हरप्रीत कौर की अजब कहानी

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फोटो: विजय पांडे

साल 2013. दिल्ली में इस साल की शुरुआत धरनों, प्रदर्शनों, भूख हड़ताल और नारों से हुई थी. 16 दिसंबर 2012 की शाम जो हादसा निर्भया के साथ हुआ उसने दिल्ली ही नहीं पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था. इसके बाद लाखों लोग सड़कों पर उतर आए थे. कहीं निर्भया को न्याय दिलाने की मांग थी तो कहीं महिलाओं की सुरक्षा के लिए नए कानून बनाने के आंदोलन हो रहे थे. दिल्ली का जंतर मंतर इस आंदोलन का सबसे बड़ा प्रतीक बना. देश के कोने-कोने से आए आंदोलनकारी यहां एकजुट हुए. लुधियाना (पंजाब) से आई हरप्रीत कौर (बदला हुआ नाम) भी इन्हीं में से एक थीं. हरप्रीत सिर्फ निर्भया के लिए ही नहीं बल्कि अपने लिए भी न्याय की मांग लेकर यहां आई थीं. उनका आरोप था कि पंजाब कैडर के एक आईपीएस अफसर ने उनके साथ बलात्कार किया है.

अप्रैल 2013 में बलात्कार संबंधी कानूनों को राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद निर्भया आंदोलन समाप्त हो गया. इसके साथ ही देश भर से आए आंदोलनकारी भी अपने-अपने घर लौट गए. लेकिन हरप्रीत आज भी न्याय के इंतजार में जंतर मंतर पर ही बैठी हैं. निर्भया के अपराधियों को तो सितम्बर 2013 में फांसी की सजा सुना दी गई थी लेकिन हरप्रीत की शिकायत पर आज तक प्रथम सूचना रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई है. हरप्रीत को जंतर मंतर पर धरना देते 16 महीने बीत चुके हैं. उनकी मांग है कि उनकी शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की जाए और मामले की जांच हो. हरप्रीत के अनुसार यह घटना 2010 की है. तब से अब तक वे इस संबंध में पंजाब और दिल्ली के पुलिस थानों से लेकर पुलिस के सर्वोच्च अधिकारियों, राज्य और केंद्र के लगभग सभी मंत्रालयों, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और संयुक्त राष्ट्र संघ तक को शिकायत भेज चुकी हैं. उनकी शिकायतों पर विभागीय जांच तो कई बार हो चुकी है लेकिन दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार आज तक कुछ भी नहीं हुआ.

कानूनी प्रक्रिया के अनुसार बलात्कार की सूचना मिलने पर पुलिस का पहला काम प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना होता है. पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रक्रिया को और भी मजबूती दी है. नवंबर 2013 में मुख्य न्यायाधीश सदाशिवम की अध्यक्षता में पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने इस संबंध में एक ऐतिहासिक फैसला दिया. इसके बाद से पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य हो गया है. फैसले में न्यायालय ने यह भी कहा था कि प्रथम सूचना दर्ज न करने पर संबंधित पुलिस अधिकारी के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी की जाएगी. लेकिन हरप्रीत का मामला इस फैसले से भी प्रभावित नहीं हुआ. दिल्ली पुलिस के सहयोग से महिलाओं के हित में काम करने वाली संस्था ‘प्रतिधि’ के प्रतिनिधि योगेश कुमार बताते हैं, ‘प्रभावशाली लोगों के खिलाफ आज भी आसानी से रिपोर्ट दर्ज नहीं होती. हालांकि निर्भया मामले के बाद हालात बदले हैं और पुलिस पर रिपोर्ट दर्ज करने का दबाव काफी बढ़ गया है. लेकिन अब भी बड़े अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करना आसान नहीं है. दिल्ली से बाहर तो स्थिति और भी ज्यादा गंभीर है.’

पिछले लगभग डेढ़ साल से देश की राजधानी में धरना दे रहीं हरप्रीत के अनुसार चार साल पहले उनके साथ बलात्कार हुआ था. इतने समय में सामान्यतः बलात्कार के मामलों की जांच पूरी होकर न्यायालय का फैसला भी आ जाता है. लेकिन हरप्रीत का मामला अब तक आपराधिक प्रक्रिया की पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ सका है. दिलचस्प यह है कि उनके मामले में एकमात्र यही विरोधाभास नहीं है. यह पूरा मामला विरोधाभासों की एक ऐसी श्रृंखला है जो देश के बलात्कार संबंधी कानूनों की हर तस्वीर बयान करती है. हरप्रीत का मामला बलात्कार संबंधी कानूनों के उपयोग, दुरूपयोग और सुविधानुसार उपयोग का एक दुर्लभ उदाहरण है. इस मामले को समझने की शुरुआत जंतर मंतर से ही करते हैं जहां हरप्रीत कई महीनों से धरने पर बैठी हैं.

