को संसद में पारित कराने की रणनीति तैयार की जा सके.
34 साल 1993 में सबसे अधिक 34 अध्यादेश जारी किए गए थे. अगर हम साल 1952 से 2014 के बीच जारी किए गए अध्यादेशों की बात करें, तो कुल 637 अध्यादेश जारी किए जा चुके हैं
अगर सरकार इसे दोनों सदनों में अलग-अलग पारित नहीं करा पाती है, तो राज्यसभा से बचकर विधेयक पारित कराने का एक संवैधानिक तरीका भी मौजूद है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 111 के मुताबिक, जब किसी एक सदन में कोई विधेयक पारित हो जाता है, तो उसके बाद उसे चर्चा के लिए दूसरे सदन में भेजा जाता है. वहां से भी पारित हो जाने के बाद उसे राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा जाता है. जब उस पर राष्ट्रपति अपनी सहमति दे देता है, तभी वह विधेयक से अधिनियम का रूप ले पाता है. यह तो हुई बात सामान्य स्थितियों की, लेकिन मौजूदा स्थितियां अलग हैं. सरकार का तर्क यह है कि उसके पास राज्यसभा में पर्याप्त बहुमत नहीं है, ऐसे में उसे विधेयकों को पारित कराने में दिक्कत हो रही है. अगर हम विशिष्ट संवैधानिक प्रावधानों पर नजर डालें, तो सरकार दूसरे सदन में विधेयक को पारित कराए बगैर उसे कानून का रूप दे सकती है. संविधान के अनुच्छेद 108 के मुताबिक अगर कोई विधेयक एक सदन में पारित हो जाता है, लेकिन दूसरे सदन में उस पर सहमति नहीं बन पाती या दूसरा सदन उस विधेयक में किए गए संशोधनों से पूरी तरह असहमति व्यक्त कर चुका हो या पहले सदन में उस विधेयक को पारित कर दूसरे सदन को वह विधेयक मिलने की तारीख के बीच छह महीने से अधिक का वक्त बीत चुका हो और दूसरेे सदन ने उसे अब तक पारित नहीं किया हो, तो राष्ट्रपति उस विधेयक पर चर्चा और मतदान के लिए एक संयुक्त बैठक बुला सकता है. अगर संयुक्त बैठक में वह विधेयक दोनों सदनों के मौजूद और मतदान करनेवाले सदस्यों के बहुमत से पारित हो जाता है, तो उस विधेयक को दोनों सदनों में पारित मान लिया जाता है. यह प्रावधान धन विधेयक और संविधान संशोधन विधेयकों पर लागू नहीं होता.
ऐसे में आशंका यह भी है कि लोकसभा में पर्याप्त बहुमत होने और राज्यसभा में संख्याबल कम होने की वजह से केंद्र सरकार इनमें से कुछ अध्यादेशों को पारित कराने के लिए अनुच्छेद 108 के तहत बुलाए जानेवाली सदन की संयुक्त बैठक की मदद ले सकती है. ध्यान रहे कि 19 जनवरी के अपने संबोधन में मुखर्जी इस तरह के प्रयासों को यह कहते हुए खारिज कर चुके हंै कि सत्ताधारी दल के पास राज्यसभा में बहुमत न होने की स्थिति में कानून बनाने के लिए संख्या जुटाने के उद्देश्य से दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाना व्यावहारिक नहीं है.