मौन मोदी !

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26 मई, 2014 को जब भारत के राष्ट्रपति ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई तब देश एक ऐसे नेता की उम्मीद कर रहा था जो उनके साथ संवाद करे क्योंकि उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह पर अपने कार्यकाल के दौरान मौन रहने का आरोप लगता रहा था. नरेंद्र मोदी खूब बोलने के लिए जाने जाते हैं. इसके अलावा वे जनता के साथ संवाद के लिए नए माध्यमों का भी जमकर इस्तेमाल करते हैं. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि पर उनकी सक्रियता जगजाहिर है. प्रधानमंत्री बनने के बाद से वे रेडियो पर मन की बात भी लगातार सुना रहे हैं. मजेदार बात यह है कि पिछले 21 महीनों में प्रधानमंत्री ने इतने भाषण दिए कि चुटकुले बनाए जाने लगे थे. कुछ का कहना है कि इसके पहले के प्रधानमंत्री कभी बोलते ही नहीं थे और एक मोदी जी हैं कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. लेकिन यह सिक्के का एक पहलू है.

इसका दूसरा पहलू यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के दरम्यान उन तमाम मसलों पर चुप्पी साधे रखी जिन पर लाेगों ने उनसे बोलने की उम्मीद लगा रखी थी. यानी प्रधानमंत्री का संवाद एकतरफा रहा और वे उन तमाम मुद्दों पर कुछ नहीं बोले जिन पर इस दौरान देश में बहसें चल रही थीं. हालांकि इस बीच उनके ही पार्टी के अध्यक्ष, नेता, मुख्यमंत्री और कैबिनेट सहयोगी इन तमाम मसलों पर ऊलजलूल बयान देते रहे. फिर चाहे वह मसला हालिया हरियाणा जाट आरक्षण हिंसा, जेएनयू विवाद, रोहित वेमुला, दादरी, असहिष्णुता से लेकर पाकिस्तान में पटाखे फूटने और मसला ‘रामजादे-हरामजादे’ का ही क्यों न रहा हो. इस पर जब प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाए गए तो ऐसे आरोपों को उन्होंने विपक्ष की साजिश करार दिया.

हाल ही में एक जनसभा में वे कहते हैं, ‘कुछ लोगों को मेरा प्रधानमंत्री बनना हजम नहीं हो रहा है. उन्हें ये हजम नहीं हो रहा है कि एक चायवाला प्रधानमंत्री बन गया. जिस दिन से हमने इन लोगों की विदेशी फंडिंग की डीटेल मांगनी शुरू की है, इन्होंने मेरे खिलाफ गैंग बना लिया है और चिल्ला रहे हैं- मोदी को मारो, मोदी को मारो. अब हर रोज मेरी छवि खराब करने और मुझे खत्म करने की कोशिश हो रही है.’

हालांकि इस मसले पर ज्यादातर राजनीतिक चिंतक प्रधानमंत्री से इतर राय रखते हैं. राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘मोदी की चुप्पी जानी-बूझी रणनीति का हिस्सा है. रणनीति यह है कि विवादास्पद मुद्दों, विचारधारा के मुद्दों, सांप्रदायिक मुद्दों समेत जो भी पॉलिटिक्स का डर्टी जॉब है वह दूसरे लोग करते हैं. मोदी इस पर चुप रहते हैं. वे केवल चुनाव में भाषण देते हैं या तथाकथित विकास के मसले पर बयान देते हैं. यह उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले ही दिन से जारी है. लाल किले से भाषण के दौरान वे कहते हैं कि दस साल के लिए इन मुद्दों को कूड़ेदान में डाल देना चाहिए. इस तरह के मुद्दों पर पाबंदी लगा देनी चाहिए, लेकिन भाजपा के केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक ऐसे मसलों पर लगातार बयानबाजी कर रहे हैं. हालांकि अब इस रणनीति की पोल खुल चुकी है. सबको इसका मतलब समझ में  आने लगा है.’

