जमशेदपुर लंबी और असहज खामोशी का शहर है. इस भयावह चुप्पी को तोड़ने का जरिया टाटा स्टील में हर रोज काम शुरू होने और फिर खत्म होने के बाद बजनेवाला सायरन है. स्टील सिटी के लोगों के लिए सब कुछ, खास तौर पर उनका रोजगार, टाटा स्टील के इर्द-गिर्द ही घूमता है. विडंबना है कि शहर के लोग अक्सर खामोश ही रहते हैं और बातचीत का प्रयास करने पर धीरे से मुस्कुराते हुए निकल जाते हैं. ऐसा आपके साथ जरूर होगा अगर आपने किसी जमशेदपुरवासी से टाटा स्टील के बारे में बात करने की कोशिश की, मसलन कैसे देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने ने जमशेदपुर के अतीत पर काबिज होकर इसकी प्राकृतिक संपदा का दोहन किया और शहरवासियों को बेदर्दी से शोषण के अंतहीन चक्र में फंसा दिया.
सबसे पहले मिलते हैं फागु सोरेन से. इस शहर के लाखों गरीब लोगों में से एक. फागु सोरेन जमशेदपुर के मूल निवासियों में से हैं, लेकिन अब शहर के बाहरी इलाके में रहते हैं. सोरेन सुवर्णरेखा नदी के किनारे टीन के एक घर में रह रहे हैं. इस घर का फर्श कीचड़ से सना है और बांस के सहारे प्लास्टिक लगाकर घर की छत खड़ी की गई है. फरवरी की दोपहर, सोरेन सुवर्णरेखा नदी, जिसका अर्थ ‘सोने की नदी’ है, के किनारे गुमसुम बैठे हैं. उनके एक हाथ में सामान से भरा पुराना थैला और दूसरे हाथ में पुरानी टोपी है. सोरेन की उम्र बमुश्किल 40 साल होगी, लेकिन वह उम्र से कहीं अधिक बड़े नजर आते हैं. सोरेन ज्यादा बोल नहीं रहे लेकिन उनकी आंखें अभी से ही नम हो गईं. सोरेन की गमगीन आंखें अन्याय और शोषण को स्थापित करने का पहला जरिया-भर हैं.
अगर सोरेन को मौका मिले तो वह मुझे, आपको और जो भी उनकी कहानी सुनना चाहे उन्हें बताएंगे कि स्वघोषित ‘इस्पात से भी मजबूत हमारे उसूल’ की बात करने वाली कंपनी ने कैसे उनकी रोजी-रोटी छीन ली. रोजगार छीनने के साथ ही कंपनी ने उनके शहर की प्राकृतिक संपदाओं का भरपूर दोहन किया और उनके पुरखों के गृहनगर को जानलेवा वायु प्रदूषण से भर दिया. सोरेन ने लोगों को अपनी दर्दनाक कहानी से आगाह करने की जगह चुपचाप बिना किसी प्रतिरोध के गुमनामी की जिंदगी का रास्ता अपना लिया. इसकी वजह है कि सोरेन के पास विकल्पों का अभाव था, या फिर कह सकते हैं कि कोई विकल्प था ही नहीं. सोरेन देश में टाटा के सबसे बड़े स्टील प्लांट वाले शहर की जहरीली गैस से प्रदूषित हवा में सांस लेने के लिए मजबूर हैं. इंसान के लिए नुकसानदेह सुवर्णरेखा नदी के पानी को पीने के लिए इस्तेमाल करना उनकी मजबूरी है. सोरेन की आंखें अनायास ही दलमा की उन पहाड़ियों की तरफ उठ जाती हैं, जो कभी हरी-भरी और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर थीं. इसी पहाड़ी के तले कभी उनके पूर्वजों ने जन्म लिया और कई पीढ़ियों ने जिंदगी बिताई. अब दलमा की ये पहाड़ियां कठोर चट्टानों में तब्दील हो चुकी हैं.
