दो-ढाई साल पुराने किसी राजनीतिक दल से यह उम्मीद करना कि वह बेहद व्यवस्थित और संगठित तरीके से काम करेगा, थोड़ा ज्यादा हो जाएगा. और वह पार्टी अगर आम आदमी पार्टी हो जिसका उदय और सफलता ही अनपेक्षित और उठापटक भरी रही है तो इसकी संभावना और भी कम हो जाती है. लेकिन एक गंभीर राजनीतिक दल होने के लिहाज से यह अपेक्षा करना लाजिमी है कि वह भी अपनी क्षमताओं और सीमाओं को समझते हुए अपना दायरा फैलाएगी. क्या ऐसा होता दिख रहा है? लोकसभा के चुनावों से मिल सकने वाली लोकप्रियता और फायदे का लालच और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मिली चमत्कारिक जीत ने शायद आम आदमी पार्टी (आप) को उतना व्यावहारिक नहीं रहने दिया जितना दो-ढाई साल पुरानी एक पार्टी को होना चाहिए.
सवा चार सौ लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का आप का फैसला ज्यादातर लोगों के गले नहीं उतरा था. चुनाव के नतीजों ने भी साबित किया कि पार्टी जरूरत से ज्यादा उम्मीद और आत्मविश्वास पाल बैठी थी. इस विषय पर पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष सिसोदिया का कहना था कि लोग संगठन बनाकर चुनाव लड़ते हैं जबकि उन्होंने चुनाव लड़कर संगठन खड़ा किया है. यह उल्टी दिशा की राजनीति आप का कितना भला कर पाएगी यह तो फिलहाल समय के गर्भ में है. लेकिन एक बात साफ है कि जिन सवा चार सौ लोगों ने लोकसभा चुनावों के दौरान आप की सवारी की थी उनमें से कई लोग फिलहाल अपने-अपने रास्ते जा चुके हैं. अगर इसमें चुनाव नहीं लड़ने वाले नामचीन और चमकदार चेहरों को भी शामिल कर दिया जाय तो लिस्ट काफी लंबी हो जाती है. हालांकि ऐसे भी तमाम लोग हैं जो अभी भी पूरी गंभीरता से पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं. तमाम ऐसे भी लोग मिले जो मोहभंग की स्थिति में हैं पर पार्टी का हिस्सा बने हुए हैं.
दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आप को मिली जीत के बाद फिल्म अभिनेता, नौकरशाह, वकील और पत्रकारों का हुजूम आप में शामिल होने को लालायित था. लेकिन लोकसभा चुनाव आते-आते स्थितियां बदलने लगी थीं. इसकी वजह से पार्टी के लोकसभा चुनावी अभियान का ज्यादातर हिस्सा नकारात्मक सुर्खियां बटोरता रहा. सबसे पहले पार्टी का टिकट वापस करने की खबर वीवीआईपी सीट रायबरेली से आई थी. इससे पार्टी की बेहद किरकिरी भी हुई. हुआ यूं कि पार्टी ने सोनिया गांधी के खिलाफ रिटायर्ड जस्टिस फखरुद्दीन को अपना उम्मीदवार घोषित किया लेकिन जल्द ही उन्होंने टिकट वापस कर चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर दी. इसी समय प्रतिष्ठित कोलकाता दक्षिण की सीट से आप उम्मीदवार मुदार पाथेर्य के टिकट वापस करने की खबर भी सुर्खी बनी. सामाजिक कार्यकर्ता पाथेर्य ने स्वास्थ्यगत कारणों से चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी. गौरतलब है कि पाथेर्य उस आंदोलन का प्रमुख चेहरा थे जिसने रिजवानुर रहमान की हत्या के विरोध में पैदा हुए जनआक्रोश का नेतृत्व किया था. लक्स नामक अंत:वस्त्र बनाने वाली कंपनी के मालिक अशोक टोडी के खिलाफ उनका आंदोलन बेहद प्रभावी रहा था. उनके टिकट वापस करने के पीछे तमाम अटकलें और कहानियां बनीं.
आगे आने वाले दिनों में पार्टी में आने-जाने वालों का एक लंबा सिलसिला चला. अकेले उत्तर प्रदेश से कुल आठ लोगों ने आप का टिकट लौटाकर चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था. इनमें जालौन से अभिलाषा जाटव, लखीमपुर खीरी से इलियास आजमी, फैजाबाद से इकबाल मुस्तफा, शाहजहांपुर से अशर्फीलाल आदि के नाम महत्वपूर्ण हैं. सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण विवाद रहा फर्रूखाबाद से पार्टी के उम्मीदवार मुकुल त्रिपाठी का. फर्रूखाबाद की सीट तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की वजह से चर्चा में थी. आप ने मुकुल त्रिपाठी को सलमान खुर्शीद के खिलाफ अपना उम्मीदवार घोषित किया. त्रिपाठी ने सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद द्वारा संचालित जाकिर हुसैन ट्रस्ट के फंड में हेरफेर उजागर करके खुब लोकप्रियता बटोरी थी. लेकिन चुनाव से ठीक पहले उन्होंने आप का टिकट यह कहकर वापस कर दिया कि आप के भीतर भयंकर भ्रष्टाचार व्याप्त है. पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य गुल पनाग कहती हंै, ‘ऐसे तमाम लोग चुनाव से पहले हमसे जुड़े थे. कुछ लोग पहले, कुछ चुनाव में मिली असफलता के बाद पार्टी छोड़कर चले गए हैं. पार्टी के लिए यह अच्छी बात है. ऐसे लोगों को समझ लेना चाहिए कि राजनीति में बदलाव रातो-रात नहीं होता.’