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शाहनवाज हुसैन, भाजपा प्रवक्ता
शाहनवाज हुसैन, भाजपा प्रवक्ता

प्रधानमंत्री पर चुप रहने का आरोप लगाना पूरी तरह तथ्य से परे है. भाजपा और सरकार के प्रवक्ता जो भी बोलते हैं उस पर पार्टी व प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति होती है. अब प्रधानमंत्री जिन मसलों पर बोलते हैं वह विपक्ष को सूट नहीं करता है, वह इस तलाश में रहता है कि प्रधानमंत्री से क्या छूट गया है उसे मुद्दा बनाया जाए. अब सरकार और पार्टी के प्रवक्ता भी तो हैं, जो प्रधानमंत्री से अलग आवाज नहीं हैं. प्रधानमंत्री हर मसले पर अपना बयान नहीं दे सकते हैं. अगर विपक्ष को प्रवक्ताओं की बात नहीं सुननी है तो वह भी अपने प्रवक्ताओं को हटा दे, सोनिया गांधी या दूसरे बड़े नेता ही हर मसले पर बोला करें. जहां तक बात भाजपा नेताओं की बयानबाजी की है तो जो पार्टी लाइन का बयान है वह प्रवक्ता देते रहते हैं. जिन लोगों ने निजी रूप से बयान दिया है, पार्टी ने उसका खंडन किया है. पार्टी ने हमेशा हर मसले पर अपनी राय साफ जाहिर की है.
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वहीं, लेखक सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘जब जगह-जगह पर संविधान की अवहेलना हो रही है, कभी वकील हमला कर रहे हैं, कभी दादरी जैसी घटनाएं हो रही हैं. तो ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मौन एक सूचक मौन है. अब लोग यह भी सवाल उठा सकते हैं कि प्रधानमंत्री हर मसले पर क्यों बोलेंगे. लेकिन मेेरे ख्याल से जो व्यक्ति जिम्मेदारी के पद पर, संवैधानिक पद पर बैठा हुआ है वह ऐसे समय मौन रहता है जब उसके सामने तमाम घटनाएं घटित हो रही हों तो यह सूचक मौन है. यह लोकतंत्र के लिए चिंताजनक स्थिति है.’ बहरहाल इस दौरान दूसरे तमाम मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संवाद तो जारी रहा, लेकिन वे उन कुछ चुनिंदा मसलों पर टिप्पणी करने से बचते रहे या जानबूझकर देरी करते रहे जिनसे उनकी पार्टी का हित टकरा रहा था.

लेखक और पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘जहां तक इस दौरान हुए विवादों की बात रही तो इस दौरान दो तरह के विवाद रहे. कुछ ऐसे विवाद रहे जिनका निपटारा सही ढंग से नहीं हुआ. दूसरे ऐसे विवाद रहे जिन्हें राजनीतिक वजहों से विवादित बनाया गया. ऐसे में मोदी की चुप्पी रणनीति के तहत रही. सुषमा, वसुंधरा या दादरी का मसला पहली तरह का विवाद रहा, जहां मोदी चाहकर भी कुछ नहीं बोल पाए. दूसरा जेएनयू का मसला था, इसको राजनीतिक वजहों से विवादित किया गया. इसमें भी सत्ताधारी दल फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है. अब इंग्लैंड में प्रधानमंत्री के ऊपर राष्ट्रीय मसलों पर बोलने का नैतिक दबाव होता है, लेकिन कोई नियम, कायदा या कानून नहीं होता है. ठीक वैसा ही भारत में भी है. अब जेएनयू के मसले पर मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के संसद में दिए गए बयान को प्रधानमंत्री सत्यमेव जयते लिखकर ट्वीट करते हैं तो यह साफ होता कि वे उस बयान से सहमत होते हैं. अगर हम यह कहते हैं कि प्रधानमंत्री जेएनयू के मसले पर चुप हैं तो ऐसा कहते वक्त हम सिर्फ तकनीकी रूप से बात कर रहे होते हैं, जबकि प्रधानमंत्री अपनी मंशा जाहिर कर चुके होते हैं.’