सोरेन इन त्रासदियों के बाद भी ज्यादा नहीं बोलते. वह सिर्फ सुनते हैं-सरकारी अधिकारियों को, टाटा स्टील के पदाधिकारियों को, पर्यावरणविदों को और पत्रकारों को. ये सभी लोग भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बनाने की बात करते हैं, भूमि कानूनों के न होने पर चिंता जाहिर करते हैं, नागरिक सुविधाओं के अभाव, पर्यावरण के दूषित होने और कॉरपोरेट चालाकियों की बात करते हैं. इन सबके बाद भी सोरेन की स्थिर चुप्पी नहीं टूटती है. ‘इस्पात से भी मजबूत उसूल’ की बात करनेवाले टाटा स्टील के लिए लगता है कि ‘उसूल’ महज 3000 करोड़ के विज्ञापन तक ही सीमित है. टाटा ग्रुप ऑफ कंपनीज के संस्थापक जमशेदजी नसरवानजी टाटा के नाम पर बने शहर जमशेदपुर की जमीनी हकीकत कुछ अलग है. 3.72 लाख करोड़ की अनुमानित लागतवाली टाटा कंपनी के विज्ञापन, भारतीय औद्योगिक घरानों से खुद को अलहदा कहनेवाली, पूंजीवादी नैतिकता और सामाजिक सरोकार की बातें जमशेदपुर के निवासियों के लिए एक क्रूर मजाक हैं. साथ ही यह उस दावे का भी मजाक उड़ाती है, जो टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमैन रतन टाटा ने ‘नैनो’, जिसे आम आदमी की कार भी कहते हैं, के बारे में किया था. रतन टाटा ने कहा था कि एक बार बारिश में 4 सदस्यों के परिवार को उन्होंने स्कूटर पर भीगते देखा था. इसे देखकर वह इतने द्रवित हो गये कि उन्हें एक सस्ती ‘आम आदमी के लिए’ कार बनाने की प्रेरणा मिली.
कानूनी कवच और टालमटोल
एक क्रूर पहलू यह भी है कि कानूनी दांव-पेंच और जटिल कानूनी प्रक्रियाओं के सहारे टाटा समूह ने जमशेदपुर शहर के लोगों को उनके द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित कर रखा है. जमशेदपुर में कोई नगर निगम नहीं है. हालांकि फैक्ट्रियों के इस शहर में निर्वाचित नगर निगम के लिए 1967 से ही कोशिशें चल रही हैं. लेकिन टाटा समूह ने भ्रामक कानूनी प्रक्रियाओं और याचिकाओं के सहारे लंबे समय से नगर निगम की स्थापना की सभी कोशिशों को सफलतापूर्वक रोके रखा है. स्टील सिटी में नागरिक सुविधाओं के दायरे में आनेवाली चीजें मसलन सड़कों का निर्माण, सीवरेज, ड्रेनेज, पानी की आपूर्ति, स्ट्रीट लाइट लगाने जैसे काम टाटा की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर हैं.
जमशेदपुर प्रशासन की राह में मूल समस्या उसके लीज समझौते के प्रावधान हैं, जिन्हें जानबूझकर एक पक्ष में रखा गया है. इसके नियम और शर्तें संदिग्ध नजर आती हैं. 37,000 एकड़ क्षेत्रवाले जमशेदपुर में समझौते के तहत टाटा स्टील का लगभग इसके आधे हिस्से पर अधिकार है और यहां के निवासियों को मूलभूत नागरिक सुविधाएं मुहैया कराना टाटा की जिम्मेदारी है.
2011 के जनगणना आंकड़ों के तहत जमशेदपुर पूर्वी भारत में कोलकाता और पटना के बाद तीसरा सबसे बड़ा शहर है. 13 लाख की आबादीवाले इस शहर का प्रशासन जमशेदपुर नोटिफाइड एरिया कमिटी (जेएनएसी) के तहत होता है. जमशेदपुर शहरी समुदाय के तहत यू/ए (यूए) सिटी की श्रेणी में आता है. यह दस लाख से ऊपर के शहरों के लिए मिलता है. इसमें जमशेदपुर शहर जिसकी आबादी छह लाख है, मैंगो (नोटिफाइड एरिया कमिटी के तहत) क्षेत्र जिसकी आबादी करीब दो लाख से अधिक और आदित्यपुर की नगर पंचायत जिसकी आबादी 1.7 लाख है, के क्षेत्र इसमें समाहित हैं. यह फैक्ट्री क्षेत्र में आता है और इस आबादी की स्पष्ट जिम्मेदारी किसी की भी नहीं है.