जंतर मंतर पर सड़क के दोनों ओर लगे दर्जनों टेंटों में से एक हरप्रीत का है. टेंट के बाहर एक बड़ा-सा बैनर लगा है. इस पर एक तरफ पंजाब कैडर के आईपीएस अफसर डीआईजी नौनिहाल सिंह की तस्वीर बनी है और दूसरी तरफ उतनी ही बड़ी तस्वीर हरप्रीत की है. बैनर पर लिखा है ‘हरप्रीत कौर से बलात्कार करने और जान से मारने की धमकी देने के आरोप में नौनिहाल सिंह के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट और गिरफ्तारी की मांग हेतु 12 जनवरी 2013 से अनिश्चितकालीन धरना.’ टेंट के अंदर दो बक्से, कुछ कपड़े और एक चारपाई रखी है. हरप्रीत अपने कुछ साथियों के साथ इसी चारपाई पर बैठी हैं. उनसे बात शुरू करने से पहले ही एक व्यक्ति हरप्रीत के पास एक पत्र लेकर आता है. इस पत्र पर बाहर लिखा है – ‘हरप्रीत कौर, कैंप नंबर 7, जंतर मंतर. दिल्ली.’ यह पत्र प्रधानमंत्री कार्यालय से आया है. पिछले काफी समय से हरप्रीत के सभी पत्र इसी पते पर आते हैं. जंतर-मंतर उनकी पहचान से अब इस तरह जुड़ चुका है कि उनके आधार कार्ड पर भी यही पता लिखा गया है. लंबे समय से यहीं रह रही हरप्रीत सबसे पहले अपने इसी अनुभव के बारे में बताती हैं. वे कहती हैं, ‘पिछले डेढ़ साल से मैं यहां हूं. यहां धरना देने के लिए सिर्फ सर्दी या गर्मी ही नहीं बल्कि और भी बहुत कुछ सहना होता है. कई बार नगर निगम वाले आकर मेरा टेंट उखाड़ देते हैं. पुलिस वाले भी कई तरह के आते हैं. कुछ अच्छे से बात करते हैं तो कुछ बदतमीजी की सारी हदें पार कर जाते हैं.’ सब तकलीफों के बावजूद भी हरप्रीत ने खुद को जंतर मंतर के अनुसार ढाल लिया है. सुबह उठकर वे पास के गुरुद्वारे चली जाती हैं. स्नान आदि के साथ ही नाश्ते की व्यवस्था भी गुरुद्वारे में ही हो जाती है. इसके बाद जब वे लौटकर जंतर मंतर आती हैं तो अन्य लोगों के धरनों में भी शामिल हो जाती हैं. अपने मन का गुबार निकालने के लिए उन्हें यहां किसी न किसी नेता के पुतले को जूता मारने का मौका लगभग रोज ही मिल जाता है.

जंतर-मंतर पर बने अपने अस्थाई ठिकाने में हरप्रीत कौर. फोटो: विजय पांडेय

अपनी कहानी सुनाते हुए हरप्रीत बताती हैं, ‘मैं ह्यूमन राइट्स मंच नाम की एक संस्था में कई सालों से काम करती थी. इसके चलते मैं कई अधिकारियों से भी मिलती रहती थी. 16 जून 2010 को मैं एक शिकायत लेकर नौनिहाल सिंह के ऑफिस गई थी. मेरे साथ तीन अन्य लोग भी थे. मैंने एक व्यक्ति को 40 हजार रुपये उधार दिए थे जो मुझे वापस नहीं मिल रहे थे. वह व्यक्ति संगरूर जिले का रहने वाला था. नौनिहाल सिंह उस वक्त संगरूर का एसएसपी था.’ हरप्रीत आगे बताती हैं, ‘जब हम नौनिहाल के ऑफिस पहुंचे तो संत्री ने बताया कि साहब अपने आवास पर हैं. उनका आवास ऑफिस के साथ ही पिछली तरफ था. मेरे साथ आए लोगों को संत्री ने बाहर ही बैठने को कहा और मुझे अकेले नौनिहाल के पास भेज दिया. नौनिहाल ने मेरी शिकायत सुनी और मुझे कॉफी के लिए भी पूछा. मैं जब बैठ कर कॉफी पी रही थी तो नौनिहाल कमरे में इधर-उधर घूम रहा था. मुझे नहीं पता उसने कब कमरे का दरवाजा बंद किया. इसके बाद उसने मुझे पीछे से आकर पकड़ लिया. मेरे शोर मचाने पर मेरे साथ आए लोगों ने अंदर आने की कोशिश की लेकिन पुलिस वालों ने उन्हें अंदर नहीं आने दिया. नौनिहाल ने मेरा बलात्कार किया और मुझे धमकी दी कि मैं किसी को भी ये नहीं बताऊं.’

हरप्रीत आगे बताती हैं, ‘मैं जब नौनिहाल के कमरे से बाहर निकली तो मेरे साथ आए लोग वहां मौजूद नहीं थे. मैंने उनके बारे में पता किया तो मालूम हुआ कि पुलिस ने उनसे मारपीट की है और उन्हें वहीं एक कमरे में बंद कर दिया है. मैंने जब बाकी पुलिसवालों को यह बताया कि एसएसपी नौनिहाल सिंह ने मेरे साथ बलात्कार किया है तो उन्होंने नौनिहाल को बुला लिया. इसके बाद नौनिहाल ने उन्हें मुझे मारने के आदेश दिए. नौनिहाल के आदेश पर उसके स्टाफ के गुरमैल सिंह और परमजीत सिंह ने मुझे लाठियों से पीटा. मेरे पूरे शरीर में चोटें आई और हाथ और पैर की हड्डी टूट गई.’

