शोर के बीच संसदीय चैनल

ऐसे समय में जब निजी चैनलों की चमक-दमक, भीड़-भाड़ और शोर-शराबे के बीच सार्वजनिक प्रसारण की भूमिका, प्रासंगिकता और जरूरत बढ़ती जा रही है, हमारे सार्वजनिक प्रसारक- दूरदर्शन और आकाशवाणी अपने ही कारणों से लोगों की पसंद और कल्पनाओं से बाहर होते जा रहे हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि वे सार्वजनिक प्रसारक कम और ऐसे सरकारी चैनल अधिक लगते हैं जिनकी कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता को नौकरशाही और निठल्लेपन की संस्कृति ने लील लिया है.

 इन दोनों ही चैनलों के सामने संसदीय बहसों और कार्रवाइयों की नियमित, तथ्यपूर्ण और  वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग की चुनौती होगी  

ऐसे में, सार्वजनिक प्रसारण के क्षेत्र में दो नए संसदीय चैनलों-पहले लोकसभा और अब राज्यसभा चैनल के आगमन ने नई उम्मीद पैदा की है. निश्चय ही, यह एक नया प्रयोग है जिसकी शुरुआत कोई पांच साल पहले लोकसभा चैनल के साथ हुई. इस दौरान लोकसभा चैनल ने कई सीमाओं के बावजूद एक अलग पहचान बनाई है. एक संसदीय चैनल होने के नाते जाहिर है कि लोकसभा चैनल से गंभीर, खुली और बेबाक चर्चाओं की अपेक्षा की जाती है. अच्छी बात यह है कि चैनल निराश नहीं करता. आपको इस पर ऐसी बहुतेरी गंभीर बहसें, चर्चाएं और इंटरव्यू दिख जाएंगे जो आम तौर पर निजी चैनलों और यहां तक कि अपने सार्वजनिक प्रसारक दूरदर्शन पर भी नहीं दिखते. सबसे खास बात यह है कि यहां शोर-शराबा कम और गहराई व गंभीरता ज्यादा होती है. उस पर कई अनछुए विषयों और मुद्दों पर आपको ऐसे विशेषज्ञों से इंटरव्यू और चर्चाएं देखने-सुनने को मिल जाएंगी जो निजी चैनलों पर अपवाद की तरह हैं. इस चैनल पर आपको निजी चैनलों पर चमकने वाले बहुतेरे चेहरे नहीं दिखाई देंगे लेकिन  अच्छी बात है कि इस पर आपको ऐसे बहुत-से चर्चाकार दिख जाएंगे जिनके बाल सफेद हो चुके हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किए हैं और यह चर्चाओं के स्तर से साबित भी होता है. 

लोकसभा चैनल की सफलता से प्रेरित होकर राज्यसभा चैनल ने भी बीते कुछ महीनों से 24 घंटे के चैनल के रूप में प्रसारण शुरू किया है. हालांकि इसे अभी कुछ ही महीने हुए हैं और यह उसके मूल्यांकन करने का उचित समय नहीं, लेकिन इसने इस मायने में उम्मीदें जगाई हैं कि इसमें एक नयापन है, अछूते विषयों को उठाने की तत्परता है और कई मामलों में यह लोकसभा चैनल से भी आगे जाता दिख रहा है. एक तो राज्यसभा चैनल का दायरा बड़ा है. वह समाचार से लेकर दैनिक चर्चाओं तक में और समसामयिक विषयों से लेकर कला/संगीत/सिनेमा/नृत्य पर कार्यक्रमों तक में झलक रहा है.  दूसरे, राज्यसभा चैनल का इस मौके पर शुरू होना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि पिछले एक-डेढ़ वर्षों से लोकसभा चैनल में एक थकान और ठहराव सा दिख रहा है. यह अच्छी बात है कि इसमें एक स्थायित्व आया है लेकिन चिंता की बात यह है कि उसमें और बेहतर करने और अपने को नए सिरे से खोजते और गढ़ते रहने की बेचैनी नहीं दिख रही. ऐसे ही कारणों से दूरदर्शन धीरे-धीरे दर्शकों की नजर से उतर गया था. उम्मीद है कि राज्यसभा चैनल के आने के बाद दोनों संसदीय चैनलों और यहां तक कि उनके और दूरदर्शन के बीच भी एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा शुरू होगी. यह जरूरी भी है. आशा है कि ये चैनल वास्तविक अर्थों में सार्वजनिक  प्रसारक की भूमिका निभाएंगे और निजी चैनलों के लिए भी ऊंचे मानदंड बनाएंगे. इस अर्थ में, इन दोनों ही चैनलों के सामने संसदीय बहसों और कार्रवाइयों की नियमित, तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग की चुनौती होगी. इन दोनों ही चैनलों से सबसे ज्यादा अपेक्षा यह है कि वे देश को सार्वजनिक महत्व के मुद्दों पर संसद के भीतर-बाहर चल रही बहसों और चर्चाओं से रूबरू कराएं, उन चर्चाओं में देश के अंदर मौजूद विभिन्न लोकतांत्रिक अभिव्यक्तियों को जगह दें और संसद व आम लोगों के बीच संवाद के नए सेतु बनाएं. 

इसके  साथ ही उनसे यह भी अपेक्षा  है कि वे सार्वजनिक प्रसारक के बतौर उन मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित करें जिन्हें निजी प्रसारक व्यावसायिक कारणों से अनदेखा करते हैं. इस मायने में उन्हें निजी चैनलों के व्यावसायिक एजेंडे से इतर एक सार्वजनिक एजेंडा खड़ा करने और उसे आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए. इसके लिए उन्हें याद रखना होगा कि वे सरकारी नहीं, संसदीय चैनल हैं और जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे से चलते हैं. इसलिए जैसे संसद में राजनीति और विचारों के स्तर पर विविधता और बहुलता दिखाई देती है, उससे ज्यादा विविधता और बहुलता इन चैनलों में दिखाई पड़नी चाहिए. 

यह  बात इसलिए कहनी पड़ रही है कि राज्यसभा चैनल में कई बार सरकार और खासकर सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति झुकाव दिखता है. यह एक ऐसी फिसलन है जिसके बाद संभलना बहुत मुश्किल हो जाता है. इन चैनलों को निजी चैनलों की नकल के लोभ से भी बचना होगा. ये दोनों ऐसे फंदे हैं जिनमें फंसकर दूरदर्शन और आकाशवाणी खत्म हो गए. दोनों संसदीय चैनलों के कर्ता-धर्ताओं को याद रखना होगा कि वास्तविक स्वतंत्रता और स्वायत्तता के बिना सृजनात्मकता संभव नहीं है.  इस मायने में आने वाले महीने दोनों चैनलों के लिए परीक्षा के होंगे कि वे नई राह बनाते हैं या दूरदर्शन की राह जाते हैं.