खेल का निकला तेल

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भारत में क्रिकेट के लिए जूनून घड़ी के पेंडुलम की तरह दोनों दिशाओं में आवृत्ति करता है. टीम जीती तो वह सारे देश की आंखों की तारा हो जाती है और हारी तो खिलाड़ियों के घरों पर पत्थर पड़ने तक की खबरें आने लगती हैं. कुछ ऐसा ही टीम के कप्तान के मामले में होता है. कई कहते भी हैं कि भारत में राष्ट्रीय क्रिकेट टीम का कप्तान प्रधानमंत्री के बाद सबसे अहम व्यक्ति होता है.

लेकिन क्या यह सिर्फ भारतीयों का क्रिकेट के प्रति जूनून ही है जो इद दिनों भारतीय क्रिकेट टीम और उसके मुखिया महेंद्र सिंह धोनी को संदेह के घेरे में खड़ा कर रहा है? या फिर बात कुछ और भी है ?

सचिन तेंदुलकर के बाद धोनी भारत के सबसे लोकप्रिय क्रिकेटर हैं. बतौर कप्तान धोनी 2007 में ट्वेंटी ट्वेंटी वर्ल्ड कप जीते. 2008 में उन्होंने टेस्ट टीम की कमान संभाली और एक साल के भीतर ही भारतीय टेस्ट टीम खेल के इस संस्करण की रैंकिंग में पहले स्थान पर पहुंच गई. धोनी से पहले कोई भी भारतीय कप्तान ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं कर पाया था. फिर मार्च 2011 में वह दिन या कहें कि रात भी आई जब धोनी की कप्तानी में भारत वन डे क्रिकेट का चैंपियन बना.  2013 में भारत चैंपियंस ट्रॉफी भी जीता. क्रिकेट के अलग अलग प्रारूपों में ऐसी उपलब्धियां हासिल करने वाले धोनी एक मात्र कप्तान हैं.

लेकिन आज भारतीय टेस्ट टीम रैंकिंग में पांचवें स्थान पर है. जो क्रिकेट प्रशंसक धोनी -धोनी जपा करते थे आज वे ही धोनी के टेस्ट टीम की कप्तानी क्या बल्कि उनके टेस्ट टीम में होने तक पर सवाल उठा रहे हैं. हाल में ही खत्म हुए इंग्लैंड दौरे में भारतीय टीम लॉर्ड्स में 28 साल बाद टेस्ट मैच जीतने में कामयाब रही. लेकिन उसके बाद वह लगातार तीन टेस्ट मैच हार गई. हार क्या गई बल्कि कहिए तो ध्वस्त हो गई. ओवल में हुए सीरीज के अंतिम टेस्ट में तो टीम पारी और 244 रनों अंतर से हारी. 1974 से ओवल के इस टेस्ट के बीच की अवधि में भारतीय टेस्ट टीम को ऐसी बुरी पराजय कभी नहीं झेलनी पड़ी थी.

सीरीज के बाकी दो टेस्ट मैचों पर नजर डालें तो टीम और कप्तान की कमजोरियों का एक पिटारा सा खुलता है. साउथेम्प्टन में 266 रनों की हार और मैनचेस्टर में एक पारी और 54 रनों की हार. इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है लार्ड्स टेस्ट को छोड़ भारतीय टीम बाकी के टेस्ट मैचों के दौरान इंग्लैंड की टीम से किसी भी स्तर पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाई. साउथेम्प्टन के टेस्ट मैच में जो 13 सत्र थे उनमें हर एक में भारतीय टीम 19 ही ठहरी. वहीं मैनचेस्टर और ओवल टेस्ट मैचों में सीम और स्विंग करती गेंदों के सामने भारतीय बल्लेबाजों की कलई खुल गई और टीम का पुलिंदा 150 से 170 रनों  के बीच बंध गया. इसके बाद भी जब दौरे के आखिर में पूर्व इंग्लिश कप्तान नासिर हुसैन ने धोनी से पूछा कि आप दौरे को कैसे देखते हैं तो धोनी का जवाब था, ‘दौरा अच्छा था’. एक दशक में लगातार दूसरी बार इंग्लैंड में टेस्ट सीरीज बुरी तरह से हारने के बाद कप्तान का ऐसा जवाब सुनकर कइयों को हैरानी हुई.

