अमेरिका में मोदी, आसमान में मीडिया

modi-obamaप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे पर प्रचार की इतनी धूल-धुंध छाई हुई है कि उसका ठीक-ठीक और तटस्थ मूल्यांकन मुश्किल हो गया है. बेशक, ऐसी यात्राओं का प्रतीकात्मक मूल्य अक्सर उनके वास्तविक मूल्य से बड़ा होता है और वह बाद में इस वास्तविक मूल्य को निर्धारित करने में भी मदद करता है, लेकिन प्रतीकात्मक ढंग से भी इस पूरी यात्रा पर जिस तरह का मोदीमेनिया हावी रहा, उससे यह समझना आसान नहीं रह गया है कि हम इस पूरे दौरे को किस निगाह से देखें.

इसमें शक नहीं कि आज की दुनिया में भारत की मजबूत होती हैसियत की वजह से नरेंद्र मोदी के इस दौरे की अपनी एक अहमियत रही. इसमें भी शक नहीं कि भारत में उन्हें जो विराट बहुमत मिला है, वह कहीं न कहीं उस भरोसे से प्रेरित रहा है जो नरेंद्र मोदी लोगों के भीतर जगाने में कामयाब रहे- लेकिन यह भरोसा जितना देसी धरती पर जनमा है, उससे ज्यादा उस विदेशी धरती पर, जहां अनिवासी भारतीयों का एक बहुत बड़ा समुदाय नरेंद्र मोदी से बिल्कुल किसी जादू की उम्मीद लगा बैठा है. यही वजह है कि नरेंद्र मोदी का अमेरिका दौरा जितना अमेरिकियों या बराक ओबामा के लिए महत्वपूर्ण था, उससे कई गुना ज्यादा महत्वपूर्ण इस अनिवासी समुदाय के लिए था- खासकर इसलिए भी कि कहीं न कहीं इस समुदाय के भीतर 2005 में नरेंद्र मोदी को वीजा न दिए जाने की कसक रही और वह इस तथ्य में प्रगट भी हुई कि नरेंद्र मोदी के लिए 2014 में वही कुर्सी तैयार रखी गई, जिस पर 2005 के अपने दौरे में उन्हें बैठना था. इसी अनिवासी भारतीय समुदाय ने नरेंद्र मोदी के लिए मैडिसन स्क्वेयर को मोदीसन स्क्वेयर में बदल डाला.

निस्संदेह अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी नरेंद्र मोदी के दौरे को अहमियत दी, इसका प्रमाण यह तथ्य है कि दोनों ने मिलकर वाशिंगटन पोस्ट में एक साझा टिप्पणी लिखी जिसे पहले संपादकीय का नाम दिया जा रहा था. आजकल नरेंद्र मोदी जो कुछ भी करते है, उसे ऐतिहासिक करार दिए जाने की बहुत ख़तरनाक बीमारी के प्रति एक सुचिंतित दूरी बरतते हुए भी यह कहना पड़ेगा कि यह कदम वाकई इस मायने में ऐतिहासिक है कि पहले ऐसी कोई दूसरी मिसाल याद नहीं आती जब दो राष्ट्राध्यक्षों ने मिलकर किसी साझा लेख पर अपनी मुहर लगाई हो. यह प्रश्न गौण है कि उस लेख में कहा क्या गया, महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा रिश्तों के स्तर पर इतने करीब आए या दिखने की कोशिश करते रहे जिसमें वे साथ-साथ लेख तक लिख सकते हैं.

तो नरेंद्र मोदी की एक बड़ी उपलब्धि तो यही है कि उन्होंने बराक ओबामा के साथ ऐसी संगति बिठाई जो बिल्कुल बराबरी पर दिखाई पडती है. बेशक, मोदी की इस हैसियत के पीछे भारत में उनको मिले विराट बहुमत के अलावा अमेरिका में बसे 33 लाख भारतीय प्रवासियों की लगातार मजबूत हो रही आर्थिक-सामाजिक और कुछ हद तक राजनीतिक पकड़ का भी हाथ है जिन्हें बराक ओबामा की पार्टी नजरअंदाज नहीं कर सकती. अमेरिका में बसे 40 लाख चीनियों के बाद भारतीयों की तादाद सबसे बड़ी है और कई इलाकों में उनकी राजनीतिक हैसियत भी अहमियत रखती है. इस हैसियत को ध्यान में रखते हुए बराक ओबामा के लिए यह मुमकिन नहीं था कि भारतीय प्रधानमंत्री पांच दिन के लिए अमेरिका की धरती पर आएं और उन्हें नज़रअंदाज कर दिया जाए.

