
भाजपा ने अपने घोषणापत्र में जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने की बात क्या की यह विवादास्पद मुद्दा एक बार फिर गर्म हो गया. अलग-अलग पार्टियों ने अपने-अपने राजनीतिक हितों के हिसाब से इसे लेकर बयानबाजी शुरू कर दी. गौरतलब है कि यह धारा भारतीय गणतंत्र में जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा देती है. 1947 में विभाजन के समय जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह पहले आजाद रहना चाहते थे, लेकिन बाद में वे भारत में विलय के लिए राजी हो गए. जम्मू-कश्मीर में पहली अंतरिम सरकार बनाने वाले नेशनल कॉफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला ने भारतीय संविधान सभा से बाहर रहने की पेशकश की थी. इसके बाद भारतीय संविधान में धारा 370 का प्रावधान हुआ जिसमें जम्मू-कश्मीर को विशेष अधिकार दिए गए. 1951 में राज्य को संविधान सभा अलग से बुलाने की अनुमति दी गई. , 1956 में इस संविधान का काम पूरा हुआ और 26 जनवरी, 1957 को राज्य में यह विशेष संविधान लागू कर दिया गया. इसके प्रावधानों के मुताबिक संसद जम्मू-कश्मीर के लिए रक्षा, विदेश मामले और संचार जैसे विषयों पर कानून बना सकती है, लेकिन किसी अन्य विषय से जुड़ा कानून वह राज्य सरकार की हामी के बिना लागू नहीं कर सकती. इसी विशेष दर्जें के कारण जम्मू-कश्मीर पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती जिसमें कोई संवैधानिक संकट पैदा होने पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है. इसी दर्जे के कारण 1976 का शहरी भूमि कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता जिसके अनुसार भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कहीं भी भूमि खरीदने का अधिकार है. यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते. भारतीय संविधान की धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती. यही वजह है कि लंबे समय से इस धारा पर अलग-अलग दलों का अलग-अलग रुख रहा है.
लेकिन देखा जाए तो राजनीतिक रोटियां सेंकने के अलावा ऐसे रुख का कोई खास मकसद नहीं. इसकी वजह यह है कि अमल के हिसाब से देखें तो बीते 67 सालों के दरम्यान धारा 370 का वजूद काफी हद तक खत्म हो चुका है. हाल ही में एक अखबार में प्रकाशित अपने लेख में चर्चित अर्थशास्त्री और जम्मू-कश्मीर सरकार के सलाहकार रहे हसीब द्रबू का कहना था कि अपने आज के स्वरूप में धारा 370 एक छाया से ज्यादा कुछ नहीं है. उन्होंने इसकी तुलना भूसे से की जिसमें से बीज काफी पहले अलग हो चुका हो.
अपने लेख में द्रबू धारा 370 के तहत ऐसे दस विशेषाधिकार गिनाते हैं जो जम्मू-कश्मीर को एक स्वायत्त इकाई बनाते हैं और जिनका बीते समय के दौरान क्षरण हुआ है. इनमें जम्मू-कश्मीर के लिए एक अलग संविधान से लेकर एक अलग झंडा, भारत के बाकी हिस्सों से यहां आने वालों के लिए एक दाखिला परमिट की अनिवार्यता, राज्य का अपना राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री यहां तक कि अपनी मुद्रा भी शामिल है. द्रबू बताते हैं कि कैसे ये सारे अधिकार राष्ट्रपति के आदेश या जम्मू-कश्मीर और भारत के संविधान में हुए संशोधनों के चलते खत्म हो गए हैं.
द्रबू कहते हैं कि भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए कई संवैधानिक आदेशों ने जम्मू-कश्मीर के संविधान की शक्तियों को खत्म कर दिया है. वे लिखते हैं, ‘इसकी 395 धाराओं में से 260 ऐसी हैं जिन्हें भारतीय संविधान की धाराओं ने निरस्त कर दिया है. बाकी 135 धाराएं भारतीय संविधान से ही मेल खाती हैं.’ द्रबू आगे कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर के संविधान की शक्ति को जिस चीज ने सबसे ज्यादा चोट पहुंचाई वह था इस संविधान के विषय में जारी हुआ दूसरा संशोधन आदेश. उनके मुताबिक 1975 में आए इस आदेश ने राज्य के विधानमंडल से राज्यपाल की नियुक्ति और चुनाव आयोग के गठन जैसे अहम मुद्दों पर राज्य के संविधान में संशोधन करने का अधिकार भी छीन लिया.
धारा 370 पर भाजपा के रुख से घाटी में राजनीतिक पार्टियां भी सक्रिय हो गई हैं. उनका कहना है कि किसी भी हाल में यह धारा बहाल रखी जाएगी. उधर, अलगाववादी कह रहे हैं कि उनका इससे कोई मतलब नहीं है जबकि सिविल सोसायटी का तर्क है कि इस धारा में अब बचाने के लिए खास कुछ नहीं बचा है.