यूजीसी का स्वप्न, छात्रों का दुःस्वप्न

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वे छात्र जो मतदान करके सरकार चुन सकते हैं, उच्च स्तरीय शोध पत्र लिख सकते हैं, वे शैक्षिक टूर पर जाने जैसे निर्णय खुद नहीं ले सकते. इसके लिए उन्हें अभिभावक के अनुमति लेना अनिवार्य है. इसके अलावा उन्हें खुफिया निगरानी में रखा जाना चाहिए ताकि उनके लिए ‘सुधारात्मक कदम’ उठाए जा सकें. ये हम नहीं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की ‘उच्च शिक्षा संस्थानों के परिसर में और बाहर छात्रों की सुरक्षा’ के लिए जारी दिशानिर्देश कह रहे हैं.

यह दिशानिर्देश इस साल अप्रैल में जारी हुए, लेकिन हाल ही में इसे लेकर विवाद शुरू हो गया है. छात्रावासों में लैंगिक भेदभाव वाले नियमों के खिलाफ कुछ दिनों से ‘पिंजरा तोड़’ जैसे विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. यह प्रदर्शन ऐसे विवादित नियमों के लिए जारी दिशानिर्देश और लैंगिक समानता के पक्षधर, उदार सोच वाले लोगों के बीच छिड़ने जा रही जंग की आहट है.

दिशानिर्देश के अनुसार विश्वविद्यालय परिसरों को सुरक्षित रखने का एकमात्र तरीका है कि वहां सर्विलांस सिस्टम लगाए जाएं. ऐसा लगता है कि सरकार सार्वजनिक तौर पर होने वाली लोगों की उस खुफिया निगरानी से संतुष्ट नहीं है, जो किसी की भी निजता में दखल देती है. अब वे कॉलेजों कैंपस की निजता में भी अपनी पहुंच बनाना चाहते हैं.

यूजीसी की ओर से पहली सलाह है कि विश्वविद्यालय परिसरों की कंटीले तारों से किलेबंदी की जाए और सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं, जबकि छात्र संगठन इस निगरानी के विरोध में हैं. वहीं कुछ काॅलेजों की ओर से इस सिफारिश का समर्थन किया जा रहा है कि तरह के निगरानी तंत्र से परिसरों में अपराध रोकने में मदद मिलेगी. दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी काॅलेज के प्रिंसिपल एमएम गोयल का कहना है, ‘हमने अपने परिसर में पहले से ही सीसीटीवी कैमरा लगवा रखे हैं, जिनकी संख्या आने वाले कुछ महीनों में 121 हो जाएगी. कैमरे न सिर्फ छोटे-मोटे अपराधों को रोकने में मददगार साबित होते हैं, बल्कि उन लोगों को भी पहचानने में भी मदद करते हैं, जो कॉलेज परिसर में उत्पात मचाते हैं.’

हालांकि, गोयल परिसर के अंदर नियमित गश्त के लिए पुलिस चौकी स्थापित करने के विचार के खिलाफ हैं, ठीक उसी तरह जैसे हैदराबाद विश्वविद्यालय और इंग्लिश एंड फाॅरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी के उनके समकक्ष अध्यापक भी परिसर में पुलिस चौकी के खिलाफ हैं. हैदराबाद विश्वविद्यालय और इंग्लिश एंड फाॅरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी के अध्यापक और छात्रों का मानना है कि अधिकारी कैंपस कल्चर को समझ सकने में नाकाम हैं इसलिए वे छात्रों को प्रताडि़त करते हैं.

इसके उलट यूजीसी का मानना है कि परिसरों में पुलिस चौकी स्थापित करने से छात्रों के मन में सुरक्षा का भाव रहेगा और हुड़दंगियों या छोटे-मोटे अपराध करने वाले पर निगाह रखी जा सकेगी. पर यहां बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जैसे उदाहरण भी हैं, जहां पर न सिर्फ पुलिस बल्कि पीएसी भी परिसर के अंदर लगातार होने वाली हिंसक घटनाओं को रोकने में नाकाम रहती है.

जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष आशुतोष कुमार कहते हैं, ‘मैंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है जहां कैंपस में प्रायः पीएसी आ जाती है. वहां शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब परिसर में हिंसक घटना न होती हो. पुलिस अव्यवस्था फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई कर पाने में नाकाम रहती है, क्योंकि वे किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े होते हैं.’

