26 मई, 2014 को जब भारत के राष्ट्रपति ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई तब देश एक ऐसे नेता की उम्मीद कर रहा था जो उनके साथ संवाद करे क्योंकि उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह पर अपने कार्यकाल के दौरान मौन रहने का आरोप लगता रहा था. नरेंद्र मोदी खूब बोलने के लिए जाने जाते हैं. इसके अलावा वे जनता के साथ संवाद के लिए नए माध्यमों का भी जमकर इस्तेमाल करते हैं. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि पर उनकी सक्रियता जगजाहिर है. प्रधानमंत्री बनने के बाद से वे रेडियो पर मन की बात भी लगातार सुना रहे हैं. मजेदार बात यह है कि पिछले 21 महीनों में प्रधानमंत्री ने इतने भाषण दिए कि चुटकुले बनाए जाने लगे थे. कुछ का कहना है कि इसके पहले के प्रधानमंत्री कभी बोलते ही नहीं थे और एक मोदी जी हैं कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. लेकिन यह सिक्के का एक पहलू है.
इसका दूसरा पहलू यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के दरम्यान उन तमाम मसलों पर चुप्पी साधे रखी जिन पर लाेगों ने उनसे बोलने की उम्मीद लगा रखी थी. यानी प्रधानमंत्री का संवाद एकतरफा रहा और वे उन तमाम मुद्दों पर कुछ नहीं बोले जिन पर इस दौरान देश में बहसें चल रही थीं. हालांकि इस बीच उनके ही पार्टी के अध्यक्ष, नेता, मुख्यमंत्री और कैबिनेट सहयोगी इन तमाम मसलों पर ऊलजलूल बयान देते रहे. फिर चाहे वह मसला हालिया हरियाणा जाट आरक्षण हिंसा, जेएनयू विवाद, रोहित वेमुला, दादरी, असहिष्णुता से लेकर पाकिस्तान में पटाखे फूटने और मसला ‘रामजादे-हरामजादे’ का ही क्यों न रहा हो. इस पर जब प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाए गए तो ऐसे आरोपों को उन्होंने विपक्ष की साजिश करार दिया.
हाल ही में एक जनसभा में वे कहते हैं, ‘कुछ लोगों को मेरा प्रधानमंत्री बनना हजम नहीं हो रहा है. उन्हें ये हजम नहीं हो रहा है कि एक चायवाला प्रधानमंत्री बन गया. जिस दिन से हमने इन लोगों की विदेशी फंडिंग की डीटेल मांगनी शुरू की है, इन्होंने मेरे खिलाफ गैंग बना लिया है और चिल्ला रहे हैं- मोदी को मारो, मोदी को मारो. अब हर रोज मेरी छवि खराब करने और मुझे खत्म करने की कोशिश हो रही है.’
हालांकि इस मसले पर ज्यादातर राजनीतिक चिंतक प्रधानमंत्री से इतर राय रखते हैं. राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘मोदी की चुप्पी जानी-बूझी रणनीति का हिस्सा है. रणनीति यह है कि विवादास्पद मुद्दों, विचारधारा के मुद्दों, सांप्रदायिक मुद्दों समेत जो भी पॉलिटिक्स का डर्टी जॉब है वह दूसरे लोग करते हैं. मोदी इस पर चुप रहते हैं. वे केवल चुनाव में भाषण देते हैं या तथाकथित विकास के मसले पर बयान देते हैं. यह उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले ही दिन से जारी है. लाल किले से भाषण के दौरान वे कहते हैं कि दस साल के लिए इन मुद्दों को कूड़ेदान में डाल देना चाहिए. इस तरह के मुद्दों पर पाबंदी लगा देनी चाहिए, लेकिन भाजपा के केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक ऐसे मसलों पर लगातार बयानबाजी कर रहे हैं. हालांकि अब इस रणनीति की पोल खुल चुकी है. सबको इसका मतलब समझ में आने लगा है.’
प्रधानमंत्री पर चुप रहने का आरोप लगाना पूरी तरह तथ्य से परे है. भाजपा और सरकार के प्रवक्ता जो भी बोलते हैं उस पर पार्टी व प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति होती है. अब प्रधानमंत्री जिन मसलों पर बोलते हैं वह विपक्ष को सूट नहीं करता है, वह इस तलाश में रहता है कि प्रधानमंत्री से क्या छूट गया है उसे मुद्दा बनाया जाए. अब सरकार और पार्टी के प्रवक्ता भी तो हैं, जो प्रधानमंत्री से अलग आवाज नहीं हैं. प्रधानमंत्री हर मसले पर अपना बयान नहीं दे सकते हैं. अगर विपक्ष को प्रवक्ताओं की बात नहीं सुननी है तो वह भी अपने प्रवक्ताओं को हटा दे, सोनिया गांधी या दूसरे बड़े नेता ही हर मसले पर बोला करें. जहां तक बात भाजपा नेताओं की बयानबाजी की है तो जो पार्टी लाइन का बयान है वह प्रवक्ता देते रहते हैं. जिन लोगों ने निजी रूप से बयान दिया है, पार्टी ने उसका खंडन किया है. पार्टी ने हमेशा हर मसले पर अपनी राय साफ जाहिर की है.
