
वशिष्ठ नारायण सिंह बिहार में जदयू के प्रदेश अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद हैं. उन्हें वशिष्ठ बाबू या दादा कहकर पुकारा जाता है. वे लालू यादव के प्रिय हैं और नीतीश कुमार के भी विश्वासपात्र हैं. वे धाराप्रवाह बोलने के लिए जाने जाते हैं लेकिन 30 दिसंबर को वे अचानक बोलते-बोलते रुक गए और फिर संतुलित होते हुए बात को पूरा किया.
उस रोज वे बिहार में अपराध पर भाजपा द्वारा सरकार पर दागे जा रहे ताबड़तोड़ सवालों और राजद के मुखिया लालू प्रसाद द्वारा निर्देश देने के अंदाज में नीतीश को अपराध पर लगाम लगाने के लिए दी गई नसीहत के बाद अपनी बात रख रहे थे. वशिष्ठ नारायण सिंह एकसुर में कह रहे थे, ‘नीतीश सुशासन के लिए ही जाने जाते हैं, उनके सुशासन मॉडल से पूरा देश सीख ले रहा है. नीतीश के पहले बिहार में सामाजिक जकड़न का आलम था, नीतीश ने उससे पार पाया है. इसलिए सुशासन के मसले पर हमें, हमारे दल या नीतीश को, किसी को भी नसीहत देने की जरूरत नहीं.’ इतना बोलने के बाद वे रुक गए और फिर ‘खासकर भाजपा और उसके कुनबे को नसीहत देने की जरूरत नहीं’ कहकर अपनी बात खत्म की.
वशिष्ठ नारायण सिंह लालू प्रसाद द्वारा अपराध नियंत्रण के बहाने सुशासन कायम करने के लिए नीतीश को दी गई नसीहत का जवाब देते हुए लालू पर निशाना साध गए. फिर उन्हें लगा कि वे ज्यादा बोल गए और उन्होंने भाजपा वाली बात जोड़कर बयान को संतुलित करने की कोशिश की कि वे नीतीश को नसीहत न दे. अगले दिन इस बयान को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी यह कहकर संतुलित करने की कोशिश की कि लालू प्रसाद यादव सही कह रहे हैं, सुशासन कायम करना हमारी पहली प्राथमिकता है, हम वैसा करेंगे.
दो इंजीनियरों की हत्या के बाद से नीतीश के लिए बड़ी चुनौती यह साबित करने की है कि लालू या राजद के साथ जाने से उनके कामकाज पर कोई फर्क नहीं पड़ा है
खैर, नीतीश कुमार और वशिष्ठ नारायण सिंह ने जिस तरह की समझदारी दिखाई वैसी जदयू व राजद के दूसरे नेता नहीं दिखा पाए. वे सीधे-सीधे भिड़ गए. ऐसा लगा मानो वे भूल गए हों कि अब वे पिछले एक दशक की तरह एक-दूसरे के जानी दुश्मन नहीं बल्कि जिगरी दोस्त बन चुके हैं. दोनों दल साथ मिलकर बिहार की सरकार चला रहे हैं. सबसे बड़ी भिड़ंत राजद के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह और जदयू के प्रवक्ता संजय कुमार सिंह के बीच हुई. रघुवंश प्रसाद ने कहा कि बिहार में सरकार के 41 दिन हो गए हैं और काम के नाम पर पासिंग मार्क देने की भी स्थिति नहीं. उन्होंने यह भी कह डाला कि जनता जानती है कि सरकार चलाने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री की होती है इसलिए वह अपराध पर नियंत्रण करें. रघुवंश प्रसाद ने सरकार के साथ सीधे-सीधे नीतीश को भी निशाने पर लिया तो जदयू की ओर से प्रवक्ता संजय प्रसाद सिंह ने जवाब देते हुए कहा कि रघुवंश प्रसाद सिंह सठिया गए हैं. लोकसभा चुनाव में रमा सिंह से हारने के बाद औकात का अंदाजा हो गया है इसलिए उनके दिमाग पर असर हुआ है और वे डिरेल्ड हो गए हैं.