यूजीसी के प्रस्ताव में ‘स्टूडेंट काउंसिलिंग सिस्टम’ को अनिवार्य करने का सुझाव भी विवादित है. इस काउंसिलिंग सिस्टम में एक शिक्षक को 25 छात्रों की जिम्मेदारी दी जाएगी और उससे ‘बतौर अभिभावक’ व्यवहार करने की उम्मीद की जाएगी. इसमें आगे कहा गया है कि काउंसलर की भूमिका में शिक्षक छात्रों के अभिभावकों को उनकी प्रगति रिपोर्ट भेजेंगे, साथ ही हाॅस्टल वॉर्डेन के सहयोग सेे छात्रों की निजी सूचना, अकादमिक रिकाॅर्ड और उनके बर्ताव संबंधी सूचनाओं का आदान-प्रदान करेंगे. ये सब छात्रों के लिए ‘सुधारात्मक कदम’ होंगे.

आॅल इंडिया प्रोग्रेसिव विमेन एसोसिएशन (ऐपवा) की सचिव कविता कृष्णन कहती हैं, ‘खुफिया निगरानी तंत्र वाली एक ऐसी जगह जहां शिक्षकों से कहा जाएगा कि वे छात्रों की जासूसी करें और उनकी निजी सूचनाएं अभिभावकों से साझा करें, यह बेहद खतरनाक होगा. इससे छात्रों में असुरक्षा की भावना पैदा होगी, खासकर छात्राओं में. यह उनकी पढ़ाई के साथ-साथ उनके जीवन के लिए भी खतरनाक हो सकता है.’ कविता जैसे कुछ दूसरे कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस तरह का निगरानी तंत्र भविष्य में कैंपस के अंदर महिलाओं की गतिविधियों को बाधित करेगा. कविता कहती हैं, ‘महिलाओं के निजी संबंधों और राजनीतिक सक्रियता के मामले में इस तरह की निगरानी उनके करिअर में बाधा खड़ी करेगी.’

यही नहीं, यूजीसी के दिशानिर्देश इस बात पर भी जोर देता है कि बालिग हो चुके छात्रों को टूर पर जाने के लिए अपने माता-पिता से अनुमति लेनी होगी. यूजीसी के इन नियमों में एक छुपा पहलू ये भी है कि अगर छात्रों, विशेषकर छात्राओं की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाए तो ऐसे अनिवार्य प्रावधान विद्यार्थियों के समग्र विकास में बाधक हो सकते हैं.

शिक्षक समुदाय भी इस निगरानी तंत्र के पक्ष में नहीं दिख रहा है. दिल्ली विश्वविद्यालय के एक्जिक्यूटिव काउंसिल की सदस्य आभा देव हबीब ने कहा, ‘इस तरह के दिशानिर्देश के जरिये सरकार छात्रों-शिक्षकों के सवाल पूछने और असहमत होने के अधिकार को छीनना चाहती है.’ आभा दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा रह चुकी हैं और करीब एक दशक से बतौर प्रोफेसर कार्यरत हैं. वे कहती हैं, ‘इस तरह के प्रयास विश्वविद्यालयों में स्वतंत्र सोच की हत्या कर देंगे. हम वोट कर सकने वाले 18 साल के व्यक्ति को बालिग मान रहे हैं या बच्चा, जो उसकी गतिविधियों पर नजर रखने की जरूरत हैै?’

परिसरों में बाॅयोमेट्रिक सिस्टम लगाने, पहचान पत्र दिखाने और हर तिमाही पर अध्यापकों के साथ अभिभावकों की मीटिंग पर भी सवाल उठ रहे हैं. एक छात्र इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं, ‘ऐसा लगता है यूजीसी विश्वविद्यालय कैंपस को प्राथमिक स्कूल में बदलकर बालिग युवाओं के साथ केजी के बच्चों जैसा व्यवहार करना चाहता है.’ नए दिशानिर्देश से यह अंदाजा लगता है कि यूजीसी की नीतियां अब अधिक कठोर और तानाशाह किस्म की हो गई हैं. यूजीसी की ओर से इस साल अप्रैल में जारी सुरक्षा संबंधी दिशानिर्देश और 26 अगस्त को उच्च शिक्षण संस्थाओं में ‘सक्षम’ की सिफारिशें लागू करने के संबंध में भेजे गए दिशानिर्देशों में विरोधाभास नजर आता है.

