कुपोषण : पहले जरा इसे समझिए

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एक ही दवा लगातार खाने से उसका असर कम होने लगता है. कुपोषण पर अब तक इतनी बहस हुई कि यह विषय ही बेमानी -सा लगने लगा है. फिलहाल नीति निर्धारकों के लिए कुपोषण का मतलब किन्हीं खास डिब्बाबंद पोषण आहार कंपनियों के लिए दरवाजे खोलने का पर्यायवाची है. कुपोषण के मूल कारणों के समाधान में उनकी रुचि नहीं है. संभवत: इसलिए क्योंकि जीडीपी तभी बढ़ेगी जब किसी कंपनी को हजारों करोड़ के ठेके मिले. कहीं आंगनबाड़ी में अंडे का विरोध मध्य प्रदेश सरकार की पैकेटबंद पोषण आहार कंपनियों के लिए बेहतर, स्थायी और प्रभावी विकल्प खड़ा करने की कोशिश तो नहीं? कुपोषण की राजनीति को समझने वाली मध्य प्रदेश की सरकार दस सालों में समुदाय आधारित प्रबंधन का कार्यक्रम खड़ा नहीं कर पाई. जीवन का 90 प्रतिशत शारीरिक और मानसिक विकास पांच साल की उम्र तक हो जाता है. यदि कुपोषण जकड़ ले तो यह विकास 85 प्रतिशत तक भी सीमित रह सकता है या 50 प्रतिशत तक भी. इसका मतलब है कि शिक्षा से लेकर मेक इन इंडिया तक सब इस बात से तय होता है कि बच्चे कितने कुपोषित हैं.

पोषण की असुरक्षा का पहला और सबसे गहरा असर महिलाओं और छोटे बच्चों पर पड़ता है. गर्भवती और धात्री महिलाओं को पर्याप्त प्रोटीन, लौह तत्व और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व नहीं मिलते, तो गर्भस्थ शिशु का सही विकास नहीं हो पाता है. वे कम वजन के पैदा होते हैं. बीते ढाई दशकों में विकास के दावों के साथ कुपोषण भी बढ़ा है. सबसे पहले 1992-93 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-1 से पता चला कि मध्य प्रदेश में 57.4 फीसदी बच्चे कम वजन और 22.3 प्रतिशत बच्चे अति कम वजन के हैं. बाद में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2 से पता चला कि राज्य में कम वजन के बच्चे 55.1 प्रतिशत के रह गए हैं. तब तक उदारवाद का साया इतना नहीं गहराया था, इसलिए कम वजन के बच्चों की संख्या कुछ घटी. फिर 2001 में पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा कि एक तरफ अनाज के गोदाम लबालब भरे हैं और दूसरी तरफ राजस्थान, मध्य प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, बिहार में लोग भूखे मर रहे हैं. इनमें आधे से ज्यादा बच्चे हैं. तब कोर्ट ने निर्देशित किया कि सभी खाद्य, सामाजिक और रोजगार सुरक्षा की योजनाओं का जवाबदेह क्रियान्वयन हो. इसके बाद 2005-06 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के नतीजों से यह साफ हो गया कि अनियोजित विकास कुपोषण बढ़ा रहा है. मध्यप्रदेश में कम वजन के बच्चों की संख्या बढ़कर 60 प्रतिशत हो गई, यानी 100 में से 60 बच्चे कम वजन के. फिर भी सरकार गतिशील नहीं हुई क्योंकि कुपोषण उसके लिए गंभीर मामला नहीं था.

ऐसे विकास का क्या फायदा ?

समुदाय को लगातार अच्छा, विविधतापूर्ण भोजन नहीं मिलने की स्थिति कुपोषण पैदा करती है. ऐसी स्थिति कब बनती है? क्यों बनती है? किनके लिए बनती है? जाहिर है जब अनाज, दाल, सब्जियों, दूध, अंडों, फलों का उत्पादन कम हो, कीमतें बढ़ती जाएं, लोगों के पास स्थायी और सुरक्षित रोजगार के साधन न हों, तब पोषक भोजन भला कैसे नसीब होगा?  मध्य प्रदेश को तीन बार भारत सरकार से कृषि कर्मण पुरस्कार मिल चुका है. लेकिन इसके पीछे की कहानी यह है कि 2005-2014 के बीच कुल कृषि रकबा 19711 हजार हेक्टेयर से बढ़कर 23233 हजार हेक्टेयर हो गया. सिंचित क्षेत्रफल भी 5878 हजार से बढ़कर 8965 हजार हेक्टेयर हुआ. इससे खाद्यान्न उत्पादन तो बढ़ना ही था, जो 143.31 लाख टन से बढ़कर 276 लाख टन पर पहुंच गया. मध्य प्रदेश फिलहाल प्रति व्यक्ति 380 किलो अनाज पैदा करता है. हालांकि, प्रति व्यक्ति अनाज की खपत 141 किलो (ग्रामीण) और 124 किलो (शहरी) पर ही टिकी है.