बहुत से जानकार यह भी मानने लगे हैं कि भारतीय खिलाड़ियों की तकनीक भी अब टेस्ट के लिए उतनी माकूल नहीं रह गई है

इससे कई अहम सवाल खड़े होते हैं. मसलन क्या भारतीय क्रिकेटरों की मौजूदा पीढ़ी के लिए टेस्ट क्रिकेट की कोई खास अहमियत नहीं है. अगर नहीं है तो क्यों? सवाल और भी हैं. जैसे कि आखिर क्या वजह है जो  भारतीय टीम की क्रिकेट के इस लंबे संस्करण में इतनी दुर्गति हो रही है. यह भी कि खेल के आम प्रशंसकों के दिल में अब टेस्ट क्रिकेट की क्या जगह है?

दरअसल देखा जाए तो खेल का शास्त्रीय प्रारूप कहे जाने वाले टेस्ट क्रिकेट में भारत की दुर्गति कुछ तो खिलाड़ियों और खेल प्रशासकों के रवैय्ये का नतीजा है और कुछ इस संस्करण के वक्त से तालमेल न बिठा पाने का. ज्यादातर लोग मानते हैं कि इसका नुकसान आखिरकार खेल को ही होना है.

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पहले सवाल से शुरू करते हैं. टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से देखें तो भारतीय टीम लगातार नीचे लुढ़कती जा रही है. इंग्लैंड दौरे ने इस कथन पर मुहर भी लगा दी है. लेकिन दौरे के तुरंत बाद भारतीय टेस्ट टीम के अधिकांश खिलाडी चैंपियंस लीग (ट्वेंटी ट्वेंटी सीरीज) में जीतोड़ ताकत लगा रहे हैं. उधर, मैनचेस्टर टेस्ट मैच तीन दिन में ही हारने के बाद धोनी बोल रहे थे कि तीन दिन में हार का एक पहलू यह भी है कि अगला टेस्ट मैच शुरू होने पहले टीम को दो दिन का अतिरिक्त आराम मिल जाएगा. उनकी यह बात साफ संकेत देती है कि बतौर क्रिकेटर और टीम वे टेस्ट क्रिकेट से कितनी जल्दी छुट्टी लेना चाहते हैं. 2011 में लगातार दो विदेशी दौरों पर करारी हार के बाद कप्तान धोनी ने यहां तक कह दिया था कि 2013 के आखिर तक वे यह फैसला ले लेंगे कि उन्हें टेस्ट क्रिकेट आगे खेलना चाहिए या नहीं.