लेकिन क्या वाकई अमेरिका भारत या नरेंद्र मोदी के आगे उस तरह बिछा या नतमस्तक दिखाई देता रहा जैसा भारतीय मीडिया अमेरिका में बसे भारतीयों की मार्फत दिखाता और बताता रहा? दरअसल मोदी के अमेरिका दौरे के मूल्यांकन की सीमाएं और मुश्किलें यहीं से शुरू होती हैं. भारतीय मीडिया जैसे बताता रहा कि ओबामा को नरेंद्र मोदी का बेसब्री से इंतज़ार है. जबकि सच्चाई यह है कि अमेरिका या बराक ओबामा की तात्कालिक चिंता भारत या दक्षिण एशिया की नहीं, पश्चिम एशिया की राजनीति है जहां आइएस जैसा खूंखार आतंकवादी संगठन बाकायदा अपना राज स्थापित करता दिखाई पड़ रहा है. लीबिया से इराक तक सबकुछ तहस-नहस करने के बाद अमेरिका पा रहा है कि इन आतंकवादियों को रोकने में उसकी मदद भी अब तक कारगर नहीं हो पाई है. इसके अलावा सीरिया, सऊदी अरब, ईरान और इराक के उलझे हुए राजनीतिक समीकरणों के बीच कोई शांतिपूर्ण समाधान भी फिलहाल नज़र से दूर है. इन सबसे अलग अफगानिस्तान और पाकिस्तान की तालिबानी पट्टी अमेरिका का एक और सिरदर्द है.

बराक ओबामा ने सिर्फ नरेंद्र मोदी के लिए अपना दस्तरखान बिछाया हो, ऐसा नहीं है. इस साल रमजान के महीने में वे छह बार वाइट हाउस में इफ्तार डिनर दे चुके हैं और एक दिन उपवास भी रख चुके हैं. जाहिर है, उन्हें मालूम है कि अमेरिका की बदनीयती या नेकनीयती या नासमझी की वजह से इस्लामी दुनिया में उसके प्रति जो शत्रु भाव पैदा हुआ है, वह हथियारों से नहीं, दूसरी तरह के सरोकारों से ही ख़त्म होगा. लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत की उनके लिए कोई अहमियत ही नहीं है. 70 और 80 के दशकों में अमेरिका के लिए एशिया में जो हैसियत चीन रखता था, वह अब भारत की है. चीन अब अमेरिका के लिए दोस्त से ज्यादा प्रतिद्वंद्वी है और इस विशाल प्रतिद्वंद्वी की पूरी घेराबंदी के लिए अमेरिका को भारत जैसे विशाल देश से ज्यादा उपयुक्त साथी और कौन मिलेगा. इत्तेफाक से अमेरिका अगर अपने पीछे लगे चीन से परेशान है तो भारत अपने से काफी आगे खड़े चीन से. अगर आने वाले दशक एशिया के होने हैं तो एशिया में वह चीन के साथ-साथ भारत के भी दशक हों, इसके लिए भारत को अमेरिका जैसा मजबूत सहयोगी चाहिए. दरअसल नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा के बीच की बातचीत का सबसे अहम पहलू यही है- दोनों अगर साथ चलते हैं तो दोनों के हित सधते हैं. भारत के साथ इस दोस्ती में अमेरिका की हिचक बस इतनी होगी कि वह उस पाकिस्तान का क्या करे जो अपनी भौगोलिक हैसियत से दक्षिण एशिया में है, लेकिन अपनी मज़हबी पहचान के साथ पश्चिम एशिया के राजनीतिक समीकरणों से भी जुड़ा हुआ है.