हरप्रीत के अनुसार इस घटना के बाद पुलिस उन्हें थाने ले गई और उनसे एक डीडीआर (डेली डायरी रिपोर्ट) पर हस्ताक्षर करवाए गए. इस डीडीआर में लिखा था कि हरप्रीत और उनके साथियों को बस के दरवाजे से फिसलने के कारण चोटें आई हैं. हरप्रीत बताती हैं, ‘घटना के अगले दिन जब मेरे गांव वालों को यह बात पता लगी तो गांव के सैकड़ों लोग शिकायत दर्ज कराने पहुंचे. हमने पुलिस अधिकारियों से लेकर जिलाधिकारी तक को शिकायत की. मामले की विभागीय जांच हुई और दो पुलिस वाले कुछ महीनों के लिए सस्पेंड भी हुए लेकिन आज तक बलात्कार की प्रथम सूचना रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई.’ इसके कुछ समय बाद ही नौनिहाल सिंह का तबादला चंडीगढ़ हो गया था.

दिल्ली आने के बारे में हरप्रीत कहती हैं, ‘पंजाब और चंडीगढ़ में मेरी कोई सुनवाई नहीं हुई. मैं उच्च न्यायालय  और सर्वोच्च न्यायालय तक अपना मामला लेकर जा चुकी हूं. लेकिन पुलिस ने न्यायालय को बताया कि इस मामले में पहले ही कई बार जांच हो चुकी है. न्यायालय ने पुलिस के इस जवाब को स्वीकार भी कर लिया. 2012 में जब निर्भया मामले के बाद दिल्ली में आंदोलन हुआ तो मुझे लगा कि शायद मुझे भी न्याय मिल जाए. मैं 12 जनवरी 2013 को दिल्ली आ गई. मैंने यहां आकर कई दिनों तक भूख हड़ताल की. मेरी इतनी तबीयत बिगड़ गई कि मुझे अस्पताल में दाखिल किया गया. मैंने तब भी भूख हड़ताल जारी रखी. इसी बीच मेरे पिताजी की भी दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. मुझे घरवालों ने पिताजी की मौत के बारे में नहीं बताया क्योंकि मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मैंने कई दिनों के बाद अपनी भूख हड़ताल तब तोड़ी जब किरण बेदी ने मुझे विश्वास दिलाया कि वे मुझे न्याय दिलाएंगी. आज मेरे साथ कोई नहीं है. लेकिन मुझे यकीन है कि भगवान मेरे साथ है और मुझे एक दिन न्याय मिलेगा.’

अब तक लिखी गई बातें हरप्रीत की कहानी का वह हिस्सा हैं जो हरप्रीत ने खुद तहलका को पहली मुलाकात में बताया. कहानी का यही पहलू हरप्रीत अपने हालिया पत्रों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा समेत अन्य कई लोगों को भी भेज चुकी हैं. इसके बाद जब तहलका ने हरप्रीत से उनके दस्तावेज मांगे तो कुछ आना-कानी के बाद हरप्रीत दो दिन बाद दस्तावेज देने को तैयार हुई. अपने बक्से में से लगभग पांच सौ पन्नों की एक फाइल निकाल कर हरप्रीत ने अपने सहयोगी को उसकी एक फोटो-कॉपी कराने को कहा. दिल्ली में हरप्रीत के साथ उनके तीन सहयोगी ऐसे हैं जिन्हें उन्होंने नौकरी पर रखा है. ये सहयोगी हरप्रीत के साथ ही जंतर मंतर पर ही रहते हैं और विभिन्न विभागों को पत्र पहुंचाने से लेकर सभी छोटे-बड़े काम करते हैं. जंतर मंतर पर हरप्रीत अपने दस्तावेजों की नकल ही रखती हैं. असली दस्तावेजों के लिए उन्होंने पास के ही ओवरसीज बैंक में एक लॉकर ले लिया है. कुछ पंजाबी और कुछ अंग्रेजी भाषा के लगभग पांच सौ पन्नों के इन दस्तावेजों को खंगालने पर हरप्रीत की कहानी का एक नया ही पहलू सामने आता है.

नौनिहाल सिंह पर बलात्कार का आरोप लगा रहीं हरप्रीत कौर की शुरूआती शिकायतों में कहीं भी बलात्कार का जिक्र तक नहीं है. 16 जून 2010 की इस घटना के बाद जो शिकायत हरप्रीत ने जमा कराई थी उसमें सिर्फ यह कहा गया था कि गुरमैल सिंह और परमजीत सिंह नाम के दो पुलिस वालों द्वारा हरप्रीत को बुरी तरह पीटा गया है. दिलचस्प बात यह भी है कि यह शिकायत सबसे पहले हरप्रीत और उसके साथियों द्वारा नौनिहाल सिंह को ही दी गई थी. नौनिहाल सिंह ने ही 16 जून की घटना पर जांच के आदेश दिए थे और आज नौनिहाल सिंह पर ही 16 जून को हरप्रीत से बलात्कार करने का आरोप है. साल 2010 में हरप्रीत ने नौनिहाल सिंह के अलावा जिलाधिकारी संगरूर, डीजीपी पंजाब और पंजाब मानवाधिकार आयोग को भी अपनी शिकायत भेजी थी. इन शिकायतों में भी पुलिस द्वारा मारपीट के ही आरोप लगाए गए थे और बलात्कार का कहीं जिक्र नहीं था. हरप्रीत की इन शिकायतों पर संगरूर जिले के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक लखविंदर सिंह को जांच सौंपी गई. इस जांच के दौरान उन दोनों पुलिस कर्मचारियों को सस्पेंड कर दिया गया था जिन पर हरप्रीत ने मारपीट के आरोप लगाए थे.