आज स्थिति यह है कि जमशेदपुर के भीतरी इलाकों में पड़नेवाली टेल्को कॉलोनी जैसी कुछेक संभ्रांत कॉलोनियों और उसके आस-पास के लोगों का ही नागरिक सुविधाओं पर एकाधिकार है. इन इलाकों में रहनेवाले लोगों के पास बड़े बंगले, हरे-भरे बगीचे, खूबसूरत पार्क, पानी से भरे तालाब और मुख्य सड़क से जोड़नेवाली चमचमाती सड़कें हैं. वहीं दूसरी तरफ शहर की एक बड़ी आबादी टूटे-फूटे घरों में रह रही है. इन घरों की दीवारों पर प्लास्टर तक नहीं है, टूटी नालियों से कचरा बहता है और बरसात में छतों से पानी टपकता है, सड़कें भी खस्ताहाल हैं. हवा में फैला जहरीला प्रदूषण नुकसानदायी स्तर से भी कई गुना ज्यादा है.
जमशेदपुर टाटा स्टील फैक्ट्री की विशालकाय परछाई तले जीता है. फैक्ट्री से रोज निकलने वाले टनों अलग-अलग रंग के धुएं की उल्टी से शहर का आकाश सफेद रंग से ढंका रहता है. धुंध भरी सुबहों के साथ दिन की शुरुआत होती है और अंत तारों से खाली रात के आकाश के साथ होता है. इस शहर के लोग हर वक्त पानी और दूसरी कई बीमारियों से होनेवाले डर में जीते हैं. टाटा स्टील प्लांट के आस-पास (आधा दर्जन से अधिक जगहों) पर कचरे का ढेर लगा है और लोग उस दमघोंटू बदबू से गुजरकर बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते हैं. शहर के 12 लाख से अधिक लोग नागरिक सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं. स्टील सिटी का यह हिस्सा जरूरी सुविधाओं के बिना जीने के लिए अभिशप्त हैं.
आश्चर्य की बात है कि जमशेदपुर में स्थिति ऐसी क्यों बनी हुई है? सवाल यह भी है इस शहर में नागरिक सुविधाओं को बहाल करने के लिए देशभर में कहीं से कोई आवाज क्यों नहीं आती? टाटा स्टील कानूनन शहर में नागरिक सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए जिम्मेदार है, संवैधानिक तौर पर भी और कॉरपोरेट-सोशल उत्तरदायित्व के तहत भी. इसके बावजूद विरोध के स्वर नदारद क्यों हैं? इन सवालों के जवाब के लिए हमें लगभग एक दशक से भी पीछे जाना होगा और जमीनी स्तर पर टाटा का विशाल भवन कैसे डगमगाते हुए खड़ा है, इसकी पड़ताल करनी होगी.
जमशेदपुर में टाटा स्टील प्लांट की स्थापना 1907 में की गई थी. 21 जून 1924 को नोटिफिकेशन नंबर 5960 के तहत जमशेदपुर को अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया गया था. 21 अगस्त 1989 को स्थानीय नागरिक जवाहरलाल शर्मा की ओर से दाखिल 1988 की रिट याचिका (सिविल) नंबर 154 की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने की थी. जस्टिस सब्यसाची मुखर्जी, एस. रंगनाथन और कुलदीप सिंह की इस पीठ ने रेखांकित किया था, ‘यह हमारे ध्यान में लाया गया है कि 1967 में बिहार और उड़ीसा नगर निगम अधिनियम 1922 की धारा 390A के तहत बिहार सरकार ने जमशेदपुर के अधिसूचित क्षेत्र को नगरनिगम में बदलने की मंशा जाहिर की थी. मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद 1973 में जमशेदपुर को नगरनिगम में बदलने का विचार रद्द कर दिया गया था हम इस पक्ष में हैं कि याचिका में उठाए गए बिंदुओं, तथ्यों और प्रस्तुतियों के आलोक में बिहार सरकार को इस मामले पर नए सिरे से विचार करना चाहिए. हम सरकार को निर्देश देते हैं कि वह इस तारीख से आठ सप्ताह के भीतर उक्त अधिनियम की धारा 390A के तहत जमशेदपुर को नगरनिगम में बदलने की मंशा की घोषणा के संबंध में एक अधिसूचना जारी करे.’