‘कुछ लोग पहले, कुछ चुनाव में मिली असफलता के बाद पार्टी छोड़कर चले गए हैं. पार्टी के लिए यह अच्छी बात है’
चुनाव के पहले और बाद में तमाम नामचीन हस्तियों का आना-जाना पार्टी की संगठनात्मक असफलता की तरफ भी इशारा करता है. बहुत कम समय में पार्टी ने अपनी क्षमता से ज्यादा पंख फैला लिए थे. इंटरनेट पर दूर-दराज के इलाकों से जुड़े दो-चार उत्साही युवाओं के दम पर पार्टी ने ऐसे-ऐसे स्थानों से चुनाव लड़ने की कोशिश की जहां वास्तव में जमीन पर पार्टी ने कभी कोई काम नहीं किया था. इस हड़बड़ाहट से पार्टी को किसी तरह के फायदे की जगह नुकसान ही हुआ. मीडिया और सोशल साइटों पर जहां पार्टी की सबसे ज्यादा धमक थी वहीं पर उसकी सबसे ज्यादा आलोचना शुरू हो गई. इस वजह से पार्टी अपने ही मानकों और सिद्धांतों का पालन करने में असफल हुई. एक अध्ययन के मुताबिक मध्य प्रदेश से आप के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले करीब 40% उम्मीदवारों के खिलाफ किसी न किसी तरह के अदालती मामले चल रहे थे. यह ऐसी पार्टी थी जिससे लोगों की अपेक्षा थी कि यह भ्रष्टाचार और कुशासन से लड़ेगी और देश के गवर्नेंस के पुराने तौर-तरीकों को बदलेगी. पर हुआ यह कि अंत में यह पार्टी खुद को ही व्यवस्थित नहीं रख सकी. एयर डेक्कन के मालिक कैप्टन गोपीनाथ, पार्टी की संस्थापक सदस्य शाजिया इल्मी समेत तमाम बड़े नामों ने चुनावों के बाद पार्टी का साथ छोड़ दिया. ठीक लोकसभा चुनाव से पहले उभरे आप नेता आशीष खेतान कहते हैं, ‘कुछ लोग हो सकता है बहती गंगा में हाथ धोने की नीयत से पार्टी में शामिल हुए हों, लेकिन ज्यादातर लोग अच्छी नीयत और उद्देश्य से जुड़े हैं. अभी आपको लग सकता है कि लोग अपने-अपने रास्ते चले गए हैं लेकिन वे किसी न किसी रूप में पार्टी के लिए काम कर रहे हैं.’
तहलका ने ऐसे कई चमकदार नामों के बारे में जानने की कोशिश की जो लोकसभा चुनाव के पहले बहुत तेजी से चमके थे और आप के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़े थे. हमने यह जानने का प्रयास किया कि फिलहाल वे लोग क्या कर रहे हैं.
राजमोहन गांधी
पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से आप ने राजमोहन गांधी के नाम की घोषणा करके पूरे चुनावी माहौल को गर्मा दिया था. राजमोहन गांधी महात्मा गांधी के पौत्र हैं और खुद उनकी अपनी शख्सियत बहुत विस्तृत है. अमेरिका के इलिनॉय विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व एशिया विभाग के प्रोफेसर राजमोहन गांधी को चुनाव से पहले राजनीतिक जगत में बहुत कम जाना जाता था. हालांकि 1990-92 के बीच वे राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं लेकिन उनकी पहचान अकादमिक और बौद्धिक जगत में ज्यादा रही है. वे आईआईटी गांधीनगर से जुड़े हुए हैं. 1975-77 के बीच जब देश में आपातकाल लगा हुआ था तब राजमोहन गांधी ने लोकतंत्र की पुनर्स्थापना और मानवाधिकारों के लिए अपने साप्ताहिक जर्नल ‘हिम्मत’ के जरिए बहुत बेबाकी से एक अभियान छेड़ा था. उस दौरान उन्होंने अपनी भूमिका एक पत्रकार के रूप में निभाई थी. अपने लंबे अकादमिक और पत्रकारीय जीवन में राजमोहन गांधी प्रतिष्ठित अखबार इंडियन एक्सप्रेस के चेन्नई संस्करण के संपादक के तौर पर भी 1985 से 87 तक काम कर चुके हैं. लेकिन अब अपने राजनीतिक दल से उनका जुड़ाव ढीला-ढाला प्रतीत होता है. जब तहलका ने उनसे दो हफ्ते पहले संपर्क किया था तब वे अमेरिका के दौरे पर थे. क्या वे अभी भी आप से जुड़े हैं, पार्टी में उनका पद क्या है, अपने लोकसभा क्षेत्र के लोगों से उनका किस तरह का जुड़ाव है आदि सवालों के जवाब उन्होंने ई-मेल के जरिए भेजे हैं जिसका लब्बोलुआब यह है कि वे पार्टी में तो हैं पर अपने निर्वाचन क्षेत्र से उनका कोई जुड़ाव नहीं है. उनके जवाब के मुताबिक पार्टी से उनका जुड़ाव सक्रिय स्तर पर नहीं है, मगर वे राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हैं.
