
दुनियाभर की सभ्यताओं के विकास में नदियों का योगदान किस कदर रहा है, यह बताने के लिए इतिहास की किताबों में अनेकों घटनाएं दस्तावेजों की भांति मौजूद हैं. सिंधु घाटी से निकले हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर नील नदी की छत्रछाया में पले-बढे़ मैसोपोटामिया के आधुनिक मिस्र बनने तक का सफरनामा भी बताता है कि सिर्फ नदियों की मदद से ही मानव ने जीवन-यापन की बुनियादी जरूरतों से लेकर विकास के तमाम पहलुओं तक को सफलतापूर्वक अर्जित किया है. इसके अलावा दुनियाभर में अनेकों और भी प्रमाण मौजूद हैं, जो बताते हैं कि कैसे नदियों ने अपने योगदान से तमाम सभ्यताओं और संस्कृतियों को आबाद किया है. लेकिन समृद्धि की वाहक रहने वाली नदियों से यदि विनाश की आशंकाओं का जन्म होने लगे तो इसे क्या कहा जाए! हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड राज्य के श्रीनगर इलाके में पिछले लंबे अर्से से उलटबांसियों भरी ऐसी ही एक इबारत लिखी जा रही है. इस इलाके के बीचों-बीच बहने वाली अलकनंदा नदी पर बिजली बनाने के उद्देश्य से चल रही एक परियोजना आज ऐसी अवस्था में पहुंच चुकी है कि, अगर सबकुछ ठीक-ठाक नहीं रहा तो इस नदी का पानी काल बनकर कभी भी इस पूरे इलाके को हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास के अंधेरे कोने में धकेल सकता है. वैसे बीते जुलाई की 26 तारीख ने इस परियोजना में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं होने का संकेत भी दे दिया है. इस पूरी कहानी को समझने के लिए 26 जुलाई की उस घटना के कुछ समय पहले से शुरुआत करते हैं.
बात इसी साल तीन जून की है. श्रीनगर में निर्माणाधीन 330 मेगावाट की अलकनंदा जल विद्युत परियोजना का काम अंतिम चरण में था. इस दिन परियोजना के अधिकारियों ने बिजली उत्पादन की संभावनाएं जांचने के मकसद से परियोजना के पावर हाउस में लगी चार टरबाइनों में से एक की टेस्टिंग की. 82.5 मेगावाट की टरबाइन में की गई यह टेस्टिंग पूरी तरह सफल रही और परियोजना का पावर हाउस अपनी खुद की बिजली से जगमगा उठा. इसके साथ ही उत्साहित परियोजना अधिकारियों ने ऐलान कर दिया कि तीन महीने के अंदर इस पावरहाउस से 330 मेगावाट बिजली का उत्पादन शुरू हो जाएगा. लेकिन इस बीच 26 जुलाई की सुबह एक ऐसी घटना घट गई, जो बिजली उत्पादन के लिए पूरी तरह तैयार बताई जा रही इस परियोजना पर ही बिजली बन कर गिरी. उस दिन परियोजना के डि-सिल्टेशन बेसिन टैंक यानी डीएसबी टैंक की एक ऐसी महत्वपूर्ण दीवार टूट गई जिस पर इस टैंक में जमा पानी को थामने का अहम जिम्मा था. डीएसबी टैंक, बिजली परियोजना का वह हिस्सा होता है जिसमें नदी के पानी को पावर हाउस तक पहुंचाने से पहले इसलिए जमा किया जाता है, ताकि उसमें मौजूद गाद, पत्थर और अन्य कचरा इसकी सतह में बैठ जाए और टरबाइनों तक साफ पानी पहुंचे. एशिया का सबसे बड़ा बताया जाने वाला यह डीएसबी टैंक लगभग 200 मीटर लंबा, 158 मीटर चौड़ा तथा 19 मीटर ऊंचा था. पानी से लबालब भरे इतने विशालकाय टैंक की दीवार के टूटते ही समूचे श्रीनगर में सनसनी फैल गई और अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया. स्थानीय लोग हड़बड़ी में अपने घरों से भागने लगे और निचले इलाके के लोगों को भी इसके बारे में बताने लगे. डीएसबी टैंक वाली जगह से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर रहने वाले चौरास निवासी नागेंद्र सिंह बताते हैं, ‘अफरा-तफरी का माहौल ऐसा था कि हमें लगा शायद परियोजना का मुख्य बांध टूट गया है.’ इस टैंक के टूट जाने के बाद क्षतिग्रस्त दीवार की तरफ से निचले इलाकों में पानी के रिसाव का खतरा बढ़ने लगा तो प्रशासन ने आनन-फानन में परियोजना के मुख्य बांध के गेट खुलवा दिए. इस कवायद के बाद टैंक का पानी धीरे-धीरे अलकनंदा की मुख्यधारा में समाहित हो गया और फौरी तौर पर ही सही मगर एक बड़ा खतरा टल गया. लेकिन यह घटना तब तक समूचे श्रीनगर शहर को सकते में डाल चुकी थी.