जहां तक भारत और अमेरिका के आपसी लेनदेन का सवाल है, वहां इस दौरे के बावजूद दोनों ने एक-दूसरे की अपेक्षाएं पूरी की हों, ऐसा नहीं दिखता. सुरक्षा परिषद में भारत के प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर अमेरिका ने एक लंबा कूटनीतिक जवाब दिया है जिसमें बदली हुई सुरक्षा परिषद में भारत की नुमाइंदगी बढ़ाने की ज़रूरत को रेखांकित भर किया गया है. अमेरिका सीधे-सीधे एक बार भी कहने को तैयार नहीं है कि वह भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन करता है. दूसरी तरफ विश्व व्यापार संगठन के समझौते को लेकर भी भारत ने अपना रुख़ बरक़रार रखा है कि जब तक भारत की खाद्य सुरक्षा का खयाल नहीं रखा जाता, तब तक ऐसे समझौते उसके लिए संभव नहीं हैं. शांतिपूर्ण ऐटमी सहयोग की बातचीत आगे बढ़ाने की बात है, लेकिन यह साफ़ नहीं है कि भारत में ऐटमी जवाबदेही कानून के मौजूदा रूप से नाखुश अमेरिकी कंपनियां अब यहां कारोबार करने को तैयार हैं या नहीं. बेशक, भारत ने मेक इन इंडिया नीति के तहत अमेरिका की प्रतिरक्षा कंपनियों को भारत आने का न्योता दिया है और नरेंद्र मोदी अमेरिका की 17 बड़ी कंपनियों के कर्ताधर्ताओं से निजी तौर पर मिले हैं, लेकिन उनकी दिलचस्पी के बावजूद उनके निवेश की ठोस हकीकत खुलनी अभी बाकी है.

बहरहाल, नरेंद्र मोदी के इस कामयाब अमेरिकी दौरे का सबसे बड़ा खतरा वही दिखाई पड़ता रहा जो उनकी अंदरूनी राजनीति में दिखाई पड़ता है- उनके पीछे किसी अविवेकी हुजूम की तरह खड़ा वह घोर दक्षिणपंथी और अतिराष्ट्रवादी तबका, जिसे देश में उसकी राजनीतिक हैसियत ने नई ताकत दे दी है और विदेश में उसकी आर्थिक हैसियत ने. यह तबका देश में लव जेहाद से लेकर सांस्कृतिक उन्माद तक फैलाता रहता है और विदेश में नरेंद्र मोदी के दौरे की ठोस हकीकत को नजरअंदाज कर कुछ इस तरह पेश करना चाहता है जैसे वे अमेरिका न गए हों, आसमान में उड़ रहे हों. दुर्भाग्य से इस देसी-विदेशी तबके के साथ वह नया भारतीय मीडिया भी खड़ा है जिसके भीतर तार्किक विश्लेषण का गुण लगातार कम हो रहा है. वरना संयुक्त राष्ट्र की जिस आम सभा में पौने दो सौ मुल्कों के नेता अपनी बारी आने पर 15-15 मिनट बोलने वाले हों, वहां नरेंद्र मोदी के हिंदी भाषण में भी ऐतिहासिकता खोजने की नासमझ कोशिश करता वह नहीं दिखता. इसी तरह मैडिसन स्क्वेयर गार्डन के कार्यक्रम में भी अपने देश के प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए टिकट ख़रीद कर बैठे उत्साही प्रवासी भारतीयों के ‘मोदी-मोदी’ के स्वाभाविक हुंकारे को वह अखिल अमेरिकी आह्वान में बदलने का उत्साह न दिखाता. या फिर भारत के वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई के साथ हुई बदतमीज़ी को वह तरह-तरह के वीडियो पेश करके ढंकने की कोशिश न करता.

दरअसल यह एक आसान देशभक्ति है जो छोटे-छोटे कर्तव्य पूरे करके संतुष्ट हो लेती है और उसके बड़े दाम वसूल करना चाहती है. अमेरिकियों के लिए भारत आने पर वीजा या आप्रवासी भारतीयों के लिए जीवन भर का वीजा जैसी घोषणाओं के साथ मोदी ने इसकी शुरुआत की है. आने वाले दिनों में उसे कारोबार में रियायतें चाहिए, गुड़गांव और ग्रेटर नोएडा के फ्लैटों में इन्वेस्टमेंट के नाम पर लगाई गई रकम का शानदार रिटर्न चाहिए और हवाई अड्डों, सड़कों और इमारतों के बीच ऐसा साफ-सुथरा हिंदुस्तान चाहिए जहां धरती पर पांव रखने से वे गंदे न हों. इस तबके के लिए नरेंद्र मोदी का दौरा ऐतिहासिक होगा, लेकिन बाकी सवा अरब के भारत के लिए उसकी अहमियत क्या है. यह आने वाले दिन बताएंगे.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here