राशिद किदवई की बात से हम सहमत भी हो सकते हैं, क्योंकि हमारे लोकतंत्र में सामूहिक जिम्मेदारी की प्रणाली विकसित की गई है. देश के ज्यादातर प्रधानमंत्री बहुत मुखर नहीं रहे हैं. लेकिन क्या वाकई में प्रधानमंत्री लोगों की उम्मीदों पर खरे उतर रहे हैं? किदवई कहते हैं, ‘किसी भी सरकार के कार्यकाल के दौरान बहुत सारे उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. मोदी कई बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके थे, साथ ही बहुत दिनों बाद पूर्ण बहुमत की सरकार आई थी इसलिए लोगों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थीं. हालांकि प्रधानमंत्री रहने के दौरान वे विपक्ष को साथ लेकर सदन को सुचारू रूप से चलाने में असफल रहे हैं.’

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रणदीप सुरजेवाला, कांग्रेस प्रवक्ता
रणदीप सुरजेवाला, कांग्रेस प्रवक्ता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केवल उन मुद्दों पर बोलते हैं जो उन्हें राजनीतिक तौर पर सुविधाजनक लगते हैं. देश के प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को निभाने में वे पूरी तरह से नाकाम रहे हैं. नफरत फैलाने वाले, बांटने वाले, विभाजनकारी और विघटनकारी एजेंडे का वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन करते दिखते हैं. इसके लिए वे या तो चुप्पी साध लेते हैं या अपनी परोक्ष सहमति से बांटने वाली ताकतों को प्रोत्साहित करते हैं. यह भी पूरे देश ने देखा कि बांटने वालों के सरगना संजीव बालयान, साध्वी निरंजन ज्योति, साक्षी महाराज, राजकुमार सैनी, योगी आदित्यनाथ, गिरिराज सिंह आदि को प्रधानमंत्री ने अच्छे पदों और पुरस्कारों से नवाजा है. यह सूची काफी लंबी है और बढ़ती जा रही है. इसका संदेश बहुत ही स्पष्ट है- फूट डालो और राज करो. देश को बांटो, शासन करो. नफरत फैलाओ, विभाजन करो और शासन करो.
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वहीं वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ‘पिछले कुछ समय में मोदी ने जिस तेजी से लोकप्रियता के शिखर को छुआ था, उतनी ही तेजी से वह घट रही है. आम आदमी को रोटी खाने से मतलब होता है, लेकिन अ​भी तक अच्छे दिन का वादा जुमला साबित हुआ है. सरकार ने इस दौरान सिर्फ विघटनकारी और विभाजनकारी एजेंडे पर जोर-शोर से काम किया है. बाकी तमाम मुद्दे पीछे रह गए हैं. देश में किसान बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं. मजदूरों के पास काम नहीं है. मध्यवर्ग महंगाई से त्रस्त है. ऐसे में उनकी छवि पर भी लगातार सवाल उठे हैं. वे एक कमजोर प्रशासक साबित हो रहे हैं.’

जेएनयू के प्रो. सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘मोदी की भूमिका बहुत साफ है कि वे सभी मसलों पर मौन हैं. संसद में स्मृति ईरानी के भाषण को उन्होंने बहुत सराहा. मतलब साफ है कि सरकार की जो लाइन है, पार्टी की जो लाइन है, उससे वे सहमत हैं और उसके साथ हैं. देश भर में उपद्रवी तत्व अगर उत्पात मचाते हैं और सरकार कुछ नहीं बोलती तो समझना चाहिए कि उनको सरकार का समर्थन है.’