वहीं, लेखक सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘जब जगह-जगह पर संविधान की अवहेलना हो रही है, कभी वकील हमला कर रहे हैं, कभी दादरी जैसी घटनाएं हो रही हैं. तो ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मौन एक सूचक मौन है. अब लोग यह भी सवाल उठा सकते हैं कि प्रधानमंत्री हर मसले पर क्यों बोलेंगे. लेकिन मेेरे ख्याल से जो व्यक्ति जिम्मेदारी के पद पर, संवैधानिक पद पर बैठा हुआ है वह ऐसे समय मौन रहता है जब उसके सामने तमाम घटनाएं घटित हो रही हों तो यह सूचक मौन है. यह लोकतंत्र के लिए चिंताजनक स्थिति है.’ बहरहाल इस दौरान दूसरे तमाम मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संवाद तो जारी रहा, लेकिन वे उन कुछ चुनिंदा मसलों पर टिप्पणी करने से बचते रहे या जानबूझकर देरी करते रहे जिनसे उनकी पार्टी का हित टकरा रहा था.
लेखक और पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘जहां तक इस दौरान हुए विवादों की बात रही तो इस दौरान दो तरह के विवाद रहे. कुछ ऐसे विवाद रहे जिनका निपटारा सही ढंग से नहीं हुआ. दूसरे ऐसे विवाद रहे जिन्हें राजनीतिक वजहों से विवादित बनाया गया. ऐसे में मोदी की चुप्पी रणनीति के तहत रही. सुषमा, वसुंधरा या दादरी का मसला पहली तरह का विवाद रहा, जहां मोदी चाहकर भी कुछ नहीं बोल पाए. दूसरा जेएनयू का मसला था, इसको राजनीतिक वजहों से विवादित किया गया. इसमें भी सत्ताधारी दल फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है. अब इंग्लैंड में प्रधानमंत्री के ऊपर राष्ट्रीय मसलों पर बोलने का नैतिक दबाव होता है, लेकिन कोई नियम, कायदा या कानून नहीं होता है. ठीक वैसा ही भारत में भी है. अब जेएनयू के मसले पर मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के संसद में दिए गए बयान को प्रधानमंत्री सत्यमेव जयते लिखकर ट्वीट करते हैं तो यह साफ होता कि वे उस बयान से सहमत होते हैं. अगर हम यह कहते हैं कि प्रधानमंत्री जेएनयू के मसले पर चुप हैं तो ऐसा कहते वक्त हम सिर्फ तकनीकी रूप से बात कर रहे होते हैं, जबकि प्रधानमंत्री अपनी मंशा जाहिर कर चुके होते हैं.’
राशिद किदवई की बात से हम सहमत भी हो सकते हैं, क्योंकि हमारे लोकतंत्र में सामूहिक जिम्मेदारी की प्रणाली विकसित की गई है. देश के ज्यादातर प्रधानमंत्री बहुत मुखर नहीं रहे हैं. लेकिन क्या वाकई में प्रधानमंत्री लोगों की उम्मीदों पर खरे उतर रहे हैं? किदवई कहते हैं, ‘किसी भी सरकार के कार्यकाल के दौरान बहुत सारे उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. मोदी कई बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके थे, साथ ही बहुत दिनों बाद पूर्ण बहुमत की सरकार आई थी इसलिए लोगों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थीं. हालांकि प्रधानमंत्री रहने के दौरान वे विपक्ष को साथ लेकर सदन को सुचारू रूप से चलाने में असफल रहे हैं.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केवल उन मुद्दों पर बोलते हैं जो उन्हें राजनीतिक तौर पर सुविधाजनक लगते हैं. देश के प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को निभाने में वे पूरी तरह से नाकाम रहे हैं. नफरत फैलाने वाले, बांटने वाले, विभाजनकारी और विघटनकारी एजेंडे का वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन करते दिखते हैं. इसके लिए वे या तो चुप्पी साध लेते हैं या अपनी परोक्ष सहमति से बांटने वाली ताकतों को प्रोत्साहित करते हैं. यह भी पूरे देश ने देखा कि बांटने वालों के सरगना संजीव बालयान, साध्वी निरंजन ज्योति, साक्षी महाराज, राजकुमार सैनी, योगी आदित्यनाथ, गिरिराज सिंह आदि को प्रधानमंत्री ने अच्छे पदों और पुरस्कारों से नवाजा है. यह सूची काफी लंबी है और बढ़ती जा रही है. इसका संदेश बहुत ही स्पष्ट है- फूट डालो और राज करो. देश को बांटो, शासन करो. नफरत फैलाओ, विभाजन करो और शासन करो.
