तकरार से होता बंटाधार

बिहार में उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रयास के तहत केंद्र सरकार ने राज्य को राष्ट्रीय स्तर के दो विश्वविद्यालय देने की घोषणा की थी. लेकिन राज्य और केंद्र सरकार में नाक की लड़ाई के कारण मामला लटका पड़ा है. इसका खामियाजा राज्य के छात्रों को भुगतना पड़ रहा है. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

किशनगंज के रुईधासा मैदान में 12 अक्टूबर को आयोजित रैली सीमाचंल इलाके में अपनी तरह की सबसे बड़ी रैलियों में से एक थी. इस रैली के बाद आंदोलनकारी सीमांचल को जोड़ने वाले सड़क और रेल मार्ग रोककर राज्य सरकार को चेतावनी दे रहे थे कि अगर किशनगंज में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की शाखा शुरू नहीं हुई तो आंदोलन राजधानी तक पहुंच जाएगा. आंदोलन शिक्षा के सवाल पर राज्य सरकार के खिलाफ था जिस मामले में नीतीश सरकार अपनी उपलब्धियों का डंका अकसर पीटती है. सरकार यह दावा करती रही है कि वह बदहाल शिक्षा व्यवस्था ठीक करते हुए शिक्षा के क्षेत्र में बिहार की खोई हुई गरिमा को फिर से वापस लाने के प्रयास में जुटी है. इस दावे के पक्ष में उसके पास नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार के अभियान, चाणक्य विधि विश्वविद्यालय की स्थापना जैसी ठोस दलीलें भी हैं.

एक तरफ राज्य सरकार अपने प्रयासों से नये-नये शिक्षण संस्थान खोलने में लगी है वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार के अरबों रुपये के सहयोग से राज्य में स्थापित किए जाने वाले शिक्षा केंद्रों के प्रति उसका रवैया ऐसा है कि कभी केंद्र सरकार तो कभी राज्य की जनता उसके खिलाफ आवाज उठाने लगती है. सवाल सिर्फ बिहार में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की शाखा खोले जाने को लेकर ही नहीं है. कुछ इसी तरह का विवाद केंद्रीय विश्वविद्यालय को लेकर भी है जो केंद्र और राज्य के बीच तकरार का ऐसा नमूना बना हुआ है जिसे साधारण शब्दों में नाक और मूंछ की लड़ाई कह सकते हैं. केंद्रीय विश्वविद्यालय के विवाद की गंभीरता का अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो साल से यह विश्वविद्यालय अपने लिए एक अदद छत के लिए जद्दोजहद कर रहा है. हद तो तब हो गई जब पिछले महीने पटना के जिस बीआईटी परिसर में केंद्रीय विश्वविद्यालय चल रहा है, वहां से उसे हटाने का नोटिस विश्वविद्यालय प्रबंधन को थमा दिया गया. इस नोटिस के बाद बीआईटी प्रबंधन और केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन सार्वजनिक तौर पर पक्ष और विपक्ष में बयानबाजियों की तलवार लेकर कूद पड़े. जो भी हो, केंद्रीय विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय-दोनों से जुड़े विवादों में किरकिरी राज्य सरकार की ही हो रही है.

केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के मकसद से केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम  2009 के तहत अन्य राज्यों के साथ-साथ बिहार की राजधानी पटना में भी केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना का फैसला लिया था. विश्वविद्यालय की शुरुआत पटना में कर भी दी गई. पठन-पाठन भी शुरू हो गया. लेकिन जब इस विश्वविद्यालय की स्थापना की बात चल रही थी, तभी से नीतीश कुमार यह कहते रहे हैं कि यह विश्वविद्यालय पटना की बजाय मोतिहारी में खोला जाएगा. इसके लिए राज्य सरकार ने मोतिहारी में जमीन भी उपलब्ध करा दी. लेकिन केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थल चयन समिति ने मोतिहारी में मुहैया कराई जाने वाली भूमि को अस्वीकार करते हुए कहा कि इसके लिए पटना में जमीन उपलब्ध कराई जाए. समिति ने इस संबंध में तर्क दिया कि मोतिहारी में विश्वविद्यालय के अनुकूल बुनियादी सुविधायें नहीं हैं. चयन समिति के इस तर्क के बाद से ही राज्य और केंद्र सरकार के बीच विश्वविद्यालय के लिए स्थान चयन के विवाद की शुरुआत हो गई. बीते अप्रैल में तो नीतीश ने साफ कह दिया कि विश्वविद्यालय मोतिहारी में ही खुलेगा.

नीतीश कई बार कह चुके हैं कि कुछ लोग अपने हितों के लिए मामले को राजनीतिक रंग देने पर तुले हैं

जब नीतीश ने यह बयान दिया उन्हीं दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल आईआईटी के नये परिसर का शिलान्यास करने पटना आने वाले थे. सिब्बल पटना आए और उन्होंने नीतीश के बयान पर पलटवार करते हुए कहा कि केंद्रीय विश्वविद्यालय और उससे जुड़े शिक्षकों के लिए जिन बुनियादी सुविधाओं की जरूरत है वे मोतिहारी में संभव नहीं हंै. ऐसी स्थिति में राज्य सरकार को मोतिहारी का नाम रटने की बजाए पटना में भूमि की व्यवस्था करनी पड़ेगी.