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केसी त्यागी, जदयू प्रवक्ता
केसी त्यागी, जदयू प्रवक्ता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन सारे मसलों पर चुप्पी साधे बैठे हैं जो उनकी राजनीतिक विचारधारा के करीब हैं. घर वापसी, बीफ, दादरी, जेएनयू, रोहित मसले पर उनकी चुप्पी है, बाकी दिन भर दहाड़ते ही रहते हैं. जो मसले सांप्रदायिक तनाव बढ़ाते हैं, लोगों को बांटते हैं, उनके जो मंत्री ‘हरामजादे’ जैसे बयान देते हैं, जो लोगों को पाकिस्तान भेजते हैं, उन पर भी मोदी चुप्पी साधे रहते हैं. दरअसल वे चाहते हैं कि ऐसे मसले उठते रहें. वरना जिसकी मर्जी पर स्टाफ में प्यून तक रखे जाते हैं, वह एक बार कह दे कि खबरदार कोई नहीं बोलेगा, तो शायद ही कोई बोले. पर वे खुद ही चाहते हैं कि धार्मिक ध्रुवीकरण होता रहे. इसलिए उद्देश्यपूर्ण चुप्पी धारण किए रहते हैं. गोधरा दंगे के चलते उन्हें दो बार गुजरात की कुर्सी मिल गई थी, इसलिए वे देश में भी ऐसा करना चाह रहे हैं. इसलिए धार्मिक उन्माद को रोकने की कोशिश ही नहीं की जा रही है. वरना कोई मंत्री या सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष यह बयान कैसे दे सकता है कि यदि बिहार में जदयू जीत गई तो पाकिस्तान में पटाखे छूटेंगे? क्या हम पाकिस्तान के नागरिक हैं? साध्वी निरंजन ज्योति यह बयान कैसे दे सकती हैं कि जो हमें वोट दे रहे हैं वे रामजादे हैं बाकी सब बास्टर्ड हैं. अगर नेता न चाहे तो कोई ऐसा बयान दे ही नहीं सकता है. लेकिन मोदी खुद ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने के लिए ऐसे बयानों को मौन सहमति देते हैं.
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हालांकि वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय इससे इतर राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘शुरू से ही पूरा विपक्ष मोदी को निशाने पर लिए हुआ है. वह यह पचा नहीं पा रहा है कि मोदी प्रधानमंत्री हैं. कोई छोटी-सी भी बात हो तो एक मांग उठती है कि इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोलें. कई बार घटनाएं इतनी छोटी रहती हैं कि प्रधानमंत्री को बोलने की कोई जरूरत नहीं होती है. जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा में यह बात कई बार कही है कि सरकार या प्रधानमंत्री को जनता ने कुछ करने के लिए चुना है और विपक्ष को बोलने के लिए चुना है. इसका मतलब विपक्ष को बोलने का हर अवसर मिलना चाहिए और सरकार को काम करने का हर अवसर मिलना चाहिए, लेकिन यहां हम पा रहे हैं कि विपक्ष मोदी को बोलने के लिए ज्यादा मजबूर कर रहा है और काम करने का पूरा मौका भी नहीं देना चाहता है. अपने यहां संसदीय लोकतंत्र की जो परिपाटी बनी है उसका पिरामिड उल्टा हो गया है. विपक्ष को लगता है कि प्रधानमंत्री हर छोटी बात पर बोलें. वे बोलेंगे तो गलती भी करेंगे और गलती पर वह मुद्दा बनेगा. ये विवेक भी शायद विपक्ष के पास नहीं है कि किस बात पर प्रधानमंत्री को बोलना चाहिए और किस बात पर उनके बोलने की जरूरत नहीं है. मेरे हिसाब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास यह विवेक है कि उन्हें कब बोलना चाहिए और कब चुप रहने की जरूरत है.’