आखिर क्यों मौजूदा भारतीय खिलाड़ी इस खेल के लंबे प्रारूप को लेकर उत्साहित नहीं दिखते जबकि कहा जाता है कि टेस्ट क्रिकेट शास्त्रीय संगीत की तरह है जो सही मायने में खिलाड़ी की गहराई को परखता है. उसके खेल को संपूर्णता देता है. वर्तमान में क्रिकेट खेल रहे खिलाड़ियों ने 90 का वह दशक देखा है जब एकदिवसीय क्रिकेट की लोकप्रियता अपने चरम पर थी. यही वजह है कि उनके मन और खेल पर खेल के इस छोटे प्रारूप की बनिस्बत बड़ी छाप पड़ी. बाद में ट्वेंटी ट्वेंटी मैचों ने क्रिकेट के छोटे प्रारूप को नए आयाम दे डाले. इनका संबंध सिर्फ खेल से ही नहीं, उसमें छिपी कारोबार और नतीजतन आर्थिक मुनाफे से भी था. पांच दिन तक चलने वाले टेस्ट मैच से कहीं गुना ज्यादा मैच फीस खिलाड़ियों को तीन घंटे के एक आईपीएल मैच में मिलने लगी. टेस्ट मैच धैर्य और तकनीक की परीक्षा लेता है तो आईपीएल जैसे आयोजनों में धैर्य की दीवारों को तोड़ने की मांग रहती है. महेंद्र सिंह धोनी, रविंदर जडेजा, विराट कोहली, शिखर धवन, अश्विन आज एक दिवसीय क्रिकेट के माने जाने सितारे हैं, लेकिन बहुत से लोग हैं जो इन्हें तेंदुलकर, द्रविड़, कुंबले और गांगुली की कतार में रखने से हिचकते हैं. कहते हैं कि जो क्रिकेट खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट में सफल हो सकता है वह क्रिकेट की किसी भी विधा में सफल हो सकता है. तेंदुलकर, गांगुली और द्रविड़ की इस खूबी ने ही उन्हें क्रिकेट की हर विधा में सफल बनाया. मुरली विजय, चेतेश्वर पुजारा, शिखर धवन, विराट कोहली और अजिंक्य रहाणे ऐसे नाम हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे टेस्ट क्रिकेट में भारतीय टीम के नए स्तंभ हैं. कोहली को जब से टेस्ट टीम में सचिन तेंदुलकर द्वारा छोड़ी गई जगह यानी नंबर चार पर बल्लेबाजी करने का मौका मिला है तब से मीडिया पंडित एक अति आशावाद से साथ उनमें नए तेंदुलकर को ढूंढ़ने का अथक प्रयास कर रहे हैं. लेकिन तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी ग्लैमर की चकाचौंध नहीं बल्कि विशुद्ध खेल के प्रति सम्मान का परिणाम होते हैं.

कुछेक अपवाद जरूर होंगे, लेकिन मौजूदा भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों के मन में टेस्ट क्रिकेट के लिए कितना सम्मान है यह तो टीम के मुखिया धोनी का रवैय्या काफी कुछ बतला देता है. बहुत से जानकार यह भी मानने लगे हैं कि इन खिलाड़ियों की तकनीक भी अब टेस्ट के लिए उतनी माकूल नहीं रह गई है. बल्लेबाजी को ही लें. ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट के इस दौर में छक्के-चौकों की अहमियत इतनी बढ़ गई है कि लगभग सारे बल्लेबाज अपने बल्ले को मजबूती से पकड़ते हैं ताकि शॉटों में जान आ सके. टेस्ट क्रिकेट, खासकर इंग्लेंड, दक्षिण अफ्रीका और आस्ट्रेलिया में खेली जाने वाले टेस्ट क्रिकेट में सफलता के लिए जरूरी है कि बल्लेबाज बैट पर मजबूत पकड़ यानी हार्ड ग्रिप न बनाएं बल्कि गेंद की दिशा (Length) और उछाल (Bounce) को देखते हुए ग्रिप का इस्तेमाल करें. इंग्लैंड की परिस्थितियों में यही तकनीकी दिक्कत भारतीय बल्लेबाजो के पतन का कारण बनती रही है. दरअसल वहां की परिस्थितयों में गेंद सीम और स्विंग करती है. ऐसे में बल्लेबाज के लिए जरूरी होता है कि वह गेंद को जितना हो सके देर से खेले. मतलब गेंद को पूरी तरह से भांपने की कोशिश करे और फिर उसे सॉफ्ट हैंड्स के साथ खेले. लेकिन हुआ इसका उल्टा. भारतीय बल्लेबाज अपने अति उत्साह के चलते गेंद को जल्दी खेलने की कोशिश करते रहे. नतीजा टेस्ट सीरीज के आखिरी तीन मैचों में पूरी टीम का 150 -160 रनों के बीच पुलिंदा बंधने के रूप में सामने आया. यदि तकनीक की खामियां ढूंढने लगें तो बहुत कुछ मिल सकता है, लेकिन इन तकनीकी कमियों की जड़ बल्लेबाजों की उस ही प्राथमिकता में नजर आती है जिसका जिक्र लेख में पहले आ चुका है. यानी ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट.