इस बहस से मामला गरम हो गया तो लालू प्रसाद बीच-बचाव में उतरे. उन्होंने रघुवंश प्रसाद सिंह को तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उन्होंने जदयू प्रवक्ता संजय सिंह को सार्वजनिक तौर पर डपटते हुए कहा कि महानुभाव नेता, विशेषकर प्रवक्ता, जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए अल-बल बोलते रहते हैं, वे परहेज करें और बोलना नहीं आता तो अपने घर में सोएं. लालू प्रसाद ने संजय सिंह को नसीहत देकर यह भी कहा कि आपस में झगड़ रहे नेताओं को मालूम नहीं है कि भाजपा वाले इससे कितने खुश हो रहे हैं.
लालू प्रसाद की यह चिंता वाजिब भी थी, क्योंकि इस पूरे झगड़े का भाजपा ने भरपूर मजा लिया. भाजपा नेता सुशील मोदी हंसते हुए कहते हैं, ‘लोग देख ही रहे हैं कि बिहार में सुपर सीएम कौन है? नीतीश तो बस 14 मंत्रियों के मुख्यमंत्री हैं लेकिन लालू 16 मंत्रियों के साथ सुपर सीएम बने हुए हैं और वे रिमोट से सरकार चला रहे हैं. इसलिए बढ़ते हुए अपराध पर उन्होंने नीतीश को सलाह या सुझाव न देकर, आदेश जैसा दिया.’ भाजपा की ओर से मजा सिर्फ सुशील मोदी ने ही नहीं, कई और लोगों ने भी लिया.
कुछ दिनों बाद अब फिर से दोनों पक्षों में शांति है. नीतीश कुमार समीक्षा बैठक आदि कर फिर से सरकार को पटरी पर लाने की कोशिश में लग गए. वे चाह रहे हैं कि जनता का ध्यान बढ़ते अपराधों के मुद्दे से हटकर विकास की योजनाओं पर रहे लेकिन दरभंगा में दो इंजीनियरों की दिनदहाड़े हत्या और उसके तुरंत बाद पूर्णिया के बौंसी कांड ने राज्य में बढ़ते अपराध के संकेत दे दिए हैं. बौंसी में जो कुछ भी हुआ उसे पश्चिम बंगाल के मालदा में हुई घटना का विस्तार माना जा रहा है. बौंसी में एक संप्रदाय विशेष के लोगों ने धार्मिक आधार पर थाने को आग के हवाले किया और जमकर उत्पात मचाया. संभव है कुछ दिनों बाद इस मामले पर बातचीत बंद हो जाए, लेकिन दो इंजीनियरों की हत्या का मामला इतनी जल्दी दब जाएगा, इसके आसार नहीं दिख रहे. यह मामला अभी चर्चा का विषय है. नीतीश कुमार की लाख कोशिशों के बावजूद इस पर बहस बंद नहीं होने वाली, क्योंकि दरभंगा की इस घटना के बाद बिहार में एक के बाद एक कई घटनाएं हुई. दरभंगा कांड के ठीक अगले दिन समस्तीपुर में एक डॉक्टर के यहां गोलीबारी और आरा-छपरा के बीच गंगा नदी पर बन रहे पुल को नक्सलियों द्वारा लेवी (धन उगाही) के लिए उड़ाने की कोशिश जैसी घटनाएं भी हुईं. इन घटनाओं का सार ये है कि बिहार में सुशासन की लय लड़खड़ा गई है.
दरभंगा की घटना को लेकर नीतीश कुमार और उनके सुशासन के मॉडल को क्यों कठघरे में खड़ा किया जा रहा है, इसे समझने की जरूरत है. दरभंगा में एक निर्माण कंपनी के दो इंजीनियरों को संतोष झा गिरोह के सरगना मुकेश पाठक ने रंगदारी नहीं देने के आरोप में दिनदहाड़े गोलियों से भून डाला. इस हत्या के बाद निर्माण कंपनी चड्ढा एंड चड्ढा ने साफ कह दिया था कि वह ऐसे हालात में काम करने को तैयार नहीं और अगर काम करना है तो फिर सरकार त्रिस्तरीय सुरक्षा व्यवस्था का इंतजाम करे. सरकार आननफानन में राजी हो गई. सरकार के पास दूसरा रास्ता नहीं था, क्योंकि बात सिर्फ एक दरभंगा कांड या चड्ढा एंड चड्ढा कंपनी की नहीं थी. यह कंपनी बिहार के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस कंपनी के साथ बिहार सरकार ने 123 किलोमीटर सड़क निर्माण का करार किया है, जो 725 करोड़ रुपये का है.