राम बहादुर राय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी को सही बताते हुए संसदीय लोकतंत्र का सहारा लेते हैं. साथ ही वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उद्धृत करते हुए कहते हैं, ‘जहां तक बोलने की बात है तो वाजपेयी जी अक्सर कहा करते थे कि बोलने के लिए सिर्फ बुद्धि की जरूरत होती है और चुप रहने के लिए बुद्धि व विवेक दोनों की जरूरत होती है. नरेंद्र मोदी अगर चुप हैं तो वे अपनी बुद्धि और विवेक के कारण चुप हैं. ऐसा भी नहीं है कि प्रधानमंत्री चुप्पा हो गए हैं. जब उन्हें ठीक लगता है तो वे बोलते हैं. प्रधानमंत्री पर चुप्पी का आरोप लगाने वाले विपक्ष से मेरा एक सवाल है कि आप संसदीय प्रणाली में रह रहे हैं या फिर राष्ट्रपति प्रणाली में जी रहे हैं. यह सही बात है कि 2014 का आम चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव की तर्ज पर लड़ा गया. इसके बावजूद हम संसदीय लोकतंत्र में रह रहे हैं. संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री के अलावा मंत्रिमंडल, राज्यों के मुख्यमंत्री, सरकारी प्रवक्ता बहुत सारे लोग हैं. ऐसे में किसी मामले पर प्रधानमंत्री बोले या फिर उनका मंत्री या कोई प्रतिनिधि अगर बयान देता है तो वह भी ठीक होता है. अमेरिका में यह हो सकता है कि आप हर बात के लिए ओबामा की तरफ देखें और वे उसका जवाब दें. हमारे यहां संसदीय लोकतंत्र में इसकी जरूरत नहीं है. भारत में इसके पहले भी जो प्रधानमंत्री थे वे संबंधित मंत्रालयों और विभागों के मुखिया को ही संसद के अंदर व बाहर जवाब देने के लिए कहते रहे हैं. हमने लोकतंत्र में सामूहिक जिम्मेदारी की प्रणाली विकसित की है. ऐसा इसलिए भी होता है.’

हालांकि इसके साथ ही एक सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी ही पार्टी के नेताओं और अपनी ही सरकार के मंत्रियों के ऊटपटांग बयानों से बेखबर हैं? यदि नहीं, तो फिर उन्होंने आज तक इन बयानों की आलोचना क्यों नहीं की? यदि भाजपा दादरी कांड समेत अन्य घटनाओं के विरुद्ध है, तो उसने अपने विधायकों और सांसदों पर लगाम क्यों नहीं कसी? इसके पहले भी उसके अनेक नेता सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने वाले बयान देते रहे हैं लेकिन पार्टी ने कभी उन पर किसी तरह का अंकुश नहीं लगाया. क्या शीर्ष नेताओं का सिर्फ यह कह देना पर्याप्त है कि पार्टी ऐसी घटनाओं के विरुद्ध है? क्या इससे यह जाहिर नहीं होता है कि पार्टी जानबूझकर वोटबैंक के लिए ऐसे तत्वों को बढ़ावा दे रही है?

अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘यह सिर्फ वोट बैंक की राजनीति नहीं है. यह एक से अधिक घोड़ों की सवारी करने की कोशिश है. एक तरफ हम देखेंगे कि विकास के मसले पर भी सरकार काम करती रहेगी और सांप्रदायिक मुद्दे पर भी सरकार काम करती रहेगी. जब चुनाव नजदीक आएंगे तो रणनीतिकार बैठकर सोचेंगे कि कौन-सा मुद्दा काम करेगा. इसलिए सारे मसलों को जिंदा करके रखो. रणनीतिकार अगर देखेंगे कि विकास से लोग नाखुश हैं तो सांप्रदायिकता के कार्ड को आगे बढ़ा देंगे. जहां तक भाजपा सांसदों, विधायकों और नेताओं द्वारा की जाने वाली फूहड़ बयानबाजी का सवाल है तो वे यह मानते हैं कि उदारवादी लोगों को ये बातें भले ही खराब लगंे, लेकिन उनका जो जनाधार है उसके मन में इस तरह के बयानों से गुदगुदी होती है. जब हम भाजपा की आलोचना करते हुए कहते हैं कि वह सांप्रदायिक है तो हमें लगता है कि हमने आलोचना की, लेकिन भाजपा वाले इसे तारीफ की तरह लेते हैं. मैं अपनी किसी भी डिबेट में भाजपा को मुस्लिम विरोधी कहता ही नहीं हूं क्योंकि भाजपाई इसे भी अपनी तारीफ ही समझते हैं.’