इसके बाद जमशेदपुर में नगरनिगम बनाने के लिए 23 नवंबर 1990 को बिहार और उड़ीसा नगरनिगम अधिनियम 1922 की धारा 390A के तहत एक अधिसूचना जारी की गई थी. हालांकि 11 जनवरी 1991 को टिस्को (टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड, जिसे अब टाटा स्टील के नाम से जाना जाता है) ने इस अधिसूचना को चुनौती देते हुए पटना उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दाखिल की, जिसके बाद न्यायालय ने अधिसूचना पर रोक लगा दी. फिर 11 मार्च 1992 को जमशेदपुर नोटिफाइड एरिया कमेटी (जेएनएसी) का गठन किया गया और न्यायालय ने 25 नवंबर 1992 को इस संबंध में स्थगन आदेश जारी कर दिया.
एक जून 1993 को जब संविधान का 74वां संशोधन प्रस्तुत किया गया, तब इसमें नगरनिगम/औद्योगिक नगर बसाने के लिए अनुच्छेद 243Q जोड़ा गया. यहां भी टाटा समूह का सर्वव्यापी प्रभाव काम कर रहा था. जमशेदपुर पश्चिम से पूर्व भाजपा सांसद सरयू रॉय इसे इस तरह से बताते हैं, ‘सरकार के शहरी विकास विभाग के उच्चतम स्तर के सबसे विश्वसनीय सूत्रों ने एक बार बताया था कि टाटा स्टील प्रबंधन संविधान के अनुच्छेद 243Q में औद्योगिक नगरी के नाम पर एक नई इकाई की शुरुआत चाहता था. यह तथ्य सच भी हो सकता है और नहीं भी, लेकिन जमशेदपुर में नगरपालिका को लेकर टाटा स्टील का विरोध जगजाहिर है.’
संविधान के 74वें संशोधन के अनुपालन में बिहार सरकार ने 30 मई 1994 को बिहार नगरपालिका अधिनियम में संशोधन करते हुए औद्योगिक नगर के प्रावधानों को जहां जैसी जरूरत थी वैसा प्रस्तुत किया. रॉय स्पष्ट करते हैं कि कैसे प्रावधान सिर्फ सांकेतिक बने रहे और व्यवहार में इनके कार्यान्वयन के लिए विशिष्ट नियम तैयार करने के बावजूद इन्हें लागू नहीं किया जा सका. रॉय के अनुसार, ‘किसी वृहत्तर नगरीय क्षेत्र के लिए नगरनिगम का गठन किया जाएगा, परंतु इस खंड के अधीन कोई नगरनिगम ऐसे नगरीय क्षेत्र या उसके किसी भाग में गठित नहीं की जा सकेगी जिसे राज्यपाल, क्षेत्र के आकार और उस क्षेत्र में किसी औद्योगिक स्थापना द्वारा दी जा रही या दिए जाने के लिए प्रस्तावित नगरनिगम सेवाओं और ऐसी अन्य बातों को, जो वह ठीक समझे, ध्यान में रखते हुए, लोक अधिसूचना द्वारा, औद्योगिक नगरी के रूप में विनिर्दिष्ट करे.’
आठ सितंबर 1998 को एक दूसरी अधिसूचना जारी की गई और 1992 में गठित किए गए जेएनएसी को खत्म कर दिया गया. 28 अप्रैल 2000 को पटना उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिलकर इस अधिसूचना को चुनौती दी गई. फिर न्यायालय ने राज्य सरकार को एक उपयुक्त अधिसूचना जारी करने का निर्देश देते हुए इस याचिका का निपटारा किया.
15 नवंबर 2000 को बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 लागूकर बिहार से एक नए राज्य झारखंड का गठन किया गया. इसके बावजूद जमशेदपुर के निवासियों से अछूतों की तरह व्यवहार जारी रहा. 2003 में जवाहरलाल शर्मा ने एक दूसरी रिट याचिका इस प्रार्थना के साथ दाखिल की कि राज्य जेएनएसी के स्थान पर एक नगरनिगम विधिवत रूप से गठित की जाए. इसके बाद मई 2005 में उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को नगरनिगम चुनाव कराने के निर्देश दिए. अगस्त 2005 में जब टाटा स्टील का पट्टा अगले 20 साल के लिए बढ़ाया गया, तो नगरनिगम सेवाएं देने के लिए कंपनी को शुल्क लगाने का अधिकार था. यह भारत के संविधान के भाग 11 के विपरीत था.