पुलिस अधीक्षक लखविंदर सिंह द्वारा की गई जांच में हरप्रीत की तरफ से 64 गवाहों के बयान दर्ज किए गए. इन गवाहों में वे तीन लोग भी शामिल थे जो घटना वाले दिन हरप्रीत के साथ ही नौनिहाल सिंह के ऑफिस गए थे. इन तीनों में से एक भी गवाह ने यह बयान नहीं दिए कि हरप्रीत के साथ बलात्कार हुआ है. इनके अलावा सभी 64 गवाहों ने अपने बयानों में कहा कि पुलिस ने हरप्रीत को बुरी तरह से पीटा और जूतों की माला पहना कर पूरे परिसर में घुमाया. पुलिस अधीक्षक ने जब इन 64 लोगों की वहां मौजूदगी पर सवाल किए तो इनमें से अधिकतर का कहना था कि वे एक फॉर्म जमा करने नौनिहाल सिंह के ऑफिस पहुंचे थे. लेकिन जांच अधिकारी की रिपोर्ट में लिखा है कि उस दिन छुट्टी थी और बहुत ही सीमित स्टाफ ऑफिस में मौजूद था. साथ ही जांच रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उस तारीख को सिर्फ दो ही फॉर्म जमा हुए हैं. ये दो फॉर्म भी जिन लोगों के थे वे हरप्रीत के गवाहों में शामिल नहीं थे. ऐसे में जांच अधिकारी ने इनकी गवाही को झूठा पाया और अंततः दोनों पुलिस कर्मचारियों को दोषमुक्त कर दिया. इस जांच में यह भी पाया गया कि हरप्रीत और उसके भाई के खिलाफ पहले से ही कई आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं. जनवरी 2011 में जांच पूरी हुई और दोनों पुलिस वालों की नौकरी बहाल कर दी गई.

हरप्रीत के गवाहों में शामिल रहे लोगों से भी तहलका ने संपर्क किया. मुर्थला मंडेर गांव के रहने वाले जसप्रीत सिंह इस मामले में गवाह नंबर 12 थे. ‘मैं हरप्रीत को नहीं जानता था. मुझे अपने मामा की बेटी की पुलिस में भर्ती करानी थी. मुझे गांव के एक आदमी ने हरप्रीत से मिलवाया और कहा कि ये भर्ती करवा देगी. हरप्रीत ने मुझसे एक कागज पर दस्तखत करवाए. मुझे बाद में पता चला कि मेरी गवाही हो गई है. उसके बाद अगर हरप्रीत मुझे मिल जाती तो मैं उसका गला दबा देता.’ अपनी गवाही के बारे में पूछे जाने पर जसप्रीत सिंह बताते हैं, ‘मैंने चंडीगढ़ जाकर भी पुलिस को बताया था कि मैंने कोई गवाही नहीं दी थी.’

पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय में भी हरप्रीत ने एक याचिका दाखिल की थी. इस याचिका में हरप्रीत ने नौनिहाल सिंह से जान का खतरा बताते हुए सुरक्षा की मांग की थी. न्यायालय ने पाया कि हरप्रीत के खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं और उन्हें सुरक्षा देने का कोई भी आधार नहीं है. हरप्रीत की इस याचिका को न्यायालय ने खारिज कर दिया. कुछ समय बाद हरप्रीत यही मामला लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंचीं लेकिन वहां से भी उनकी याचिका खारिज हुई. चंडीगढ़ में हरप्रीत के वकील रहे फरियाद सिंह बताते हैं, ‘हरप्रीत ने बलात्कार की कोई बात नहीं की थी. उन्होंने सिर्फ सुरक्षा मांगी थी लेकिन वो याचिका खारिज हो गई थी.’

हरप्रीत द्वारा दो पुलिस अधिकारियों पर लगाए गए मारपीट के आरोप जब साबित नहीं हुए तो उन्होंने कई अन्य मंत्रालयों और लोगों को शिकायत भेजना शुरू किया. इसी कड़ी में 23 मार्च 2011 को हरप्रीत ने पंजाब के उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को एक पत्र भेजा. इस पत्र में पहली बार हरप्रीत ने नौनिहाल सिंह पर बलात्कार का आरोप लगाया था. यह आरोप भी उस कहानी से बिलकुल अलग था जो हरप्रीत आज बताती हैं. इस पत्र में मुख्य तौर से उन्हीं दो पुलिसवालों की शिकायत की गई थी जिनकी शिकायत हरप्रीत पहले ही करती आ रही थीं और जिनकी जांच संगरूर के पुलिस अधीक्षक कर चुके थे. लेकिन मुख्य शिकायत के साथ ही इस पत्र में लिखा था, ‘आईपीएस नौनिहाल सिंह न सिर्फ 2001 से मेरा बलात्कार कर रहा है बल्कि अब उसने मेरा जीना मुश्किल कर दिया है. मैं इस डर से इसकी यातनाएं झेल रही हूं कि कहीं ये मेरे पति या घरवालों को न बता दे. मेरे पास चंडीगढ़ के शिवालिक व्यू होटल में कमरे की बुकिंग की रसीद है और एक वीडियो भी है. यह वीडियो मैंने ही सबूत के तौर पर बनाई थी. मैं कभी भी यह वीडियो पेश कर सकती हूं.’