नीतीश और सिब्बल की बयानबाजी केंद्र और राज्य सरकार के बीच मंूछ की लड़ाई बनती चली गई, जिसका सीधा असर इस विश्वविद्यालय के अस्तित्व पर ही पड़ता दिखने लगा है. यह मामला आपसी बयानबाजियों तक ही नहीं रुका. स्थितियां तब और विकट हो गईं जब इसी क्रम में बीआईटी प्रबंधन ने केंद्रीय विश्वविद्यालय को अपने परिसर से हटने का नोटिस भेज दिया. इस नोटिस के बाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का विवाद राज्य और केंद्र सरकारों के बाद अब बीआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन तक पहुंच गया. स्थितियां इतनी दयनीय हो गईं कि केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्रों का शैक्षिक भविष्य ही सवालों के घेरे में आ गया. इतना ही नहीं, केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति जनक पांडे इन विवादों से इतना खिन्न हुए कि उन्होंने बीआईटी प्रबंधन को यहां तक चुनौती दे डाली कि वह विश्वविद्यालय को अपने परिसर से हटा कर देखे. पांडेय के इस तेवर के बाद बीआईटी प्रबंधन ठंडा तो पड़ गया पर यह विवाद खत्म नहीं हुआ. पांडेय कहते हैं, ‘विश्वविद्यालय कोई सब्जी मंडी नहीं है कि उसे जब चाहा जाए एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठा कर पहुंचा दिया जाए.’

केंद्रीय विश्वविद्यालय को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच छिड़ी मूंछ की लड़ाई अभी शांत तो जरूर है पर दोनों सरकारें अपने-अपने तर्क पर अब भी अड़ी हैं. राज्य सरकार अपनी इस जिद पर अड़ी है कि वह इस विश्वविद्यालय को हर हाल में मोतिहारी में ही शिफ्ट कराकर दम लेगी. जबकि केंद्र सरकार अपने इरादे से टस से मस नहीं होते हुए बार-बार स्पष्ट करती रही है कि राज्य सरकार पटना या उसके आसपास ही विश्वविद्यालय के लिए जमीन उपलब्ध कराए.  राज्य और केंद्र सरकार की आपसी तकरार से राज्य को ही नुकसान उठाना पड़ रहा है.

ठीक इसी तरह का दूसरा मामला अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की शाखा को लेकर भी है. 2008 में केंद्र सरकार ने फातमी कमेटी की सिफारिश के मद्देनजर देश भर में  पांच अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की शाखा खोलने का फैसला लिया था. इसके तहत केंद्र सरकार ने बिहार के किशनगंज में राज्य सरकार से 250 एकड़ जमीन उपलब्ध कराने को कहा. लेकिन पिछले तीन साल में इस विश्वविद्यालय का अस्तित्व अभी तक सामने नहीं आ सका है. जबकि इसी फैसले के तहत पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में अलीगढ़ विश्वविद्यालय की शाखाओं ने काम भी करना शुरू कर दिया है. बिहार सरकार ने कोई दो साल की हीलाहवाली के बाद किशनगंज के अलग-अलग स्थानों पर 250 एकड़ जमीन देने की घोषणा तो की पर अलीगढ़ विश्वविद्यालय प्रशासन टुकड़ों में जमीन आवंटन को अस्वीकार करते हुए इसे एक जगह उपलब्ध कराने की बात पर अड़ गया. तभी से विश्वविद्यालय की शाखा खोलने का मामला राजनीतिक रंग लेने लगा. जहां सत्ताधारी जेडीयू की सहयोगी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने खुद पर्दे के पीछे से अपने छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा विश्वविद्यालय की शाखा स्थापना का ही मुखर विरोध करवाने लगी वहीं राजद और कांग्रेस जैसी विरोधी पार्टियां इस मामले में ढिलाई बरतने का आरोप लगाते हुए राज्य सरकार के खिलाफ आंदोलन करने लगीं. किशनगंज शिक्षा आंदोलन के बैनर तले किशनगंज से लेकर दिल्ली तक धरने-प्रदर्शन होने लगे. इस आंदोलन में किशनगंज के कांग्रेसी सांसद इसरारुल हक कासमी और राजद विधायक अख्तरुल ईमान ने राज्य सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. ईमान कहते हैं, ‘राज्य सरकार की नीतियों के कारण पूरे बिहार की शिक्षा व्यवस्था चौपट हो गई है. और जब केंद्र शैक्षिक रूप से सबसे पिछड़े किशनगंज में अलीगढ़ विश्वविद्यालय के जरिए शिक्षा का विकास करना चाहता है तो राज्य सरकार अडंगा डाल रही है.’

उधर, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई बार कह चुके हैं कि कुछ लोग इस मामले पर राजनीति कर रहे हैं. 10 अक्टूबर को इस प्रकरण में अचानक एक नया मोड़ तब आया जब राज्य के मानव संसाधन विभाग के मंत्री पीके शाही ने कहा कि अभी तक इस विश्वविद्यालय को खोलने के लिए राष्ट्रपति की तरफ से मंजूरी नहीं मिली है. इसके बाद विरोधी राजनीतिक दलों ने राज्य सरकार की मंशा पर ही सवाल खड़ा कर दिया. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव तारिक अनवर नियमों का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘राज्य सरकार को इस तरह का बयान देने से पहले समझना चाहिए कि विश्वविद्यालय को जमीन उपलब्ध करा देने के बाद ही राष्ट्रपति की तरफ से मंजूरी की व्यवस्था है.’

राज्य में दो बड़े शिक्षा केंद्र स्थापित किए जाने के मामले में राज्य और केंद्र सरकार की जो भी राजनीतिक मंशा हो पर यह तो साफ दिखता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए स्थान चयन और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के भूमि आवंटन का विवाद केंद्र और राज्य सरकारों के बीच मूंछ की लड़ाई बन गया है जिसका खामयाजा बिहार के छात्रों को ही भुगतना पड़ रहा है. नतीजा यह है कि राज्य राष्ट्रीय स्तर के दो विश्वविद्यालय पाने से वंचित हो रहा है.