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आशुतोष, आप प्रवक्ता
आशुतोष, आप प्रवक्ता

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री बोलते नहीं हैं, वे सेलेक्टिवली बोलते हैं. बोलना होता है तो खूब बोलते हैं, नहीं तो चुप्पी साधकर बैठे रहते हैं. प्रधानमंत्री एक तरफ रोहित वेमुला के मसले पर, जेएनयू के मसले पर, दादरी के मसले पर तो नहीं बोलते हैं, लेकिन अगर मैक्सिको में किसी खिलाड़ी की मौत हो जाए तो उस पर तुरंत ट्वीट करते हैं. प्रधानमंत्री ने यह मौन जान-बूझकर धारण किया है. वह चाहते हैं कि देश का ध्रुवीकरण हो, समाज बंट जाए, ये वोट बैंक की राजनीति है. दरअसल बात ये है कि अगर देश का प्रधानमंत्री खुद को एक पार्टी का, एक संगठन का पीएम समझने लगे तो ऐसी दिक्कतें सामने आती हैं. दुर्भाग्य से मोदी खुद को आज भी भाजपा का प्रधानमंत्री ही मानते हैं. ऐसे में उन मसलों पर जिन पर भाजपा को फायदा मिलने की उम्मीद होती है, उन पर तो वे बोलते हैं. लेकिन जहां देश हित की बात हो, देश को जोड़ने की बात हो वहां पर वे मौन धारण कर लेते हैं.

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वहीं सुभाष गाताडे भी इस बात से सहमत दिखते हैं. वे कहते हैं, ‘अपने मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, सांसदों और विधायकों के अनर्गल बयानों पर रोक न लगा पाने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की असफलता मान सकते हैं, लेकिन मेरे ख्याल से यह जानबूझकर प्राप्त की जा रही असफलता है. मोदी एक सख्त प्रशासक हैं. इस पर भी बहस किए जाने की जरूरत है, क्योंकि जब 2002 में वे गोधरा के समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उस दौरान बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक मारे गए थे, तो वे कितने सख्त प्रशासक थे, इसकी पड़ताल किए जाने की जरूरत है. यह एक मिथक तैयार किया गया था जिसकी असलियत उजागर हो रही है. वैसे भी देश में जो हालात हैं उसका फायदा व्यक्तिगत तौर पर मोदी और संघ को मिल रहा है. क्योंकि जो भी विचार के वाहक व्यक्ति हैं उनके हिसाब से सब ठीक ही हो रहा है.’

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हालांकि राशिद किदवई इस बात को दूसरे नजरिये से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘मोदी के मंत्रियों, सांसदों और पार्टी नेताओं की बयानबाजी हमें भले ही खराब लगती है, लेकिन यदि हम कहें कि इसके पीछे एक राजनीतिक सोच है, तो ये सारी बातें गौण हो जाती हैं. हर व्यक्ति की लिए मर्यादा, विचार, सोच की परिभाषाएं अलग-अलग होती हैं. अगर हम कहें कि पिछले 50 सालों से एक तरह की बातें चली आ रही थीं, उसके इतर कुछ करने की कवायद है तो चीजें बदल जाती हैं. जैसे जेएनयू है यह सिर्फ पांच, दस लोगों का मसला नहीं है. अगर हम इसके पीछे की सोच को देखें तो यह साफ है कि अब राष्ट्रवाद क्या होता है, इसके क्या पैमाने हैं, ऐसी तमाम बातों को तय करने की शुरुआत हो गई है. इसका मकसद यह है कि एक पार्टी जो लंबे समय तक विपक्ष में रही है, उसके मिजाज को भी समझा जाए और उसे आगे बढ़ाया जाए. ये प्रयास इसीलिए है.’