एक आम व्यक्ति जो क्रिकेट मनोरंजन के लिए देखता है वह टी-20 के जरिए ग्लोबलाइज्ड हो रहे क्रिकेट का आदी हो चुका है. उसे टेस्ट क्रिकेट नहीं भाता

जहां तक स्पिनरों की बात है तो तो उनके लिए भी प्राथमिकता वही है जिसका जिक्र बल्लेबाजों के संदर्भ में आ चुका है.  ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट के बाद से स्पिनरों की वह खेप खत्म होती दिख रही है जो गेंद को फ्लाइट कराना चाहती है या बल्लेबाज को फ्रंट फुट पर लाना चाहती है. आजकल स्पिनर ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट में छक्के-चौकों के डर से इतना भयभीत हैं कि गेंद को फ्लाइट कराने से डर रहे हैं. आर अश्विन, रविंदर जडेजा से लेकर हरभजन सिंह जैसे गेंदबाज तक लगभग हर गेंद पर कंधे का इस्तेमाल करते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इंग्लैंड दौरे पर भारतीय टीम में एक लेग स्पिनर जरूर होना चाहिए था. इंग्लिश बल्लेबाज लेग स्पिन के सामने कुशलता से नहीं खेल पाते. इसकी पुष्टि समकालीन इतिहास के महानतम लेग स्पिनर शेन वार्न के इंग्लैंड के खिलाफ रिकार्ड पर नजर डालने से भी होती है. वार्न हर एशेज श्रृंखला में इंग्लिश बल्लेबाजों को अपनी लेग स्पिन की धुन से परेशान कर दिया करते थे. भारतीय क्रिकेट में अमित मिश्रा और पीयूष चावला को छोड़ ऐसा कोई भी लेग स्पिनर नहीं है जिसे इस दौरे पर ले जाया जा सकता था. फिर यह भी है कि लेग स्पिनरों पर कप्तान धोनी का विश्वास हमेशा संदेह की नजर से देखा गया है. भारतीय टीम शुरूआती तीन टेस्ट मैचों में सपाट विकेट पर ट्वेंटी ट्वेंटी खेलने वाले रविंदर जडेजा के साथ उतरी. जडेजा अपनी गेंदबाजी से कम और इंग्लिश तेज गेंदबाज जेम्स एंडरसन के साथ विवाद के लिए सुर्खियां बटोरते रहे. यह विवाद न जडेजा की गेंदबाजी में कुशलता का सृजन कर पाया न भारतीय टीम के प्रदर्शन में. साफ है कि भ्रमवश या फिर मजबूरी के मारे भारतीय टीम उन खिलाड़ियों के साथ खेल रही है जो टेस्ट क्रिकेट के माकूल नहीं दिखते.

बदलाव एक जमाना था जब टेस्ट मैचों के दौरान स्टेडियम खचाखच भरे रहते थे, लेकिन अब दर्शक नाममात्र के होते हैं
बदलाव एक जमाना था जब टेस्ट मैचों के दौरान स्टेडियम खचाखच भरे रहते थे, लेकिन अब दर्शक नाममात्र के होते हैं

2 COMMENTS

  1. सम़ की मांग फटाफट करिकेट है टैसट मैच का पतन होना खिलाडियों के पास
    फटाफटmindsetहै आर टैसट मे अछीperformanceकीउमिदकैसे कर सकते है खिलाडी़इसके लिये तैयार नही है

  2. धोनी odiका खिलाडी़ बन चुका है उसे टैसट में उतारना उसके साथअनयाय करना हैटैसट के लिये ऩया कैपतान तैयार करो

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