
राजकुमार ताड़माली अब चालीस के हो चुके हैं. ताड़ी के मौसम में पेड़ से ताड़ी उतारने का काम करते हैं. बीस साल पहले इसी धंधे ने उनका एक सपना लगभग छीन लिया था. सपना हेलीकॉप्टर देखने का. 1993 में आजमगढ़ से 12 किलोमीटर दूर जहानागंज बाजार में मुलायम सिंह यादव आने वाले थे, हेलीकॉप्टर से. मुलायम अपनी नवगठित समाजवादी पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिए गांव-गांव का दौरा कर रहे थे. इसी क्रम में जहानागंज बाजार में भी उनकी जनसभा होनी थी. छोटे से बाजार में उस समय तक किसी ने भी हेलीकॉप्टर नहीं देखा था. सबकी तरह ही तब उन्नीस साल के राजकुमार भी मुलायम सिंह और हेलीकॉप्टर को देखने की इच्छा रखते थे. राजकुमार की दिक्कत यह थी कि उनके पास ताड़ी भरी दो लभनी (ताड़ी निकालने वाला मिट्टी का बर्तन) थीं. बाजार में उनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं था. इसी बीच हेलीकॉप्टर की आवाज आई और पूरे बाजार में अफरा-तफरी मच गई. सारे लोग रैली-स्थल की ओर भागने लगे. थोड़ी ही देर में पूरे बाजार में सन्नाटा पसर गया. लेकिन राजकुमार ताड़ी की वजह से फंसे रह गए. बाजार की एक महिला ने आकर उनसे पूछा कि बाबू तुम हेलीकॉप्टर देखने नहीं गए. राजकुमार ने मन मसोस कर बताया कि ताड़ी साथ में है. उस महिला ने उनकी ताड़ी अपने घर में रखवा कर उन्हें हेलीकॉप्टर देख आने के लिए कहा. राजकुमार भागते हुए रैली स्थल पर पहुंचे थे. इस तरह हेलीकॉप्टर देखने की उनकी इच्छा पूरी हो गई और वे मुलायम सिंह के अनन्य भक्त बन गए.
राजकुमार अब भी ताड़ी बेचते हैं. पर अब पेड़ से ताड़ी कम उतरती है तो कभी-कभी पानी मिलाकर भी काम चला लेते हैं. ताड़ी में पानी की तरह ही राजकुमार का मुलायम प्रेम भी अब उतना गाढ़ा नहीं रहा. मुलायम सिंह एक बार फिर से आजमगढ़ में हैं. वे यहीं से चुनाव लड़ रहे हैं. पर राजकुमार इस बार उन्हें देखने नहीं गए. वजह पूछने पर वे बड़ा दिलचस्प उत्तर देते हैं, ‘हेलीकॉप्टर भी देख लेहली औ मुलायम के भी देख लेहली. बीस साल से खाली मुलायमै हेलीकॉप्टर पर बैठत हौवैं. केहु दूसर ना बैठल अब तक.’ (हेलीकॉप्टर भी देख लिए और मुलायम को भी. बीस साल से केवल मुलायम ही हेलीकॉप्टर पर बैठे हैं. किसी दूसरे को मौका नहीं मिल रहा.) ताड़माली उत्तर प्रदेश की अन्य पिछड़ा वर्ग की सौतेली श्रेणी में आते हैं. यहां पिछड़ों के नाम पर यादवों का वर्चस्व है.
1993 से मुलायम सिंह आजमगढ़ से अपने चुनावी अभियान का श्रीगणेश करते आएं हैं. इस बार स्थिति अलग है. इस बार वे स्वयं आजमगढ़ सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. आजमगढ़ से चुनाव लड़ने का फैसला मुलायम सिंह ने आखिरी समय में किया है. वे खुद इसकी वजह बताते हैं, ‘अगर नरेंद्र मोदी बनारस से चुनाव नहीं लड़ते तो मुझे आजमगढ़ नहीं आना पड़ता.’ जाहिर सी बात है कि मोदी के बनारस आने से पूर्वांचल की 32 सीटों का समीकरण बदल गया है. भाजपा बनारस इकाई के विधि प्रकोष्ठ के अध्यक्ष दीपक मिश्रा कहते हैं, ‘पिछले दो लोकसभा चुनाव में पूर्वांचल में हमारी स्थिति दयनीय हो गई थी. लेकिन मोदी जी के आने से यह बदलाव आया है कि हर सीट पर हम पहले या दूसरे नंबर की लड़ाई में आ गए हैं.’ यह वही स्थिति है जिसको खत्म करने के लिए मुलायम सिंह ने आजमगढ़ का रुख किया है. पर मुलायम के इस कदम का पूर्वांचल की बाकी सीटों पर कोई असर पड़ता दिख नहीं रहा है. इसके विपरीत आजमगढ़ की सीट भी उनके लिए आसान साबित नहीं हो रही है. ‘माई’ का फार्मूला उनके गले की फांस बन गया है. उनके खिलाफ दो मुसलमान और एक यादव खड़ा है और तीनों की अपने इलाकों में अच्छी-खासी पैठ है.
