‘अगर आप गांधी परिवार से नहीं होते तो क्या राजनीति में होते? 27 जनवरी 2014 को टीवी पर प्रसारित एक इंटरव्यू में ‘टाइम्स नाउ’ चैनल के अरनब गोस्वामी ने राहुल गांधी से ये सवाल पूछा था. इसके बाद कुछ समय के लिए एक बेढंगी शांति छा गई थी.
उस समय अगर उन्होंने एक स्पष्ट और प्रभावी ‘हां’ बोल दिया होता तो ये उनके आलोचकों का मुंह बंद करने के साथ उन पर संदेह जतानेवाले लोगों को आश्वस्त भी करता. साथ ही यह उनके भाषण के समय आगे बैठनेवाले लोगों को भी प्रभावित करता लेकिन इसके बजाय इस युवा नेता ने इस सवाल को प्रभावहीन तरीके से समझाने की कोशिश की, जो कि उनकी छवि को और कमजोर साबित करनेवाला हुआ. अप्रैल 2015 में 56 दिन की छुट्टी से लौटने के बाद राहुल गांधी ने एक अनिच्छुक राजनेता होने की अपनी छवि को फिर से तोड़ने की कोशिश की है. दिल्ली के रामलीला मैदान पर 19 अप्रैल को हुई रैली में यह साबित करने की कोशिश की गई कि लगभग दो महीने की छुट्टी के दौरान उन्होंने आत्मचिंतन किया और पार्टी को नई दिशा देने के लिए विचार करते रहे.
रैली में गोलमोल बातें करने के बजाय किसानों को दोपहर के सूरज को चुनौती देनेवाला बताते हुए उन्होंने सीधे कहा था, ‘अपने उद्योगपति मित्रों का कर्ज चुकाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भूमि अधिग्रहण बिल लेकर आए हैं. वह आपकी जमीन उद्यमियों को देना चाहते हैं, जिनसे चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कर्ज लिया था.’ तीन दिनों के बीच उन्होंने दो बार संसदीय हस्तक्षेप किया. 22 अप्रैल को लोकसभा में नेट न्यूट्रैलिटी पर स्थगन प्रस्ताव के लिए नोटिस दिया और इससे पहले 20 अप्रैल को भूमि अधिग्रहण बिल पर संसद में जोरदार भाषण. उनके विरोधियों ने जो भी उनके बारे में सोचा होगा ये उससे कहीं ज्यादा बेहतर था.
आंकड़े खुद इस बात की मुनादी कर रहे हैं कि वे इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं. पिछले 11 साल में जिसमें राहुल संसद के सदस्य रहे, उन्होंने सिर्फ तीन बार भाषण दिया, आठ बार बहस की और सिर्फ तीन सवाल पूछे. इसके अलावा लोकसभा में उनकी उपस्थिति लगातार घटती गई. 14वीं लोकसभा के समय उनकी उपस्थिति 63 फीसदी थी जो 15 लोकसभा के समय 43 फीसदी पर आ गई.
दूषित आक्रामकता को छोड़ते हुए जनवरी 2014 में जब उन्होंने ‘कांग्रेस एक सोच है. ये सोच हमारे दिल में है’ की बात कही तो उनमें एक बदलाव देखा गया. सितंबर 2013 में उनमें प्रचंड आक्रामकता देखने को मिली जब उन्होंने कहा था, ‘यह अध्यादेश पूरी तरह से बकवास है. इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए’ इससे पहले जनवरी 2013 में जयपुर में दिए भाषण में उन्होंने ‘सत्ता जहर है’ की बात कही, जिसके बाद उन्हें कांग्रेस का उपाध्यक्ष बना दिया गया. इन सबको कोई भी उनकी नई छवि के रूप में देख सकता है. राहुल पहले से कहीं अधिक आत्मविश्वासी और शांत नजर आ रहे हैं. यह छवि आक्रामक कम, मुखर ज्यादा है.
इसे ऐसे देख सकते हैं, गांधी के इस वंशज के भाषण ने हाल ही में मोदी सरकार को भी प्रतिक्रिया देने पर मजबूर कर दिया. भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चौतरफा आलोचनाओं से घिरे हुए थे. अपना बचाव करते हुए उन्हें यह तक कहना पड़ा कि उनकी सरकार किसानों और अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए अब भी दृढ़प्रतिज्ञ है. लोकसभा में राहुल ने जिस हाजिरजवाबी और व्यंग्य का परिचय दिया उसका इस्तेमाल मोदी अपने भाषणों में प्रचुर मात्रा में करते थे. जब राहुल ने सरकार की भर्त्सना की और भारत की कृषि आधारित 67 फीसदी आबादी की अनदेखी करती मोदी की इच्छाओं पर सवाल उठाए तब वह सरकारी पक्ष के समक्ष बढ़त लेते नजर आ रहे थे.