सुरक्षा की दृष्टि से बेहद मजबूत माने जाने वाले डीएसबी टैंक के टूट जाने की इस घटना ने परियोजना का संचालन कर रही कंपनी की कार्यप्रणाली को कटघरे में लाने के साथ ही समूचे बांध प्रभावित क्षेत्र के सामने सुरक्षा का संकट पैदा कर दिया है. ऐसे में एक अहम सवाल खड़ा हो गया है कि, अगर कंपनी की कार्यप्रणाली आगे भी ऐसी ही चलती रही तो श्रीनगर से देवप्रयाग और यहां तक कि ऋषिकेश से लेकर हरिद्वार तक में रह रहे लाखों लोगों के जीवन को सुरक्षित कैसे माना जा सकता है ? वह भी तब जबकि इस परियोजना का संचालन करने वाली कंपनी की कार्यप्रणाली कई बार पहले भी सवालों के घेरे में आ चुकी हो.
परियोजना के डीएसबी टैंक की दीवार क्षतिग्रस्त होने से कई दिन पहले से इस टैंक से पावर हाउस तक पानी पहुंचाने वाली नहर से भी पानी का रिसाव हो रहा था

2006 से इस परियोजना का संचालन जीवीके हाइड्रोलैक्ट्रिक कंपनी कर रही है. जीवीके को यह परियोजना उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग से लेकर टाटा और डक्कन गोयनका जैसी कंपनियों के हाथ खड़े करने के बाद हासिल हुई. हस्तांतरण की यह कथा भी बेहद अनूठी है. दरअसल गढ़वाल क्षेत्र में बिजली की कमी को देखते हुए 1985 में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने उत्तरप्रदेश सरकार को यह जल विद्युत परियोजना लगाने की अनुमति दी थी. मंजूरी देते समय मंत्रालय ने साफ तौर पर कहा था कि इस क्षेत्र में बिजली की समस्या को दूर करने के लिए ही इस परियोजना को मंजूरी दी जा रही है. पर्यावरण मंत्रालय से ग्रीन सिग्नल मिल जाने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग ने यहां काम शुरू कर दिया था, लेकिन कुछ रिहाइशी कालोनियां बनाने के बाद ही उसने यह प्रोजेक्ट टाटा कंपनी को बेच दिया. इसके बाद टाटा ने इस परियोजना को डक्कन गोयनका नामक कंपनी के हवाले कर दिया. इस कंपनी ने कुछ साल काम करने के बाद इस प्रोजेक्ट का निर्माण रोक दिया. इसके बाद साल 2006 में यह परियोजना जीवीके कंपनी के जिम्मे आ गई. इस तरह देखा जाए तो जिस जल विद्युत परियोजना को लगाने के लिए इस इलाके में बिजली की कमी का तर्क दिया गया था, उस परियोजना के शुरू होने के पहले 21 सालों तक सिर्फ कंपनियों की अदला-बदली ही चलती रही. 1985 में 200 मेगावाट की अनुमति वाली यह परियोजना 2006 तक आते आते 330 मेगावाट की हो गई थी. बहरहाल इस परियोजना को अपने हाथों में लेने के बाद से अब तक जीवीके कंपनी के कामकाज का बहीखाता खंगाला जाय तो इसके द्वारा बरते गए लापरवाह रवैये और घटिया निर्माण कार्यों की एक लंबी श्रंखला बन चुकी है. लापरवाही और उदासीनता की सबसे ताजा मिसाल तो यही है कि परियोजना की दृष्टि से बेहद अहम माने जाने वाले डीएसबी टैंक के टूटने के पखवाड़े भर बाद तक भी कंपनी के कर्ता-धर्ता इसके कारणों का पता तो दूर अंदाजा तक नहीं लगा पाए हैं. इस दीवार के टूटने के बाद कंपनी अधिकारियों ने कारणों का पता लगाने के लिए एक टीम बनाने की बात कही थी, लेकिन यह टीम कब तक अपना काम पूरा कर लेगी इसको लेकर वे कुछ नहीं बोल पाए थे. तहलका ने भी इस बाबत जीवीके कंपनी से सवाल पूछे थे, लेकिन इन सवालों पर भी उसने कोई जवाब नहीं दिया. अहम सवालों पर कंपनी की यह चुप्पी साफ बताती है कि दीवार टूटने के कारणों का पता लगाने में उसके हाथ अभी तक खाली हैं.