लंबे समय से आजमगढ़ समेत पूर्वांचल का इलाका समाजवाद का गढ़ रहा है. सन सतहत्तर में यहां की जनता ने तत्कालीन केंद्रीय इस्पात मंत्री और इंदिरा कैबिनेट का अहम हिस्सा रहे चंद्रजीत यादव को हराकर जनता पार्टी के रामनरेश यादव को संसद भेजा था. इसके बाद से कांग्रेस यहां कभी उबर नहीं पायी. हालांकि बाद में मुलायम सिंह यादव के समाजवादी नेता बनने के बाद समाजवाद का दायरा दो समुदायों – यादव और मुसलिम – के बीच सिमट गया. समाजवाद का गढ़ यह अभी भी है लेकिन अब यह गढ़ समाजवादी विचारधारा की वजह से नहीं बल्कि धार्मिक ध्रुवीकरण और यादव मतदाताओं की बड़ी जनसंख्या के कारण है.
मुलायम सिंह के आजमगढ़ आने से पहले तक इस सीट पर कई खेल हुए थे. पहले राज्य के वरिष्ठ मंत्री बलराम यादव ने लोकसभा का टिकट ठुकराया, उसके बाद हवलदार यादव को उम्मीदवार घोषित किया गया था. उसके भी थोड़ा पहले जाएं तो मुलायम सिंह के दूसरे पुत्र प्रतीक यादव को आजमगढ़ से लड़ाने के लिए तथाकथित सपा कार्यकर्ताओं का एक झुंड धरना-प्रदर्शन तक कर चुका है. लेकिन आजमगढ़ में सपा की स्थिति का भान नेताजी समेत सबको था. पहले नंबर का नतीजा भविष्य के गर्भ में था लेकिन तीसरे स्थान पर समाजवादी पार्टी का आना तय था. इसकी वजहें बेहद सीधी-सपाट थीं. मुजफ्फरनगर का दंगा और पिछले ढाई साल के दौरान समाजवादी पार्टी का कामकाज.
इतिहास ने मुलायम सिंह और अखिलेश यादव को एक अवसर दिया था. इतना बड़ा बहुमत अब तक प्रदेश में किसी पार्टी को नसीब नहीं हुआ था. यह परिवर्तन की आकांक्षा वाला मत था. यह मत अखिलेश यादव के रूप में एक नए खून को था. यह मत नई राजनीति को था, यह मत महत्वाकांक्षी युवाओं का था. लेकिन इस चीज को समझने में समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह यादव बुरी तरह से चूक गए. अखिलेश यादव सरकार का चेहरा बने और पीछे से मुलायम सिंह यादव ने इस सरकार को उन्हीं तौर-तरीकों से चलाने की कोशिश की जिनका इस्तेमाल वे पिछले बीस सालों से करते आ रहे थे. जातिवाद को बढ़ावा देकर, पंथवाद को बढ़ावा देकर, कानून व्यवस्था की दुर्गति करके. लगा कि सपा ने 2007 की करारी हार से कोई सबक ही नहीं सीखा. नतीजा सामने था, ढाई साल में ढाई सौ सांप्रदायिक और जातीय दंगे. यह गृहमंत्रालय की ताजा रिपोर्ट है. इसी में मुजफ्फरनगर का दंगा भी शामिल है. उत्तर प्रदेश ने ऐसा भयावह दंगा पिछले दो दशकों में पहली बार देखा. इस दंगे के पीड़ितों में एक बड़ी संख्या मुसलमानों की है. वही मुसलमान जिसके सहारे मुलायम सिंह ने माई का जिताऊ फार्मूला तैयार किया था. बात सिर्फ दंगों तक ही सीमित नहीं रही. इसके बाद स्वयं मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी के नेताओं ने ऐसे-ऐसे बयान दिए जिससे मुसलमानों का मन उनके प्रति और खट्टा होता गया.

आजमगढ़ से मुलायम सिंह के चुनाव लड़ने की घोषणा के वक्त राजनीतिक हलकों में इस बात पर एकराय थी कि नेताजी ने इस चुनाव का मास्टर स्ट्रोक खेला है. संभावना व्यक्त की जाने लगी थी कि उनके इस कदम से पूर्वांचल में मोदी के उभार को रोकने में कामयाबी मिलेगी. सपा की आजमगढ़ इकाई के वरिष्ठ नेता शादाब अहमद कहते हैं, ‘आज मुजफ्फरनगर से बड़ा मुद्दा मोदी को रोकना है. नेताजी के आजमगढ़ आने से मुसलमानों में एक उम्मीद पैदा हुई है.’ हालांकि निजी बातचीत में कुछ दूसरे सपा नेताओं की चिंता सामने आ जाती है. उन्हें इस बात का गहराई से अहसास है कि मुलायम सिंह का रास्ता आसान नहीं है. आजमगढ़ से मुलायम सिंह का सिर्फ जीतना ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उनके कद के हिसाब से जीत का अंतर होना भी जरूरी है. जो लोग सिर्फ मुलायम सिंह के कद और जातिगत समीकरण पर अपनी उम्मीदें टिकाए बैठे है चुनाव के नतीजे उन्हें चौंका सकते हैं. शहर के प्रतिष्ठित शिब्ली कॉलेज में समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष जहूर अहमद बताते हैं, ‘इस शहर का मिजाज हमेशा से एंटी एस्टैबिलिशमेंट वाला रहा है. यह बात इस बार मुलायम सिंह के खिलाफ जा सकती है. मुजफ्फरनगर भी उनके लिए चिंता का सबब होना चाहिए. हालांकि उनके आने से छिटका हुआ मुसलिम वोट कुछ हद तक सपा के पक्ष में गोलबंद हुआ है.’