राशन प्रणाली को छोड़कर बच्चों और महिलाओं के पोषण हकों को विकास की कालीन के नीचे छिपा दिया गया है

अब हमें दो सवालों के जवाब खोजने हैं. पहला यह कि खाद्यान्न माने क्या?  दूसरा सवाल यह है कि उत्पादन में इजाफे का लाभ किसे मिला? भारत में एनएसएसओ की पौष्टिक अंतर्ग्रहण (अक्टूबर 2014 में जारी) रिपोर्ट से पता चलता है कि मध्य प्रदेश के गांवों में 1972-73 के दौरान प्रति व्यक्ति उपभोग 2423 कैलोरी था, जो 2011-12 में घटकर 2110 कैलोरी रह गया, जबकि शहरों में यह 2229 कैलोरी से घटकर 2029 कैलोरी हो गया. गांवों में प्रोटीन अंतर्ग्रहण 68 ग्राम से घटकर 61.8 ग्राम और शहरों में 61 से 58 ग्राम तक घटा.

मध्य प्रदेश (ग्रामीण) में प्रति व्यक्ति अनाज की दैनिक खपत 384 ग्राम है. हर व्यक्ति के हिस्से में 28 ग्राम दाल रोज आती है. 179 ग्राम सब्जी, 24 ग्राम फल, 1.7 ग्राम सूखे मेवे, 13.6 ग्राम मसाले भी रोज के खाने में शामिल हैं. दूध की प्रति व्यक्ति खपत 135 मिलीलीटर है. एनएसएसओ के मुताबिक, औसतन एक व्यक्ति के भोजन पर रोज का खर्च 24.32 रुपये आता है. मध्य प्रदेश के शहरों में अनाज का उपभोग और कम हुआ है. यहां हर व्यक्ति की थाली में रोजाना 339 ग्राम अनाज आता है. दाल का उपभोग 31 ग्राम प्रतिदिन है. शहरी क्षेत्रों में भोजन पर रोजाना का खर्च लगभग 29 रुपये है. साफ है कि उत्पादन की बढ़ोतरी का असर खाद्य सुरक्षा पर पड़ता नहीं दिख रहा है. शायद इसलिए कि कृषि या कृषि उत्पादन के मकसद बदल गए हैं.

असंवेदनशील सोच

भारत सरकार के सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे (2013) के मुताबिक, मध्य प्रदेश में प्रति एक लाख जीवित जन्म पर पांच साल से कम उम्र के 69 बच्चों की मृत्यु होती है. इस परिभाषा के अनुसार, 2013 में जीवित पैदा हुए 19 लाख बच्चों में से 1.383 लाख बच्चे पांचवां जन्मदिन मनाने से पहले ही दुनिया छोड़ गए. इसका सीधा संबंध कुपोषण के ऊंचे स्तर से है. कुपोषित बच्चों के डायरिया, निमोनिया, खसरा और मलेरिया से मरने की आशंका 19 गुना तक बढ़ जाती है. अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य शोध पत्रिका ‘द लांसेट’ के मानकों पर सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे (2013) में बताई गई मृत्यु दर के आधार पर आकलन करें तो मध्य प्रदेश में निमोनिया से 34,382 और डायरिया से 27,696 बच्चों की मौत हुई. दरअसल हमें ऐसी सोच की जरूरत है, जो कुपोषण से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित करे, अलग-अलग समुदायों में भोजन के व्यवहार को संरक्षित और प्रोत्साहित करे. जिसमें सांस्कृतिक भेदभाव न हो, पोषण आहार कालाबाजारियों के हवाले न रहे और कुपोषण से लड़ाई में समाज को मुख्य भूमिका में रखा जाए. मध्य प्रदेश में ऐसा कुछ नहीं हुआ. केवल बाल पोषण कार्यक्रम के लिए 2010-11 से 2014-15 के दौरान 5139.56 करोड़ रुपये खर्च किए गए. लेकिन 1.07 करोड़ बच्चों के पोषण पर खर्च 3 रुपये प्रतिदिन से ज्यादा नहीं बढ़ा.

