उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के कैलेना गांव में किसानों के चेहरे अपनी बर्बाद फसल देखकर मुरझा गए हैं. गांव के सीमांत किसान वीरपाल सिंह ने अपना दर्द जाहिर करते हुए बताया, ‘ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मेरे दोनों हाथ और पैर कट गए हैं.’ गांव के कमजोर दिख रहे अधिकांश किसानों की आवाज उनके गले में ही दबकर रह जा रही है. उनकी लाचारी को साफ तौर पर देखा और समझा जा सकता है. उम्र के छठे दशक में पहुंच चुके वीरपाल की तरह भारत के सबसे ज्यादा आबादीवाले प्रदेश का हर सीमांत किसान निराशा और अलगाव के भंवर में डूबता नजर आ रहा है. एक हाथ सिर पर रखकर पालथी मारे बैठे वीरपाल का बीड़ी का कश मारना उनकी दयनीय स्थिति को दर्शा रहा था. वह सवाल उठाते हैं, ‘अब मुझे क्यों जीना चाहिए? अब मैं कैसे िजऊंगा?’
पश्चिम उत्तर प्रदेश के कई गांवों का दौरा करने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि वीरपाल की ओर से उठाए गए सवाल इस कृषि क्षेत्र के ज्यादातर किसानों के सवाल का प्रतिनिधित्व करते हैं. अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) के जिला सचिव और किसान जगवीर सिंह कहते हैं, ‘बारिश और ओलावृष्टि ने किसानों की आजीविका की कमर तोड़ कर रख दी है. अधिकांश फसलें बर्बाद हो चुकी हैं. यही नहीं केंद्र और राज्य सरकार की कमजोर नीतियों के चलते किसानों को सही मुआवजा मिलने की उम्मीद भी कम ही नजर आ रही है. वे अथाह संकट में डूबे हुए हैं और ओलावृष्टि ने उनकी मुश्किलों को बढ़ा दिया है.’
वीरपाल की जिंदगी दरअसल वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण किसानों पर गहराते संकट का एक जीता जागता उदाहरण है. लगातार बर्बाद होती फसल और दामों में आते उतार-चढ़ाव के कारण तबाह हुए वीरपाल ने डेयरी के धंधे में हाथ आजमाने की कोशिश भी की. इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक बैंकों समेत तमाम अन्य संस्थागत ऋण एजेंसियों से भी कर्ज लेने के लिए काफी भाग-दौड़ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. आखिरकार उन्होंने तीन प्रतिशत प्रति माह की दर पर गांव के साहूकार से 60 हजार रुपये का उधार लिया. पांच हजार रुपये उन्होंने अपने रिश्तेदारों से जुटाए. इसके बाद जैसे-तैसे करके पिछले वर्ष एक भैंस खरीदी थी लेकिन दुखों ने यहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ा. उनकी भैंस दो माह के भीतर मर गई. अब उन्हें बतौर सूद हर माह 1,800 रुपये साहूकार को चुकाने पड़
रहे हैं.
वीरपाल की नम आंखें काफी कुछ कह जाती हैं. उनके मुताबिक, ‘मेरे लिए सूद चुकाना असंभव होता जा रहा है. अगले छह महीने में मेरे पर 70,800 का कर्ज चढ़ चुका होगा. मुझे समझ नहीं आ रहा मैं इसे चुकाऊंगा कैसे. पहले मैंने सोचा था कि रबी की फसल से मिलनेवाली रकम से ब्याज चुका दूंगा लेकिन इस बेमौसम बरसात ने मेरी एक एकड़ की गेहूं की फसल बर्बाद कर दी है. मुझे बेहद घुटन हो रही है. मैं बचपन से खेत जोत रहा हूं और खेती किसानी छोड़ना नहीं चाहता लेकिन जिंदा रहने के लिए क्या करूं मेरी समझ से बाहर होता जा रहा है. अब मेरी उम्मीद सिर्फ बड़ी हो रहीं दो बछिया से है. जब ये बड़ी होंगी तो शायद इनका दूध बेचकर मैं कुछ कमा सकूं.’ यह कहते हुए वीरपाल की नम आंखों में उम्मीद की एक हल्की सी झलक दिखाई देती है.
वीरपाल की इस उम्मीद पर भी इसी गांव के छोटे किसान अजित कुमार सवाल खड़ा कर देते हैं। अजित का मानना है कि, ‘उनका दूध बेचकर जिंदा रहने का सपना भी शायद पूरा न हो सके. वजह खेती किसानी पर आए संकट से मवेशी भी नहीं बच पा रहे हैं. कहने को तो यह गांव है लेकिन यहां मवेशियों की देखभाल करने के लिए कोई सुविधा नहीं है. हमारे आसपास कोई पशु चिकित्सालय नहीं हैं. कोई डॉक्टर भी आसानी से नहीं मिलता. भैंसों को तो हम इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जा नहीं सकते हैं. डॉक्टर बगैर अतिरिक्त शुल्क के यहां आता नहीं और यह शुल्क देना हर किसी के बस की बात नहीं.’ इस कमी का सीधा फायदा झोलाछाप डॉक्टर उठाते हैं. ये लोग इलाज और दवा के पुराने तरीकों का इस्तेमाल मवेशियों पर करते हैं और किसानों की मजबूरी होती है कि वह इनपर भरोसा करें, खासकर जब कोई आपात स्थिति हो.