वहीं वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ‘पिछले कुछ समय में मोदी ने जिस तेजी से लोकप्रियता के शिखर को छुआ था, उतनी ही तेजी से वह घट रही है. आम आदमी को रोटी खाने से मतलब होता है, लेकिन अभी तक अच्छे दिन का वादा जुमला साबित हुआ है. सरकार ने इस दौरान सिर्फ विघटनकारी और विभाजनकारी एजेंडे पर जोर-शोर से काम किया है. बाकी तमाम मुद्दे पीछे रह गए हैं. देश में किसान बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं. मजदूरों के पास काम नहीं है. मध्यवर्ग महंगाई से त्रस्त है. ऐसे में उनकी छवि पर भी लगातार सवाल उठे हैं. वे एक कमजोर प्रशासक साबित हो रहे हैं.’
जेएनयू के प्रो. सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘मोदी की भूमिका बहुत साफ है कि वे सभी मसलों पर मौन हैं. संसद में स्मृति ईरानी के भाषण को उन्होंने बहुत सराहा. मतलब साफ है कि सरकार की जो लाइन है, पार्टी की जो लाइन है, उससे वे सहमत हैं और उसके साथ हैं. देश भर में उपद्रवी तत्व अगर उत्पात मचाते हैं और सरकार कुछ नहीं बोलती तो समझना चाहिए कि उनको सरकार का समर्थन है.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन सारे मसलों पर चुप्पी साधे बैठे हैं जो उनकी राजनीतिक विचारधारा के करीब हैं. घर वापसी, बीफ, दादरी, जेएनयू, रोहित मसले पर उनकी चुप्पी है, बाकी दिन भर दहाड़ते ही रहते हैं. जो मसले सांप्रदायिक तनाव बढ़ाते हैं, लोगों को बांटते हैं, उनके जो मंत्री ‘हरामजादे’ जैसे बयान देते हैं, जो लोगों को पाकिस्तान भेजते हैं, उन पर भी मोदी चुप्पी साधे रहते हैं. दरअसल वे चाहते हैं कि ऐसे मसले उठते रहें. वरना जिसकी मर्जी पर स्टाफ में प्यून तक रखे जाते हैं, वह एक बार कह दे कि खबरदार कोई नहीं बोलेगा, तो शायद ही कोई बोले. पर वे खुद ही चाहते हैं कि धार्मिक ध्रुवीकरण होता रहे. इसलिए उद्देश्यपूर्ण चुप्पी धारण किए रहते हैं. गोधरा दंगे के चलते उन्हें दो बार गुजरात की कुर्सी मिल गई थी, इसलिए वे देश में भी ऐसा करना चाह रहे हैं. इसलिए धार्मिक उन्माद को रोकने की कोशिश ही नहीं की जा रही है. वरना कोई मंत्री या सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष यह बयान कैसे दे सकता है कि यदि बिहार में जदयू जीत गई तो पाकिस्तान में पटाखे छूटेंगे? क्या हम पाकिस्तान के नागरिक हैं? साध्वी निरंजन ज्योति यह बयान कैसे दे सकती हैं कि जो हमें वोट दे रहे हैं वे रामजादे हैं बाकी सब बास्टर्ड हैं. अगर नेता न चाहे तो कोई ऐसा बयान दे ही नहीं सकता है. लेकिन मोदी खुद ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने के लिए ऐसे बयानों को मौन सहमति देते हैं.
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय इससे इतर राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘शुरू से ही पूरा विपक्ष मोदी को निशाने पर लिए हुआ है. वह यह पचा नहीं पा रहा है कि मोदी प्रधानमंत्री हैं. कोई छोटी-सी भी बात हो तो एक मांग उठती है कि इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोलें. कई बार घटनाएं इतनी छोटी रहती हैं कि प्रधानमंत्री को बोलने की कोई जरूरत नहीं होती है. जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा में यह बात कई बार कही है कि सरकार या प्रधानमंत्री को जनता ने कुछ करने के लिए चुना है और विपक्ष को बोलने के लिए चुना है. इसका मतलब विपक्ष को बोलने का हर अवसर मिलना चाहिए और सरकार को काम करने का हर अवसर मिलना चाहिए, लेकिन यहां हम पा रहे हैं कि विपक्ष मोदी को बोलने के लिए ज्यादा मजबूर कर रहा है और काम करने का पूरा मौका भी नहीं देना चाहता है. अपने यहां संसदीय लोकतंत्र की जो परिपाटी बनी है उसका पिरामिड उल्टा हो गया है. विपक्ष को लगता है कि प्रधानमंत्री हर छोटी बात पर बोलें. वे बोलेंगे तो गलती भी करेंगे और गलती पर वह मुद्दा बनेगा. ये विवेक भी शायद विपक्ष के पास नहीं है कि किस बात पर प्रधानमंत्री को बोलना चाहिए और किस बात पर उनके बोलने की जरूरत नहीं है. मेरे हिसाब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास यह विवेक है कि उन्हें कब बोलना चाहिए और कब चुप रहने की जरूरत है.’