एक सदी से चल रहे इस खेल में राज्य सरकार ने जमशेदपुर को नगरनिगम घोषित करने के अपने इरादों से संबंधित एक अधिसूचना दिसंबर 2005 में जारी की. आठ दिसंबर 2005 को यह अधिसूचना आधिकारिक गजट में प्रकाशित की गई. जून 2006 में झारखंड उच्च न्यायालय ने रिट याचिका का निपटारा करते हुए मामला राज्य सरकार के पाले में डाल दिया.
हालांकि, उम्मीद के मुताबिक 10 अगस्त 2006 को टाटा स्टील ने रिट याचिका (सिविल) नंबर 517/06 में 23 जून 2000 को दिए गए निर्णय को चुनौती देते हुए विशेष अनुमति याचिका संख्या 14926/06 दाखिल की. इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने 25 सितंबर 2006 और 9 जनवरी 2008 को नोटिस जारीकर आदेश दिया कि जमशेदपुर में यथास्थिति बनाए रखी जाएगी.
जमशेदपुर में नगरनिगम के गठन को लेकर अपना प्रयास जारी रखते हुए शर्मा ने 1 मई 2008 को सुप्रीम कोर्ट में सीए संख्या 467/08 में कार्रवाई (आईए संख्या 3) के लिए आवेदन दायर किया. तब शीर्ष अदालत ने अक्टूबर 2008 में सुनवाई और आदेश के लिए याचिका प्रस्तुत करने का निर्देश दिया. हालांकि छह साल बाद भी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और जमशेदपुर के लोगों का इंतजार हमेशा की तरह जारी है.
72 वर्षीय शर्मा कहते हैं, ‘यह मामला सबसे लंबे समय तक चलने वाले मुकदमों में से एक है. जमशेदपुर में नागरिक अधिकारों की यह लड़ाई 1988 में हमने जेएनएसी की जगह नगरनिगम स्थापित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दाखिल करके शुरू की थी. इस साल कभी न खत्म होने वाली मुकदमेबाजी के 27 साल पूरे हो जाएंगे. टाटा स्टील के कार्य आपराधिक होने के साथ ही नगरपालिका की कार्यप्रणाली के संबंध में संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन भी है.’ उन्होंने कहा, ‘2005 में 30 साल के लीज एग्रीमेंट के नवीनीकरण के तहत 1996 से सर्वव्यापी प्रभाव के साथ टाटा स्टील सफाई, सड़क निर्माण और उसका रखरखाव, पानी की सप्लाई, पानी की पाइपलाइन के निर्माण, स्ट्रीट लाइट और बिजली जैसी तमाम जनसुविधाएं जमशेदपुर की जनता को देने के लिए कानूनन बाध्य है.’
हालांकि, चारों ओर अगर सरसरी निगाह डाली जाए जो पता चलाता है कि जमशेदपुर यूटिलिटीज एंड सर्विसेज कंपनी (जस्को) सिर्फ नाम के लिए ही नागरिक सेवाएं प्रदान कर रही है (2004 में जस्को, टाटा स्टील के नगर सेवा प्रभाग से ही अलग करके बनाई गई थी). मुकदमेबाजी में देरी की रणनीति अपनाने को लेकर टाटा स्टील के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई, जिसका असर ये हुआ कि इस विशालकाय इस्पात कंपनी को जस्को के जरिए जमशेदपुर के नागरिकों से जनसुविधाओं के नाम पर नए कर वसूलने का हौसला मिल गया.
नाम जाहिर न करने की शर्त पर एक दुकानदार ने बताया, ‘जस्को क्या सेवा प्रदान कर रही है? झारखंड जैसे पिछड़े राज्य में रहने के बावजूद हम यहां की सुविधाओं को उससे भी निचले स्तर पर पाते हैं. यहां किसी भी तरह की नागरिक सुविधा नहीं दी जा रही है. सब कुछ स्थानीय नागरिकों की ओर से खुद की पहल पर किया जा रहा है.’