लोकसभा चुनावों से पहले बना उनका फेसबुक पन्ना 17 मार्च 2014 के बाद से अपडेट नहीं हुआ है. साथ ही उनके दफ्तर के दोनों नंबर भी फिलहाल बंद पड़े हैं. पार्टी के कार्यकर्ता भी उनके संबंध में पूछे गए किसी सवाल का जवाब टाल जाते हैं. जिस तरह के हालात हैं उनके आधार पर एक ही अनुमान लगाया जा सकता है कि शायद आप और राजमोहन गांधी के रिश्तों में गर्मजोशी नहीं रही है. पूर्वी दिल्ली सीट के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘चुनाव के बाद से हमने उन्हें अपने क्षेत्र में कभी नहीं देखा.’
‘चुनाव से पहले हमने कुल 32 लाख कार्यकर्ता पूरे प्रदेश में बनाए थे. पार्टी को चुनाव में कुल साढ़े आठ लाख वोट मिले. यह चयन में गड़बड़ी का नतीजा है’
गुल पनाग
पूर्व मिस इंडिया और फिल्म अभिनेत्री गुल पनाग की चंडीगढ़ सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा दूसरे विकल्प के रूप में हुई थी. आप ने पहले चंडीगढ़ सीट से दिवंगत हास्य कलाकार जसपाल भट्टी की पत्नी सविता भट्टी को टिकट दिया था जिन्होंने एक हफ्ते बाद टिकट लौटाकर पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी थी. सविता भट्टी ने अपनी खुद की नोटा पार्टी का गठन करने का ऐलान किया था. बहरहाल गुल पनाग ने काफी हाई प्रोफाइल चुनाव लड़ा. उनके खिलाफ भाजपा ने किरण खेर को खड़ा किया था. इस चुनाव में गुल पनाग तीसरे स्थान पर रही. चंडीगढ़ की स्थानीय इकाई के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘चुनाव के बाद उनका चंडीगढ़ आना कम हो गया है, वालंटियरों को भी अब समय नहीं दे पाती हैं. हम लोगों के लिए समस्या यह है कि पार्टी का कोई बड़ा स्ट्रक्चर तो है नहीं. आम आदमी, पार्टी कार्यकर्ता हर दिन अपने छोटे-मोटे काम के लिए आते रहते हैं पर उनका काम नहीं हो पाता. जबकि दूसरी पार्टियों में ऐसा नहीं होता है. उन छोटे-मोटे कामों से पार्टी का जनाधार बनता है. पर हमारे पास ऐसा कोई नहीं है. इससे निचले स्तर पर थोड़ा असंतोष है.’ हालांकि गुल पनाग ऐसे किसी भी दावे को सच नहीं मानती हैं. उनका कहना है कि अमूमन हर दूसरे हफ्ते में वे चंडीगढ़ जाती रहती है. वे कहती हैं, ‘मैं राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हूं, इसके अलावा मेरा अपना भी कामकाज है. इन तमाम कामों में मेरी व्यस्तता रहती है. अगर आप मुझसे यह उम्मीद करेंगे कि राजनीति में होने के नाते मैं हर वक्त सिर्फ पार्टी और राजनीति की बात करूंगी तो यह पूरी तरह से गलत होगा. पार्टी से जुड़ी बातों के लिए मैंने गुल4चेंज नाम से एक अलग पेज बना रखा है. पार्टी से जुड़ी गतिविधियों को मैं वहीं पर रखती हूं. लोगों को लगता है कि मैंने फिल्म और खेल आदि पर तो बातें कर रही हूं, लेकिन पार्टी पर नहीं. यह लोगों की गलतफहमी है.’ गुल के इतर पार्टी भी चंडीगढ़ और पंजाब को बेहद गंभीरता से ले रही है क्योंकि पार्टी को सबसे ज्यादा सफलता पंजाब से ही मिली है.
जावेद जाफरी