प्रख्यात अर्थशास्त्री और इस परियोजना का मुखर विरोध करने वाले डॉ भरत झुनझुनवाला कहते हैं, ‘जीवीके कंपनी द्वारा नियमों को ताक पर रखते हुए इतना बड़ा टैंक बना दिया गया था जिसकी उसे अनुमति ही नहीं थी. यह टैंक इस परियोजना को स्वीकृति मिलने के वक्त तैयार की गई डीपीआर के मुकाबले कहीं अधिक बड़ा था.’ दरअसल इस परियोजना को 1985 में स्वीकृति मिली थी. तबसे लेकर अब तक कंपनी ने दुबारा कभी भी इस परियोजना के लिए पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति लेने की जहमत नहीं उठाई. झुनझुनवाला कहते हैं, ‘नियमों के मुताबिक इस तरह की किसी भी परियोजना को प्रत्येक पांच साल में पर्यावरणीय स्वीकृति लेनी जरूरी होती है. लेकिन जीवीके कंपनी इस परियोजना को जारी परियोजना (कंटीन्यूइंग प्रोजक्ट) बता कर हर बार इस प्रक्रिया से बचती रही.’
डीएसबी टैंक के टूटने की घटना को लेकर पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक और जानेमाने पर्यावरणविद रवि चोपड़ा एक और चौंकाने वाली बात बताते हैं. वे कहते हैं, ‘पिछले साल उत्तराखंड में आई आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आपदा में हुए नुकसान में बांधों की भूमिका की पड़ताल करने के लिए एक कमेटी बनाई थी, जिसमें मैं भी शामिल था. इसी क्रम में इस साल जनवरी में हमने श्रीनगर परियोजना की साइट का दौरा किया. उस वक्त इस टैंक की दीवार पर कोटिंग का काम चल रहा था. इस दौरान हमने देखा कि टैंक की दीवारों के अलग-अलग जोड़ों को भरने के लिए कंपनी के कर्मचारी एपाक्सी यानी एक खास तरह की गोंद का प्रयोग कर रहे थे. इसके बाद हमारी टीम में शामिल एक इंजीनियर ने इस टैंक के असुरक्षित होने की आशंका जाहिर कर दी थी. अब इस टैंक के टूट जाने के बाद वह आशंका सही साबित हो गई है.’