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2012 में निर्भया बलात्कार मामले के बाद लाखों लोग सड़क पर उतर आए थे. फोटो: विकास कुमार

यह पत्र हरप्रीत के बलात्कार की कहानी को बिलकुल अलग दिशा में मोड़ देता है. इस संबंध में पूछने पर हरप्रीत पहले तो इस बात से इनकार करती हैं कि वे कभी नौनिहाल सिंह से होटल में मिली थी. लेकिन उन्हीं का दिया और हस्ताक्षर किया हुआ पत्र दिखाने पर वे इस बात को स्वीकार करती हैं. हरप्रीत बताती हैं, ‘2011 में मैंने ही होटल में कमरा बुक करवाया था. वहां नौनिहाल सिंह आया और मैंने वीडियो भी बनाई. वह वीडियो आज भी मेरे पास है. लेकिन मैं गुरुग्रंथ की कसम खाती हूं कि 2010 में नौनिहाल ने मेरा बलात्कार किया था और उससे पहले हमारे कोई शारीरिक संबंध नहीं रहे हैं.’ हरप्रीत का यह बयान भी उस पत्र में लिखी बातों से मेल नहीं खाता जिसमें उन्होंने कहा था कि नौनिहाल सिंह 2001 से ही उनका बलात्कार कर रहा है. तहलका ने जब हरप्रीत के मामले में और जानकारी जुटाई तो यह तथ्य भी सामने आया कि यह मामला बलात्कार का नहीं बल्कि हरप्रीत द्वारा नौनिहाल सिंह को बदनाम करने का है.

पिछले साल जब निर्भया आंदोलन के दौरान हरप्रीत दिल्ली आई थी तो सबसे पहले उनकी मुलाकात भगत सिंह क्रांति सेना के तेजिंदर बग्गा से हुई थी. तेजिंदर बताते हैं, ‘हमने शुरुआत में उनकी मदद की. उन्हें कई संस्थाओं से भी मिलवाया. फिर हमें उन पर कुछ शक हुआ तो हम खुद ही पीछे हट गए. वे कभी कहती थीं मेरा बलात्कार हुआ है, कभी कहती मैंने सीडी बनाई है और कभी कहती थी कि मैंने तीन बार सीडी बनाई है.’ तेजिंदर सवालिया अंदाज में कहते हैं, ‘कोई महिला अपने बलात्कार की तीन बार सीडी कैसे बना सकती है?’

तेजिंदर के अलावा हरप्रीत की मुलाकात रिची लुथारिया से भी हुई थी. रिची निर्भया आंदोलन के दौरान जंतर-मंतर पर प्रदर्शनकरियों का नेतृत्व करने वालों में से एक थे. रिची से जब हरप्रीत के बारे में पूछा गया तो वे बताते हैं, ‘उस महिला का मामला पूरी तरह से झूठा है. हमें भी शुरू में उनके आंसू देख कर धोखा हुआ और हमने उनका साथ दिया. कई छात्रों ने तो हरप्रीत की कहानी सुनकर नुक्कड़ नाटक भी तैयार किया. जंतर मंतर से लेकर शहर के कोने-कोने में छात्रों ने हरप्रीत के समर्थन में नुक्कड़ नाटक किए. मैं खुद हरप्रीत को लेकर मानवाधिकार आयोग भी गया था. लेकिन जब भी मैं उनसे उनके दस्तावेज मांगता था वे किसी बहाने से टाल देती थीं. उस समय निर्भया आदोलन अपने चरम पर था और हम बहुत ज्यादा व्यस्त थे. इसलिए हमें भी कभी इतना समय नहीं मिला.’ रिची आगे बताते हैं, ‘अप्रैल के बाद जब आंदोलन सफल हो गया तब मैंने हरप्रीत के दस्तावेजों को ध्यान से देखा. उनसे मुझे पता चला कि इनमें कहीं बलात्कार का जिक्र ही नहीं है. हरप्रीत मुझसे कहने लगीं कि किसी तरह पुराने कागजों में भी बलात्कार का जिक्र जोड़ दो. मुझे बड़ी हैरानी हुई और मैंने उनसे कहा कि मैं तुम्हारा साथ नहीं दूंगा. मैं समझ गया कि वह कोई पीड़ित नहीं है बल्कि ब्लैकमेल करने के लिए या किसी अन्य दुर्भावना से बलात्कार का ढोंग कर रही है. मैंने निर्भया आंदोलन के फेसबुक पेज पर इस बारे में लिखा भी था. इसके बाद तो हरप्रीत ने मुझ पर हमला करवा दिया. अपने कुछ गुंडों के साथ उसने मेरे कपड़े फाड़ दिए और मुझे मारा. मैंने संसद मार्ग थाने में हरप्रीत से जान का खतरा बताते हुए रिपोर्ट भी दर्ज कराई थी.’

तहलका ने जब आईपीएस अफसर नौनिहाल सिंह से उन पर लग रहे आरोपों के बारे में पूछा तो उनका कहना था, ‘इस मामले की 15-16 बार अलग-अलग स्तर पर जांच हो चुकी है. मैंने हर बार जांच में पूरा सहयोग किया है. यह मामला उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक जा चुका है लेकिन कभी कुछ नहीं निकला. उस महिला का या तो मानसिक संतुलन ठीक नहीं है या फिर उसके पीछे कुछ अन्य लोग हैं जो मुझे बदनाम करना चाहते हैं.’ यह पूछे जाने पर कि वे हरप्रीत के खिलाफ मानहानि का मुकदमा क्यों नहीं करते नौनिहाल सिंह बताते हैं, ‘मुझे जिस भी जांच में अपनी बात रखनी थी मैंने रखी है. मेरे परिवार के लोग मुझ पर विश्वास करते हैं इसके अलावा मुझे किसी बात से फर्क नहीं पड़ता.’ नौनिहाल सिंह हरप्रीत के बारे में बताते हैं, ‘उसकी पहली शिकायत पर सबसे पहले मैंने ही जांच के आदेश दिए थे. तब उसकी शिकायत थी कि कुछ पुलिस वालों ने उससे मारपीट की है. मुझे अपने सूत्रों से पता चला है कि हरप्रीत गांव के लोगों से पुलिस में भर्ती कराने के नाम पर पैसे लेती थी. उसने मेरे नाम पर भी कई लोगों से पैसे लिए. जब लोगों की भर्ती नहीं हुई और लोग उससे सवाल करने लगे तो उसने मुझ पर ही ऐसे आरोप लगा दिए.’