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‘सक्षम’ रिपोर्ट दिसंबर, 2013 में प्रकाशित हुई थी, जिसे यूजीसी द्वारा गठित  एक कमेटी ने ही तैयार किया है. इस रिपोर्ट में कैंपस के भीतर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने और लैंगिक जागरूकता को बढ़ावा देने की सिफारिश की गई थी. यह रिपोर्ट न सिर्फ कैंपस में सीसीटीवी कैमरा के जरिये खुफिया निगरानी जैसे विचार को नकारती है, बल्कि शोध कार्यों के दौरान छात्राओं को किसी अन्य छात्र या शिक्षक (गाइड) पर निर्भर न रहना पड़े, ऐसे रास्ते तलाशने की भी कोशिश करती है. यह रिपोर्ट विश्वविद्यालयों और छात्रों के साथ मिलकर सर्वेक्षणों और खुली बहसों के जरिये तैयार की गई थी. यह रिपोर्ट महिला छात्रावासों में लैंगिक भेदभाव वाले नियमों- जैसे निश्चित समय पर आने की पाबंदी और दूसरी पाबंदियों पर भी चिंता व्यक्त करती है.

अब जब छात्रों के कुछ समूह इस तरह के नियमों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं तो यूजीसी ने चुप्पी साध ली है. दिल्ली महिला आयोग ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, दिल्ली को करीब एक महीने पहले लैंगिक भेदभाव वाले कपटपूर्ण हाॅस्टल नियमों के लिए तलब किया था. यहां छात्राओं को देर रात बाहर जाने पर पाबंदी है, अगर शाम को वे बाहर हैं तो आठ बजे से पहले उन्हें कॉलेज परिसर में वापस आ जाना होगा लेकिन लड़कों के हाॅस्टल में ऐसा कोई नियम नहीं है. हालांकि जामिया विश्वविद्यालय के प्रशासन ने आयोग को आश्वासन दिया है कि वह हाॅस्टलों में लैंगिक समानता वाले नियम लागू करेगा.

फिलहाल इस समय छात्रों-छात्राओं द्वारा ‘पिंजरा तोड़’ नाम से एक अभियान चलाया जा रहा है. लैंगिक भेदभाव के विरूद्ध सोशल मीडिया पर शुरू हुए इस अभियान को दो-चार दिनों में ही मुंबई और दक्षिण की कई कॉलेजों से भी समर्थन मिला.  इस अभियान की शुरुआत करने वालों में से एक शाम्भवी विक्रम का कहना है, ‘जामिया की घटना ने हमें कमरों में बंद बहसों को बाहर लाकर ‘पिंजरा तोड़’ कैंपेन शुरू करने के लिए मजबूर किया. हमें और हमारे साथियों को एबीवीपी के सदस्यों ने दिल्ली विश्वविद्यालय की ‘वाॅल आॅफ डेमोक्रेसी’ पर हमारी ‘जन सुनवाई’ के पोस्टर लगाने पर धमकी दी.’ इस बारे में ‘पिंजरा तोड़’ के सदस्यों ने एफआईआर भी दर्ज करवाई है.

विडंबना ये है कि यूजीसी विश्वविद्यालय परिसरों में ऐसे नियमों को हटाने की बजाय सर्विलांस और जासूसी को बढ़ावा दे रहा है. आयोग की इस नई सिफारिश की लेखन शैली पर भी सवाल हैं, ये आयोग की अपनी ही कमेटी की रिपोर्ट ‘सक्षम’ की मूल भावना के खिलाफ है. कविता कृष्णन कहती हैं, ‘पिछले दो दशक से मैं यूजीसी के दस्तावेज देखती रही हूं लेकिन ये पहली बार है जब दस्तावेज तैयार करने वाली कमेटी या लेखक के बारे में कोई सूचना नहीं है. किसी को भी संदेह होगा कि इसे यूजीसी ने खुद तैयार किया है या फिर झंडेवालान (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिल्ली मुख्यालय) में बैठे लोगों ने!’