‘बीमारू’ राज्य की छवि को बदलने के लिए राज्य सरकार ने विजय राजे सिंधिया बीमा योजना शुरू की. नवजात शिशु उपचार इकाइयां भी बनाईं. गंभीर कुपोषित बच्चों के इलाज की व्यवस्था, यानी पोषण पुनर्वास केंद्रों का ढांचा खड़ा हुआ. बाद में ऐसी योजनाएं कब बंद हो जाती हैं किसी को खबर तक नहीं लगती है. मुफ्त दवा योजना के तहत घटिया क्वालिटी की दवाएं बांटी जाती हैं. डाॅक्टरों के आधे पद खाली पड़े हैं; क्यों?  न तो यह सवाल पूछा जाता है, न जवाब देने के लिए कोई उत्तरदायी है. स्वास्थ्य, पोषण, कृषि जैसे क्षेत्रों में नवाचारी पहल के लिए मध्य प्रदेश बीते एक दशक में देश का सबसे अग्रणी राज्य रहा है, लेकिन इसमें दृष्टि और निरंतरता का अभाव साफ झलकता है. शायद यही वजह है कि कई योजनाएं आगे बढ़ने से पहले ही दम तोड़ गईं.

लिंगभेद किशोरी और बालिकाओं के विकास और विश्वास तो तोड़ देता है. इसी संदर्भ में मध्य प्रदेश में कन्यादान योजना सरकार खुद चलती है, जिसमें विवाह भेंट का आवरण डालकर दहेज की व्यवस्था की जाती है. मातृत्व हकों की बात करते हुए हमारे सामने अकसर ऐसी घटनाएं तैर जाती हैं जब पता चलता है कि गर्भवती महिला को प्रसव पीड़ा के दौरान स्वास्थ्य सेवकों ने थप्पड़ मार-मार कर चुप करवाया, कभी ऐसे डांटा कि मां के हाथ से नवजात शिशु छिटक कर गिर गया और कई बार बच्चे का जन्म सड़क के किनारे ही हो गया. महिला श्रमिक प्रसव से एक दिन पहले तक कड़ा श्रम करने के लिए मजबूर हैं क्योंकि उन्हें मातृत्व हक नहीं मिलता. यह हिंसा भी कुपोषण का एक बहुत बड़ा कारण है, इसे खारिज नहीं किया जा सकता.

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण की 68वें दौर की रिपोर्ट (2014) में पौष्टिक अंतर्ग्रहण के संदर्भ में कहा गया है कि मध्य प्रदेश की ग्रामीण जनसंख्या कुल ऊर्जा का 62.82 प्रतिशत और प्रोटीन का 67 प्रतिशत हिस्सा अनाज से लेती है. असल में सही और गुणवत्तापूर्ण पोषण के लिए यह हिस्सा दालों,  दूध,  अंडे, फल-सब्जियों और पशुजन्य प्रोटीन से लिया जाना चाहिए. गरीबी और संसाधनों पर से नियंत्रण जाने का मतलब है, थाली में रोटी और नमक रह जाना. लोगों को आर्थिक रूप से संपन्न मत बनाइए, उन्हें संसाधनों से संपन्न बनाइये; तब कम से कम पोषण आहार के लिए किसी बच्चे को आंगनबाड़ी केंद्र न आना पड़ेगा. भोजन में विविधता का सार यही है. लेकिन मध्य प्रदेश में अब भी स्थानीय मूल के बारीक और मोटे अनाजों (जैसे रागी, मक्का, कोदो, कुटकी आदि) को प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने दुनिया भर के उद्योगपतियों को संदेश दिया है कि वे जिस जमीन पर उंगली रखेंगे, वह झट से मिल जाएगी. अलबत्ता, ऐसी प्रतिबद्धता किसानों, खेतिहर मजदूरों, बच्चों-महिलाओं की पोषण सुरक्षा के लिए नहीं दिखती. विगत दस सालों में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड-बघेलखंड के 12  जिलों से होने वाला मजबूरी का पलायन तीन गुना बढ़ गया. क्योंकि आजीविका का संकट गहराता गया, ऐसे में कुपोषण जड़ से खत्म होने से रहा. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (2013) के तहत राज्य सरकार को आंगनबाड़ी, मध्याह्न भोजन, राशन प्रणाली और मातृत्व हक से जुड़े कानूनी प्रावधान लागू करने थे किन्तु राशन प्रणाली को छोड़कर बच्चों और महिलाओं के पोषण हकों को विकास की कालीन के नीचे छिपा दिया गया है.