निर्भया आंदोलन से जुड़े रहे और हरप्रीत के मामले को नजदीक से देख चुके एक सामाजिक कार्यकर्ता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘हरप्रीत कई बार यह जिक्र कर चुकी हैं कि उसके पास नौनिहाल सिंह की कोई वीडियो है. शायद यही कारण है कि नौनिहाल हरप्रीत के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करते. कानूनन तो हरप्रीत ऐसा कुछ भी नहीं कर सकतीं जिससे नौनिहाल  पर कोई आंच आए. यह बात नौनिहाल भी अच्छे से जानते हैं. लेकिन यदि उन्होंने हरप्रीत के खिलाफ कोई कार्रवाई की और वह वीडियो सार्वजनिक हो गया तो नौनिहाल सिंह ज्यादा बदनाम होंगे. हरप्रीत का भी उद्देश्य प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करवाना नहीं है. यदि ऐसा होता तो वे कभी भी कोर्ट में जाकर शिकायत दर्ज करवा सकती थीं. ऐसा करते ही मामले की सुनवाई शुरू हो जाती. लेकिन वे जानती हैं कि उन्हें भी कोर्ट से कुछ नहीं मिलेगा. इसलिए वे बस समाज के बीच पीड़िता बनी रहना चाहती हैं और नौनिहाल सिंह को ऐसे ही बदनाम करना चाहती हैं.’

हरप्रीत के दस्तावेजों के आधार पर दिल्ली उच्च न्यायालय के अधिवक्ता गौरव गर्ग बताते हैं, ‘दस्तावेजों से यह मामला पहली नजर में ही झूठा प्रतीत होता है. यह किसी भी तरह से बलात्कार का मामला नहीं है. लेकिन यह भी सही है कि बलात्कार की शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट का दर्ज न होना कहीं से भी सही नहीं ठहराया जा सकता. भारतीय दण्ड संहिता में हुए हालिया संशोधन के बाद तो बलात्कार जैसे गंभीर मामलों में प्रथम सूचना दर्ज करना आनिवार्य हो गया है. इनकार करने पर पुलिस वालों के खिलाफ धारा 166ए (सी) के तहत कार्रवाई की जा सकती है जिसमें दो साल तक की सजा का भी प्रावधान है. रिपोर्ट दर्ज करने के बाद जांच में यदि मामला झूठा निकले तो उल्टा शिकायतकर्ता पर धारा 211 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है.’ गौरव आगे बताते हैं, ‘बलात्कार के मामलों में दो तरह की गड़बड़ियां देखने को मिलती हैं. एक, प्रभावशाली लोगों के खिलाफ पुलिस मामला दर्ज ही नहीं करती. दूसरा, यदि रिपोर्ट दर्ज हो जाए तो पुलिस तुरंत ही आरोपित को गिरफ्तार कर लेती है. कानूनन प्रथम सूचना दर्ज करना अनिवार्य है, गिरफ्तारी नहीं. ऐसी गिरफ्तारी ही बलात्कार संबंधी कानूनों के दुरूपयोग को जन्म देती है.’

बीते कुछ समय में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जहां बलात्कार के आरोप कई बड़े नामों पर लगे हैं. लेकिन इन सभी में व्यक्तियों के अनुसार कानून को बदलते भी साफ देखा जा सकता है. मसलन तरुण तेजपाल पर जब आरोप लगा था तो पीड़िता के पुलिस तक पहुंचने से पहले ही गिरफ्तारी की मांग शुरू हो गई थी और जल्द ही गिरफ्तारी भी हुई. वहीं जब ऐसा ही आरोप जस्टिस गांगुली पर लगा तो गिरफ्तारी तो दूर उन्होंने मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा तक नहीं दिया. ठीक ऐसे ही जब आसाराम ने न्यायालय से अपने मामले की मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगाने की मांग की तो न्यायालय ने उनकी मांग को ठुकरा दिया. वहीं जब सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश पर बलात्कार का आरोप लगा तो सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं ही मीडिया को आरोपित का नाम तक प्रकाशित करने से प्रतिबंधित कर दिया.

गिरफ्तारी के संबंध में ‘अमरावती बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ का फैसला बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है. यह फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2004 में दिया गया था. जस्टिस मार्कंडेय काट्जू की अध्यक्षता में सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने इस फैसले में कहा था, ‘दुर्भाग्यवश हमारे देश में जब भी किसी संज्ञेय अपराध की सूचना दर्ज होती है तो पुलिस तुरंत जाकर आरोपित को गिरफ्तार कर लेती है. हमारी नजर में ऐसा करना गैर कानूनी है. यह संविधान के अनच्छेद 21 में दिए गए मौलिक अधिकार का भी हनन है.’ इसी फैसले में संवैधानिक पीठ ने कहा है, ‘यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट या शिकायत में संज्ञेय अपराध के होने की बात का खुलासा होता भी है तो भी गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है.’ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय भी सही ठहरा चुका है. लेकिन इस फैसले में दिए गए निर्देश किताबों तक ही सिमट कर रह गए हैं.