वहीं राम बहादुर राय इस सबसे बि​ल्कुल इतर राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘जहां तक सांसदों के बोलने पर प्रधानमंत्री द्वारा अकुंश न लगाए जाने की बात है तो हमारे यहां जो भी सांसद चुनकर आते हैं उनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है. ब्रिटेन में ऐसी व्यवस्था बनी हुई है. हमारे यहां चुनाव जीतने के आधार पर ही उम्मीदवारों का चयन होता है. ऐसी स्थिति में कई बार अलग-अलग विचार सामने आ जाते हैं. इसके अलावा राजग के सांसदों के विचारों में भी एकरूपता नहीं है. एक तरीके से यह अच्छा और बुरा दोनों है. हर सांसद अलग-अलग तरह का विचार रखता है. इसलिए भी अक्सर सरकार को परेशानी में डालने वाले बयान सामने आ जाते हैं.’

राय के अनुसार ऐसा भी नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है. वे कहते हैं, ‘1971 में जब इंदिरा प्रचंड बहुमत से जीती थीं तब लोकसभा में कांग्रेस के अंदर दो फोरम काम करते थे. एक नेहरू फोरम, दूसरा सोशलिस्ट फोरम. नेहरू फोरम अलग सुर में बोलता था तो सोशलिस्ट फोरम के सांसद अलग राग अलापते थे. इसके अलावा कुछ लोगों ने मिलकर युवा तुर्क गुट भी बना रखा था जो हर बात पर अपनी तीसरी राय रखता था. इसी तरह भाजपा में भी जो लोग बोलते हैं तो इसका कारण यह नहीं है कि प्रधानमंत्री उन्हें बोलने देते हैं. इसका कारण यह भी नहीं है कि प्रधानमंत्री उनके बोलने पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं. वैसे भी कोई सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र और अपने वोटबैंक की अनदेखी नहीं कर सकता है. मुझे लगता है इतनी विविधता बनी रहनी चाहिए. यह लोकतंत्र के लिए बेहतर ही होता है.’

वैसे अगर हम मान भी लें कि मोदी का यह आरोप सही है कि उनके विरोधी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं, तो इस कोशिश को नाकाम करने के लिए सत्तारूढ़ भाजपा और केंद्र सरकार क्या कर रही है? उन्होंने इस ध्रुवीकरण को रोकने के लिए अब तक क्या कदम उठाए हैं और उनकी भविष्य की योजना क्या है?

अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘जब हम यह सवाल सरकार से पूछते हैं, तो हमें यह भी समझने की जरूरत होगी कि इस ध्रुवीकरण से फायदा किसको हो रहा है. अगर चुनावी लि​हाज से देखें तो इसका सीधा फायदा भाजपा को है. कई बार लगता है कि यह कवायद आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए है. यह एक तरह से आगामी लोकसभा का सेमीफाइनल मैच है. इस दौरान ध्रुवीकरण की राजनीति की परीक्षा भी हो जाएगी. हालांकि मेरे ख्याल से भाजपा की यह राह समाज और देश के लिए बहुत ही खतरनाक साबित होने वाली है. अगर सिर्फ ध्रुवीकरण करके उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना है तो उन्हें पश्चिम से लेकर पूरब तक सांप्रदायिक विद्वेष फैलाना होगा. यह बहुत ही मुश्किल काम है. लेकिन गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाने वालों के लिए यह असंभव काम भी नहीं है.’

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हालांकि इस दौरान बहुत सारे लोगों का कहना रहा कि भारतीय जनता पार्टी ने संघ के दबाव में काम किया है. बिहार चुनाव से लेकर बृहत्तर भारत या हिंदूवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने में संघ ने अहम भूमिका अदा की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थकों का एक धड़ा लगातार इस बात को प्रचारित करता रहा है कि वे संघ के दबाव में कुछ नहीं बोल रहे हैं, जबकि उनके एजेंडे में विकास सर्वोपरि है. गुजरात में मुख्यमंत्री रहने के दौरान उन्होंने विकास के एजेंडे को ही आगे बढ़ाया और उन्होंने एक सख्त प्रशासक की छवि निर्मित की है.