राहुल गांधी ने अपनी छुट्टियों का अच्छा इस्तेमाल किया है. उन्होंने अपने भाषण कौशल पर काम किया है. यह अच्छा संकेत है कि उनकी वाकपटुता ने मोदी सरकार को परेशान कर दिया
‘मेरे मन में एक सवाल है. अगर प्रधानमंत्री राजनीतिक गणनाओं को समझते हैं, तो वह क्यों 67 फीसदी से ज्यादा की आबादी के गुस्से को बढ़ाना चाहते हैं?’ राहुल के इस सवाल ने तब सबको आश्चर्य में डाल दिया था. फिर उन्होंने अंतिम प्रहार करते हुए कहा, ‘सिर्फ एक ही जवाब मेरे दिमाग में आ रहा है और वह है, जमीन की कीमतें बहुत ही तेजी से बढ़ रही हैं और आपके उद्यमी साथियों को वे जमीनें चाहिए. यही कारण है कि आप देश के किसानों को कमजोर करने में लगे हुए हैं और फिर आप उन्हें अध्यादेश की कुल्हाड़ी से काट देंगे.’ कांग्रेस पर लंबे समय तक नजर रखनेवालों ने ‘तहलका’ को बताया, ‘लगता है राहुल ने अपनी छुट्टियों का अच्छा इस्तेमाल किया है. उन्होंने भाषण देने के अपने कौशल पर काम किया है. यह अच्छा संकेत है कि उनकी वाकपटुता ने मोदी सरकार को परेशान कर दिया.’ पार्टी का एक धड़ा पहले ही इस युवा नेता को अध्यक्ष बनाए जाने के प्रस्ताव का समर्थन कर रहा है. हालांकि इस प्रस्ताव पर अमरिंदर सिंह, शीला दीक्षित और उनके बेटे संदीप ने विरोध भी जताया है. यूपीए-2 सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे हरीश खरे इसे युवा गांधी पर विश्वास जताने के उचित समय के रूप में देखते हैं. खरे ने बताया, ‘जितनी जल्दी वह पद संभालेंगे पार्टी के लिए उतना ही अच्छा होगा. सत्ता के दो केंद्रों (सोनिया व राहुल) को लेकर संगठन में बनी भ्रम की स्थिति भी तब खत्म हो जाएगी.’
सवाल कई, जवाब नहीं
इन सबके बीच कई सवाल उठ रहे थे. जैसे- क्या राहुल का नया सुधरा हुआ रूप बहुत देरी से नजर आया? क्या वे पार्टी को असंगतिहीनता के दायरे से निकाल सकते हैं? क्या वे अपने दम पर पार्टी चलाने का माद्दा रखते हैं? इस तरह के कई सवाल हैं लेकिन उनके जवाब किसी के पास नहीं हैं. अपनी किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ में संजय बारू लिखते हैं, ‘यूपीए-1 के समय सोनिया और कांग्रेस के पास वास्तव में ‘प्लान बी’ नहीं था. राहुल प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं थे और सोनिया, डॉ. सिंह के अलावा दूसरे किसी पर भरोसा नहीं कर सकती थीं. यूपीए-2 के समय ‘प्लान बी’ आकार लेने लगा था क्योंकि तब तक राहुल भी प्रभार लेने के लिए तैयार होते दिख रहे थे.’
दरअसल ये सब कांग्रेस की उस नीति का हिस्सा थे जिसके तहत राहुल गांधी की छवि चमकाकर उन्हें प्रधानमंत्री पद का तार्किक दावेदार बताना था. पार्टी से जुड़े सूत्रों ने बताया कि 2012 में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के उत्तराधिकारी के तौर पर मनमोहन सिंह को भारत के राष्ट्रपति पद पर पदोन्नत करने का प्रस्ताव लाया गया था. मगर यह प्रस्ताव जितनी जल्दी परवान चढ़ा उतनी ही जल्दी लुढ़क भी गया क्योंकि तब तक प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद की शपथ ले चुके थे. यहां यह भी बताने योग्य है कि अगर मनमोहन सिंह राष्ट्रपति बनते तो प्रणब की चाहत प्रधानमंत्री बनने की होती जो किसी भी सूरत में गांधी परिवार को स्वीकार्य नहीं था.
पहली और आखिरी बार पार्टी में बदलाव संजय गांधी के समय में किया गया. उस दौरान संजय गांधी ने पार्टी में युवा नेताओं की पौध तैयार की थी, जो पार्टी की अब तक सेवा कर रहे हैं
हालांकि 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन ने राहुल की छवि सुधारने के प्रयासों को भी लगभग खत्म कर दिया था. यह स्थिति 2013 की छमाही तक बनी रही. इसके बाद राहुल ने फिर से अपनी छवि सुधारने के प्रयास शुरू कर दिए थे. बारू अपनी किताब में लिखते हैं, ‘संभवतः तब अपनी छवि सुधारने के लिए राहुल ने शासन-प्रशासन को ललकारने को चुना.’ इसे इस घटनाक्रम से समझा जा सकता है कि सितंबर 2013 में गांधी के इस वंशज ने सांसदों और विधायकों को दोषी ठहराए जाने से बचानेवाले यूपीए सरकार के बिल को फाड़कर अपना गुस्सा जाहिर किया था.
राहुल पर भरोसा भी शक भी
यूपीए-1 सरकार में मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने तहलका से बातचीत में कहा, ‘राहुल गांधी एक भोले-भाले आदमी है, लेकिन कांग्रेस पार्टी के लिए बोझ हैं.’ मनमोहन सिंह राहुल गांधी से कुशल राजनीतिज्ञ हैं? इस सवाल पर पलटकर जवाब देते हुए उन्होंने कहा, ‘निश्चित रूप से, कोई सवाल ही नहीं, प्रभावशाली भाषण देने के अलावा राजनीति में बहुत से काम हैं (किसी के लिए यह जरूरी है) धैर्य रखना जरूरी बात है.’