पुरुष अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था ‘सेव इंडियन फैमिली फाउन्डेशन’ के संस्थापक सदस्य राजेश वखारिया बताते हैं, ‘सिर्फ लड़की के बयान को ही परम सत्य मानते हुए आरोपित को गिरफ्तार करना एकदम गलत है. लेकिन आज सारे देश में यही होता है. इसमें मीडिया भी दोषी है. आरोप लगते ही मीडिया किसी को भी बलात्कारी घोषित कर देता है. ऐसे में जज पर भी इतना सामाजिक दबाव बन जाता है कि वे आसानी से जमानत भी नहीं देते. यही सब बातें झूठे बलात्कार के मामले दर्ज करने वालों को बढ़ावा देती हैं. ऐसे लोग जानते हैं कि उनकी एक शिकायत भर से आरोपित तुरंत गिरफ्तार होगा और उसे जमानत भी नहीं मिलेगी.’ राजेश आगे बताते हैं, ‘निर्भया मामले के बाद कानूनों को एक-तरफा मजबूती दी गई है. इससे फर्जी मामलों की बाड़ सी आ गई है.’

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी राजेश की इन बातों का काफी हद तक समर्थन करते हैं. दिल्ली में 2012 में जहां बलात्कार के मामलों में 46 प्रतिशत लोग ही बरी हुए थे वहीं 2013 के शुरुआती आठ महीनों में यह आंकड़ा बढ़कर 75 प्रतिशत हो गया. इसका मतलब है कि इस दौरान दिल्ली में सिर्फ 25 प्रतिशत आरोपितों को ही सजा हुई है और बाकी सब बरी हुए हैं. हालांकि इन आंकडों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि बरी होने वाले सभी 75 प्रतिशत मामले झूठे ही थे. लेकिन कई न्यायाधीशों के फैसलों और टिप्पणियों से झूठे मामलों की पुख्ता जानकारी जरूर मिलती है.

दिल्ली के एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वीरेंद्र भट्ट ने तो कुछ समय पहले यह तक कहा था कि दिल्ली इसलिए ‘रेप कैपिटल’ कहलाती है क्योंकि यहां झूठे बलात्कार के कई मामले दर्ज होते हैं. इसका कारण बताते हुए राजेश वखारिया कहते हैं, ‘जस्टिस वर्मा कमेटी के सुझावों पर जो संशोधन कानून में किए गए हैं वो विवेकशील नहीं बल्कि भावनात्मक होकर किए गए.’ निर्भया मामले के बाद जब सारा देश बलात्कार संबंधी कानूनों को कठोर करने की मांग कर रहा था तब भी राजेश और उनकी संस्था के लोग यह बात उठा रहे थे कि इन कानूनों को ऐसा न बना दिया जाए कि इनका दुरूपयोग बढ़ जाए. राजेश बताते हैं, ‘हमने हजारों सुझाव वर्मा कमेटी को भेजे थे. हमारी मुख्य मांग थी कि बलात्कार और यौन अपराधों के कानून लैंगिक आधार पर तटस्थ हों. साथ ही बलात्कार के झूठे मुकदमे करने वालों को भी सजा देने का प्रावधान बने. लेकिन उस वक्त सारा देश भावनाओं में बहकर कुछ सुनना नहीं चाहता था. आज परिणाम सबके सामने हैं.’ बलात्कार के झूठे मामलों पर टिप्पणी करते हुए इसी साल दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जीपी मित्तल ने कहा था, ‘बलात्कार पीड़िता को बहुत ज्यादा पीड़ा और अपमान सहना पड़ता है. लेकिन ठीक इसी तरह बलात्कार के झूठे आरोप लगाए जाने पर आरोपित को भी उतनी ही पीड़ा और अपमान का सामना करना पड़ता है. झूठे बलात्कार के मुकदमों से किसी आरोपित को बचाने की भी पूरी कोशिश की जानी चाहिए.’

मई 2013 में दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस कैलाश गंभीर ने भी यह माना है कि ‘बलात्कार संबंधी कानूनों को दुर्भावना से एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है.’ जस्टिस गंभीर के इस बयान का समर्थन करते दर्जनों मामले पिछले कुछ समय में सामने भी आए हैं. इसी साल दिल्ली के एक युवक को बलात्कार के आरोप से बरी करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वीरेंद्र भट्ट ने कहा था, ‘बलात्कार के झूठे आरोप में फंसे व्यक्ति को राज्य द्वारा या शिकायतकर्ता द्वारा मुआवजा दिए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए.’ इस मामले में आरोपित व्यक्ति पर उसकी मकान मालकिन द्वारा बलात्कार का आरोप लगाया गया था. बाद में महिला ने यह स्वीकार किया कि उसने यह आरोप इसलिए लगाया क्योंकि उसके पति को आरोपित से उसके संबंधों के बारे में पता चल गया था. राजेश वखारिया बताते हैं, ‘यह कमी हमारे कानून की ही है कि कोई महिला अपनी सहमति से संबंध बनाने के बाद कभी भी बलात्कार का मुकदमा करने के लिए आजाद है. बलात्कार के ज्यादातर फर्जी मामले ऐसे ही हैं जहां पहले तो लड़का-लड़की साथ रहते हैं और बाद में यदि उनके रिश्ते में खटास आई तो लड़की बलात्कार का मुकदमा कर देती है.’ राजेश आगे कहते हैं, ‘आजकल लाखों युवा लिव-इन में रहते हैं. ऐसे में यदि लड़की शादी से इनकार कर दे तो सब ठीक रहता है. लेकिन लड़के ने शादी से इनकार किया तो लड़की मुकदमा कर देती है और लड़का बलात्कारी हो जाता है. यदि लड़कों को भी ऐसे मामले में लड़कियों पर बलात्कार का मुकदमा करने का अधिकार हो तो उतनी ही लड़कियां भी बलात्कारी घोषित हो सकती हैं.’