हालांकि अभय कुमार दुबे इस बात को पूरी तरह से खारिज कर देते हैं. वे कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी के दबाव में हैं. मोदी की चुप्पी जानी-बूझी समन्वित रणनीति है. इसमें मोदी, संघ, भाजपा सबके रणनीतिकार शामिल हैं. इसमें कभी-कभी गलतियां भी होती हैं, तो मामला बहुत फूहड़ हो जाता है. कई बार ये लोग सफल भी हो जाते हैं. जेएनयू के मसले को जिस तरह उठाया गया, उसके पीछे सोची-समझी रणनीति लग रही है. हालांकि स्मृति ईरानी की एक गलती से सारा मामला राष्ट्रवाद से हटकर दलित, आदिवासियों और पिछड़ों के खिलाफ चला गया.’

वहीं राशिद किदवई कहते हैं, ‘जहां तक सख्त प्रशासक की बात होती है तो इसका कारण थोड़ा अलग है. मोदी इसके पहले गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हैं. जहां तक राज्य के मुख्यमंत्री का सवाल होता है तो वह विदेश, रक्षा, आर्थिक आदि मसलों पर पूरी जिम्मेदारी उठाने से बचा रहता है. साथ में यदि विपक्ष कमजोर है तो आप खुद को बहुत बेहतर दिखाने में सफल रहते हैं, लेकिन देश के साथ ऐसा नहीं होता है. यहां राज्यसभा और लोकसभा दोनों सदन होते हैं. विपक्ष यहां मजबूती से आपका प्रत्युत्तर देने के लिए खड़ा रहता है. इसके अलावा केंद्र में आप अपने मंत्रियों पर भी निर्भर होते हैं. करीब 20 मंत्रालय ऐसे हैं जहां पर आपको जिम्मेदार और योग्य लोगों को नियुक्त करने की जरूरत होती है. मुझे लगता है कि मोदी के मत्रिमंडल में भी योग्य लोगों की कमी है. इसके चलते उनकी सख्त प्रशासक की छवि धूमिल हो रही है.’

राम बहादुर राय भी संघ के दबाव की बात से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी देश के दूसरे प्रधानमंत्री हैं जो संघ की पृष्ठभूमि से राजनीति में आए हैं. इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे. अब अगर हम वाजपेयी की बात करें तो उस समय भाजपा के पास बहुमत लायक सीटें नहीं थीं. इसके अलावा उनकी राजनीतिक समझ मोदी की तुलना में बहुत ज्यादा थी. इस नाते संघ से उनका तालमेल बेहतर था. वे संघ को यह बात याद दिलाते रहते थे कि देखिए सरकार तो मैं चलाऊंगा, आप सिर्फ सलाह दे सकते हैं. नरेंद्र मोदी के साथ भी यह किस्सा है. वे संगठन के आदमी रहे हैं. वाजपेयी की तरह वे संघ के साथ तालमेल बिठाने में सफल तो रहे हैं. संघ अभी तक सार्वजनिक रूप से सरकार की आलोचना करता नहीं दिखा है, जो बेहतर तालमेल की पुष्टि करता है. हां, जब लोग कहते हैं कि संघ सरकार चला रहा है तो यह सिर्फ आरोप है.’

फिलहाल मोदी ने विकास और रोजगार का वादा करके प्रधानमंत्री बनने का सफर तय किया था लेकिन देश के लोग अब भी सात फीसदी की दर से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था को महसूस नहीं कर पा रहे हैं. दो साल का सूखा, फसल की बर्बादी, ग्रामीणों और शहरी आम आदमी की आमदनी में गिरावट आने से जनता मोदी सरकार से निराश है. यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री इससे निपटने के बजाय लोगों के हाथ में राष्ट्रवाद का झुनझुना पकड़ा रहे हैं. यह देखने वाली बात होगी कि राष्ट्रवाद और विद्वेष के इस झुनझुने से उन्हें कितना फायदा होता है और जनता को अपनी मुश्किलों से कितनी राहत मिलती है.