कई बार सच्चाई कहानियों से ज्यादा फैंटेसी समेटे होती है. कनहर बांध परियोजना भी ऐसी ही सच्चाई है. इस सच्चाई के एक छोर पर अधर में लटकी एक बांध परियोजना है और दूसरे छोर पर एक लाख के करीब आदिवासी ग्रामीण आबादी है. यह बांध परियोजना उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में बहने वाली कनहर नदी पर प्रस्तावित है. आज नए सिरे से यह परियोजना गांव, जंगल और पहाड़ के लिए डूब का संदेश लेकर आई है.
कनहर सोन की सहायक नदी है. सोनभद्र जिला उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है, इसका क्षेत्रफल 6788 वर्ग किलोमीटर है जिसका 3792.86 वर्ग किलोमीटर इलाका जंगल से घिरा है. सोनभद्र की सीमाएं उत्तर पूर्व में बिहार से, पूर्व में झारखंड से, दक्षिण में छत्तीसगढ़ और पश्चिम में मध्यप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर तथा चंदौली जिलों से मिलती है. सोनभद्र की 70 फीसदी आबादी आदिवासी है जिसमें गोंड, करवार, पन्निका, भुईयां, बइगा, चेरों, घासिया, धरकार और धौनार आते हैं. अधिकतर ग्रामीण आदिवासी अपनी जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं, वे जंगल से तेंदूपत्ता, शहद, सूखी लकड़ियां और जड़ी-बूटियां इकट्ठा कर उन्हें बाजार में बेचते हैं. कुछ के पास छोटी जोतें भी हैं जो ज्यादातर चावल और कभी-कभी सब्जियां पैदा करते हैं. इस इलाके में रहने वाले बहुत से आदिवासियों को रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट के अनुच्छेद 4 तथा अनुच्छेद 20 ने उनकी जमीन और वनाधिकार से वंचित कर रखा है. रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट की वजह से बहुत से लोगों पर फर्जी मुकदमे लाद दिए गए हैं. यह कहानी एक अलग रिपोर्ट की मांग करती है.
सोनभद्र जिला भारत के विकास के उस मॉडल का शिकार है जिसे आजादी के बाद अपनाया गया. पूरा सोनभद्र औद्योगिक प्रदूषण और विस्थापन की मार से दो-चार है. अध्ययन बताते हैं कि सोनभद्र का पानी जहरीला हो चुका है और हवा प्रदूषित. इसी सोनभद्र में विस्थापन की एक नई कहानी लिखने की तैयारी कर रहा है कनहर बांध. कनहर बहुद्देशीय परियोजना की कहानी शुरू होती है छह जनवरी 1976 से जब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने इस परियोजना का शिलान्यास किया था. कनहर नदी पर बनने वाली इस परियोजना का असर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, छत्तीसगढ़ के सरगुजा और झारखंड के गढ़वा जिले पर पड़ना था. एक अनुमान के मुताबिक तैयार होने के बाद इसका जलक्षेत्र 2000 वर्ग किलोमीटर का होगा और तीन राज्यों के करीब 80 गांव इसके प्रभाव क्षेत्र में आएंगे. इसी अनुमान के मुताबिक तकरीबन एक लाख ग्रामीण-आदिवासी आबादी हमेशा के लिए अपनी पुश्तैनी जमीनों से उजड़ जाएगी.
कनहर बहुद्देशीय परियोजना को सितंबर 1976 में केंद्रीय जल आयोग की अनुमति मिली और इसकी प्रारंभिक अनुमानित लागत 27 करोड़ रुपये आंकी गई. 1979 में इसे 55 करोड़ रुपये के साथ नए सिरे से तकनीकी अनुमति मिली. मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ), बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच पानी और डूब क्षेत्र को लेकर चलने वाले विवाद को नजरंदाज करके परियोजना को अनुमति दी गई और अंततः उसकी लागत 69 करोड़ रुपये बताई गई. तीनों ही प्रदेशों के पर्यावरण मंत्रालयों ने इस इलाके में होने वाले भयानक नुकसान की आशंका को नजरंदाज किया और कोई भी ऐसा विस्तृत सर्वेक्षण नहीं किया जो परियोजना द्वारा पर्यावरण और आबादी पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का ठीक-ठाक आकलन करता हो. एक शुरुआती अध्ययन के अनुसार यह अनुमान लगाया गया कि तकरीबन एक लाख पेड़, 2500 कच्चे घर, 200 पक्के घर, 500 कुएं, करीब 30 स्कूल और कुछ अन्य इमारतें डूब क्षेत्र में आएंगी. आज यह आकंड़े और बढ़ गए होंगे. इस बांध परियोजना से होने वाले विस्थापन के विरुद्ध शुरू हुए कनहर बचाओ आंदोलन के सक्रिय आदिवासी नेता विश्वनाथ खरवार बताते हैं कि परियोजना के शिलान्यास के बाद एक एकड़ का 22 सौ रुपये की दर से मुआवजा दिया गया था. लेकिन जैसा कि दावा किया गया था जमीन के बदले जमीन किसी को नहीं दी गई. परियोजना पर जो भी थोड़ा बहुत काम हुआ उसमें बाहर से मजदूर बुलाए गए और स्थानीय लोगों को मजदूर के लायक भी नहीं समझा गया.
कनहर बहुद्देशीय परियोजना को सितंबर 1976 में केंद्रीय जल आयोग की अनुमति मिली और इसकी प्रारंभिक अनुमानित लागत 27 करोड़ रुपये आंकी गई
1976 में पहले शिलान्यास के बाद साल दर साल कनहर की कहानी नाटकीय होती गई. नियमित अंतराल के बाद काम शुरू होता, फिर बंद हो जाता. यहां कभी भी लगातार काम नहीं चला. सिंचाई विभाग और लोक निर्माण विभाग के दस्तावेज देखने पर पता चलता है कि पैसे का खर्च लगातार दिखाया जाता रहा. 1984 में काम रुक गया और सूत्र यह बताते हैं कि उसका पैसा दिल्ली में होने वाले एशियाई खेलों की तरफ स्थानांतरित कर दिया गया. 1989 में पुन: काम शुरू हुआ और 16 परिवार उजाड़ दिए गए. इसके बाद दो दशक से ज्यादा या तो काम बंद रहा या छिटपुट कामकाज होता रहा. कनहर बांध की साइट पर जाकर देखा जा सकता है कि करोड़ों रुपये के यंत्र यूं ही धूप-धूल और मिट्टी में बर्बाद हो रहे हैं. लेकिन इस नाटक में कई और मोड़ आने बाकी थे. इस रुकी हुई परियोजना के लिए एक नया शिलान्यास उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 15 जनवरी 2011 को किया. काम फिर भी शुरू नहीं हो सका. कनहर बांध के स्पिल वे का निर्माण कार्य शुरू करने के लिए एक नया शिलान्यास सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण मंत्री शिवपाल सिंह यादव द्वारा सात नवंबर 2012 को हुआ. शिलान्यास दर शिलान्यास चलता रहता है लेकिन काम शुरू नहीं होता और गांव वालों के सिर पर तलवार हमेशा लटकती रहती है. बजट बनता है, पैसा खर्च होता है और लोग अर्ध विस्थापन में जीने को बाध्य रहते हैं.
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