शादी के वादे से मुकरने पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज होने के सैकड़ों मामले इन दिनों न्यायालयों में लंबित हैं. इस मामले में न्यायाधीशों की राय भी अलग-अलग हैं. बीते दिसंबर ऐसे ही एक मामले में आरोपित को बरी करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेश शर्मा ने माना था कि ‘जब आरोपित को लड़की की कुछ अनुचित बातों का पता लगा तो उसके पास शादी से इनकार करने का वाजिब कारण था.’ दूसरी तरफ ऐसे भी कई मामले हैं जहां शादी का वादा करके शारीरिक संबंध बनाने और बाद में शादी से इनकार करने को न्यायाधीशों ने बलात्कार माना है. इसके अलावा ऐसे मामलों की भी लंबी-चौड़ी सूची मौजूद है जहां पैसे ऐंठने, बकाया वसूलने, जमीन जायदाद के झगड़े निपटाने या विवाहेत्तर संबंधों के कारण बलात्कार के झूठे मुकदमे दर्ज किए गए हों. दिल्ली में ही न्यायाधीश रेनू भटनागर ने पिछले साल एक ऐसे आरोपित को बलात्कार के मुकदमे में बरी किया था. इस मामले में जमीन के झगड़े के चलते आरोपित पर बलात्कार का झूठा मुकदमा दर्ज किया गया था.

कानून के दुरुपयोग पर अधिवक्ता गौरव गर्ग बताते हैं, ‘बलात्कार के मामलों में सहमति सबसे अहम मुद्दा होता है. ऐसे मामलों में कानून का दुरुपयोग भी उसे ही कहा जाता है जब सहमति से संबंध बनाने के बाद महिला इस बात से मुकर जाए कि उसने सहमति दी थी. या महिला यह कहे कि उसकी सहमति किसी दबाव में या किसी झूठे वादे के चलते ली गई थी. अधिकतर मामलों में आरोपितों के बरी होने का भी यही कारण है. न्यायालय में जिरह के दौरान या तो पीड़िता स्वयं ही यह स्वीकार कर लेती है या किसी अन्य माध्यम से यह साबित हो जाता है कि उसने स्वयं ही सहमति दी थी.’

इस संबंध में मनोवैज्ञानिक रजत मित्रा एक साक्षात्कार में बताते हैं, ‘अधिकतर बलात्कार के मामलों में पीड़िता परामर्श के दौरान यह बात स्वीकार कर लेती है कि उसने संबंध बनाने की सहमति दी थी. लेकिन यही बात वे अपने माता-पिता के सामने स्वीकार नहीं कर पातीं.’ वखारिया इस बारे में कहते हैं, ‘सहमति से संबंध बनाने के बाद महिलाएं कई कारणों से बाद में मुकर जाती हैं. समाज का डर, माता-पिता का दबाव या विवाहेत्तर संबंधों में पति को ऐसे रिश्तों का पता चलने पर कई महिलाएं बलात्कार का आरोप लगाने को ही आसान विकल्प के तौर पर चुन लेती हैं.’ राजेश आगे बताते हैं, ‘बलात्कार बहुत ही गंभीर अपराध है. लेकिन इसका झूठा आरोप लगाना भी उतना ही बड़ा अपराध है. इससे आरोपित का जीवन तो हमेशा के लिए प्रभावित होता ही है साथ ही न्यायालय में मुकदमों की संख्या में भी अनावश्यक बढ़ोत्तरी होती है. ऐसे में उन लोगों को न्याय मिलने की भी उम्मीद कम हो जाती है जिनके साथ सच में ये भयानक हादसे होते हैं. हमारी संस्था इसीलिए यह मांग करती आई है कि बलात्कार के झूठे मामले दर्ज करने वालों को गंभीर सजा मिलनी चाहिए. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हर उस मामले में शिकायतकर्ता को सजा हो जाए जिसमें आरोप सिद्ध न हुए हों. लेकिन जिन मामलों में यह साफ साबित हो कि पूरा आरोप या मुकदमा ही झूठा था वहां तो सख्त सजा होनी ही चाहिए. जब तक हमारे कानून संतुलित नहीं होंगे तब तक उनका उपयोग भी संतुलित नहीं हो सकता.’

बलात्कार संबंधी कानूनों में भले ही संतुलन न हो लेकिन हरप्रीत कौर का मामला कई तरह से संतुलित जरूर है. एक तरफ हरप्रीत महीनों से जंतर मंतर पर बैठी हैं लेकिन न्यायालय जाकर अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाती. दूसरी तरफ नौनिहाल सिंह भी एक-एक कर सभी जांच अधिकारियों को अपना जवाब देते हैं लेकिन हरप्रीत पर मानहानि का मुकदमा नहीं करते. शायद इसलिए कि इस विचित्र मामले में इससे आगे बढ़ने पर दोनों ही पक्षों की हार है.