अलकनंदा नदी पर निर्माणाधीन इस बिजली परियोजना के डीएसबी टैंक की दीवार क्षतिग्रस्त होने से कई दिन पहले से इस टैंक से पावर हाउस तक पानी पहुंचाने वाली नहर में भी पानी का रिसाव हो रहा था. इसको लेकर चौरास स्थित मंगसूं गांव के ग्रामीण पिछले महीने भर से धरना भी दे रहे थे. क्योंकि नहर से रिसने वाला पानी मंगसू गांव के कई घरों में घुस रहा था. इसके अलावा पावरहाउस के पास स्थित किल्किलेश्वर इलाके के नौर गांव के कई घरों को भी इस नहर का पानी तालाब बनाने पर आमादा था. इसको लेकर स्थानीय लोगों ने प्रशासन के साथ ही कंपनी के अधिकारियों से कई बार शिकायत कर चुके थे. नौर गांव के प्रधान आशीष गैरोला बताते हैं, ‘हमारी शिकायत पर कंपनी के लोगों के साथ ही प्रशासन ने भी पहले तो यह मानने से ही इंकार कर दिया कि रिसने वाला पानी परियोजना की नहर का है, बाद में जब हमने उन्हें इसके सबूत दिखाए, तब भी कंपनी ने इसे मामूली बात बता कर खारिज कर दिया.’ नहर से होने वाले रिसाव के विरोध में धरना दे रहे मंगसू गांव के प्रधान राजेश बहुगुणा बताते हैं, ‘इस रिसाव को रोकने की मांग को लेकर हम लोगों ने महीने भर पहले ही धरना शुरू कर दिया था, मगर कंपनी इसकी अनदेखी करती रही. अब डीएसबी टेंक के टूट जाने के बाद हमारा डर और भी बढ़ गया है क्योंकि इस टैंक के ठीक सामने हमारा गांव ही पड़ता है.’ धरने पर बैठे मंगसू गांव के ग्रामीणों को समर्थन देने पहुंचे इस इलाके के पूर्व ब्लॉक प्रमुख विजयंत सिंह कहते हैं, ‘नहर में होने वाले रिसाव के चलते निचले इलाकों की जमीन कई जगहों पर बुरी तरह धंस चुकी है, जिससे भविष्य में कोई भी बड़ी अनहोनी हो सकती है.’
तहलका ने जब इस पूरे इलाके का दौरा किया तो इस परियोजना के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक उसे ऐसे कई प्रमाण मिले जो इस परियोजना में हुए घटिया निर्माण कार्यों के बारे में खुद ही बता रहे थे. डीएसबी टैंक से पावर हाउस तक जाने वाली नहर की ही बात करें तो, इस नहर के बाहरी हिस्से में कई जगहों पर दरारें दिख रही थीं. इन दरारों को ढंकने के लिए कंपनी ने इन पर सीमेंट स्प्रे पोत दिया था. इसके अलावा नहर के अंदरूनी हिस्से भी कई जगहों पर उखड़े हुए थे. इस परियोजना में काम करने वाले एक इंजीनियर नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि, ‘इस नहर को जिस तरीके से बनाया गया है उसमें सीमेंट स्प्रे के टिकने की कोई संभावना नहीं रहती है. यह तो कंपनी द्वारा अपनी लापरवाही छुपाने के लिए अपनाया गया एक पैंतरा मात्र है.’
इन सभी तथ्यों, आरोपों तथा आशंकाओं को देखते हुए एक और अहम सवाल उठता है कि, क्या ऐसा कोई भी आधार है जिसके दम पर यह कहा जा सके कि यह परियोजना महफूज है?
तथ्यों से परिपूर्ण लाजवाब। उपयोग में लिया जाएगा।
श्रीनगर जलविद्युत परियोजना के विनाशकारी प्रभावों को उजागर करती प्रदीप सती की रिपोर्ट प्रशंसनीय और काबिले गौर है.तहलका के इस अंक के लिहाज से यह रिपोर्ट इसलिए भी सुकूनदायक है क्यूंकि कवर स्टोरी के नाम पर अतुल चौरसिया नामक “सज्जन” ने व्यक्तिगत दुराग्रहों से ग्रसित होकर, जिस तरह का कलमी विष वमन कर जहरीला कूड़ा-कचरा फैलाया है,उसके बरक्स यह रिपोर्ट कुछ वास्तविक पत्रकारिता का भी आभास कराती है
बड़े दुःख की बात है इतने बड़े मुद्दे पर विपक्षी पार्टी भी सड़क पर नहीं उतरी …
एक शानदार और तथ्यों से परिपूर्ण रिपोर्ट। अगर हम और सरकारें अभी भी नहीं चेती तो भविष्य में 2013 की आपदा से भी महाआपदा आना तय है