अजित के अनुसार, उनकी गाय की पिछले साल अक्टूबर में तबीयत खराब हुई तो कोई भी चिकित्सा सुविधा आसपास मुहैया नहीं थी. उनकी इस दिक्कत का पता चलते ही न जाने कहां से एक झोलाछाप डॉक्टर आ टपका. उसने गाय को गलत दवा दे दी, जिसके चलते वह बच न सकी. अजित ने तय किया कि आगे से वह इस बात का ध्यान रखेंगे और अन्य लोगों को इस बारे में सचेत भी करेंगे. तहलका को भी अपनी जांच से मालूम पड़ा कि इस इलाके में इस तरह डॉक्टर खासे सक्रिय हैं. इनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है. इनसे इलाज के चक्कर में बड़ी संख्या में मवेशी मारे जाते हैं. दरअसल इस पूरे संदर्भ को इस तरह नहीं देखा जा सकता है कि आज राज्य की ओर से, नीतिगत और व्यवहारिक दोनों स्तरों पर कृषि क्षेत्र को मिलनेवाली सेवाओं को लगातार घटाया जा रहा है और पूरा ध्यान ‘उद्योग’ विकसित करने पर लगाया जा रहा है.
मवेशियों की ओर बढ़ते झुकाव, संस्थागत समर्थन की कमी और कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ते इन नीम-हकीम के कारण किसानों के हाथों से उनकी खेती की जमीन निकलती जा रही है. 40 वर्षीय अविवाहित मलूक सिंह का जिंदगीनामा इस तथ्य की तस्दीक करता है. मलूक ने दूध बेचकर रोजी-रोटी कमाने के चक्कर में गांव के साहूकार से गर्भवती भैंस खरीदने के लिए 70 हजार का कर्ज लिया लेकिन नीम-हकीम की सलाह लेने की वजह से भैंस की प्रसव के दौरान मौत हो गई. इस असहाय स्थिति के बावजूद साहूकार को उनपर कोई दया नहीं आई. साहूकार ने मूल और सूद के एवज में उनकी जमीन हड़प ली. अब रोजगार के लिए मलूक को जो भी काम मिलता है वह करता है. लेकिन गांवों में खेत मजदूरी करवाने का चलन लगातार कम होने के कारण कभी-कभी उसे दो जून की रोटी के भी लाले पड़ जाते हैं. मलूक के अनुसार, वह बस दूसरों के खेतों पर काम करके जैसे-तैसे जिंदगी जी रहा है.
पास के गांव में रहनेवाले मझौले किसान रवि तंज करते हुए बताते हैं, ‘प्रधानमंत्री कह रह हैं कि हमें अपनी जमीन कंपनियों ओर पूंजीपतियों को दे देनी चाहिए लेकिन अगर हालात ऐसे ही बने रहे तो कंपनियों को बिना खून खराबा किए ही हमारी जमीनें मिल जाएंगी. किसानों को जबरदस्ती किसानी छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है.’ रवि की फसल को भी इस बेमौसम बरसात ने भारी नुकसान पहुंचाया है. रवि ने बताया, ‘शायद आपको भरोसा नहीं होगा लेकिन यह सच है कि मैंने अपने परिवार के लिए पिछले चार वर्षों से कपड़े नहीं खरीदे हैं. दस वर्ष से घर की रंगाई-पुताई नहीं करा पाया हूं. मैं अपने बच्चों को वो सुविधाएं भी नहीं दे पा रहा हूं जो मुझे अपने बचपन में मिली थीं. इस सब के बावजूद मैं किसानी छोड़ने की स्थिति में नहीं हूं. इसकी एक ही वजह है कि मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है.
हालात की गंभीरता को समझाने के लिए रवि ने एक उदाहरण देकर बताया, ‘इस इलाके में बहुत बढ़िया बासमती चावल होता था. पिछले वर्ष इसकी कीमत चार से पांच हजार रुपये क्विंटल थी आज की तारीख में कीमत घटकर 1300 रुपये पहुंच गई है. मैं अपनी लागत नहीं निकाल पा रहा हूं. मुनाफे की तो बात ही मत कीजिए. तिस पर इस बरसात ने मेरी गेहूं की फसल बर्बाद कर दी. बची-खुची फसल की कटाई के लिए मुझे सामान्य मजदूरी से तीन गुना ज्यादा मजदूरी देनी पड़ रही है. अब आप ही बताए मैं कैसे जिंदा रहूं और अपने बच्चे पाल लूं.’
मौसम बारिश की मार से जूझ रहे किसानों की आत्महत्या की कई घटनाएं देखने को मिली हैं किसानों को केसीसी का कर्ज चुकाने के लिए साहूकारों से पैसा उधार लेना पड़ेगा
कर्ज लेकर की थी खेती
आत्मदाह की कोशिश करने वाले किसानों ने बताया कि उन्होंने बैंक से कर्ज लेकर खेती की थी। फसल के बर्बाद होने के बाद प्रशासन के कोई पदाधिकारी हाल पूछने भी नहीं पहुंचे। अभी तक नुकसान का सर्वे तक नहीं किया गया है। बारिश व ओला से गेहूं, चना, मक्का, आम, लीची और सब्जी की फसल बर्बाद हो गयी है। किसानों का बैंक से लिया गया कर्ज माफ हो। साथ ही मुआवजा भी मिले।