इस साल साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित बेलारूस की खोजी पत्रकार और नॉन फिक्शन (गैर काल्पनिक) लेखिका स्वेतलाना एलेक्सीविच की सबसे चर्चित किताब ‘वॉयसेज फ्रॉम चर्नोबिल’ के बारे में पढ़ते हुए मेरा ध्यान सबसे पहले भोपाल गैस त्रासदी के साहित्यिक दस्तावेजीकरण की तरफ गया. यह किताब वर्ष 1986 में यूक्रेन के चर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र में हुए भयानक विस्फोट के दुष्परिणामों पर आधारित है. अपनी रिपोर्टिंग के दौरान स्वेतलाना ने दुनिया की सबसे वीभत्स औद्योगिक आपदाओं में से एक के तौर पर पहचाने जाने वाली ‘चर्नोबिल आपदा’ के पीिड़तों का कई सालों तक साक्षात्कार लिया. बारम्बार… तब तक लोगों से दोबारा-तिबारा मिलती रहीं, जब तक लोग घटना से जुड़ी अपनी सबसे ईमानदार ‘भावनात्मक याद’ उन्हें बता न दें. जाहिर है पीिड़तों की यादों के जरिये चर्नोबिल विभीषिका की कहानी का करुणामयी दस्तावेजीकरण करके उसे किताब की शक्ल देने का काम उनकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बना और उन्हें प्रसिद्धि दिलाई. स्वेतलाना का जन्म यूक्रेन में हुआ था पर उन्होंने अपना सारा जीवन यूक्रेन से सटे बेलारूस और उसके पड़ोसी स्लाविक क्षेत्रों में रिपोर्टिंग करते हुए बिताया. स्थानीय रूसी भाषा में रिपोर्ताज और किताबें लिखीं और हाशिये पर खड़े आम लोगों की जिंदगियां इतिहास में दर्ज करती रहीं.
स्वेतलाना को अभी-अभी मिले साहित्य के नोबेल पुरस्कार और ‘वॉयसेज फ्रॉम चर्नोबिल’ के साथ-साथ ‘वॉर्स अनवूमेनली फेस’ जैसी उनकी महत्वपूर्ण नॉन-फिक्शन (सत्य घटनाओं पर आधारित/ गैर काल्पनिक) किताबों ने एक तरफ जहां एक पत्रकार के तौर पर मुझे प्रेरित किया, वहीं मेरे जेहन में भोपाल गैस त्रासदी से लेकर हिंदी पत्रकारिता और हिंदी साहित्य तक से जुड़े कई सवाल भी पैदा किए. लेकिन इन सवालों पर आने से पहले इस साल के साहित्य नोबेल पुरस्कार के वैश्विक महत्व में झांकना जरूरी है.
आठ अक्टूबर की दोपहर घोषित हुआ साहित्य का नोबेल पुरस्कार मेरे लिए प्रोत्साहन और उम्मीद से भरी एक चिट्ठी की तरह था. शायद यह मेरे साथ हर पत्रकार के लिए गर्व का क्षण था. नोबेल पुरस्कार के इतिहास में पहली बार एक सक्रिय खोजी पत्रकार को नॉन-फिक्शन लेखन के लिए ये पुरस्कार दिया गया है. यहां यह दोहराना भी जरूरी है कि उपन्यासों, कविताओं और कहानियों जैसी विधाओं से पहचाने जाने वाले वैश्विक साहित्यिक संसार में नॉन फिक्शन विधा को दोयम दर्जे का समझा जाता रहा है. इस भेदभाव के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि ‘कल्पना की उड़ान’ भरकर ‘कला’ को ऊंचाइयों तक ले जाने की जो आजादी काल्पनिक उपन्यासों-कविताओं और कहानियों के पास है, वह सिर्फ सत्य घटनाओं पर आधारित नॉन-फिक्शन के पास कहां? इतना ही नहीं, हर रोज आपदाओं के बीच बदल रही दुनिया का दस्तावेजीकरण करने वाली रिपोर्ताज (लॉन्ग फॉर्म रिपोर्टिंग) की महत्वपूर्ण विधा को भी हिकारत की नजर से देखकर हमेशा खारिज ही किया गया है. ऐसे में स्वेतलाना को नोबेल मिलने की खबर आने के बाद जब कुछ लोगों से सोशल मीडिया पर नोबेल पुरस्कार समिति को ‘शेम शेम’ कहते हुए उनके गिरते हुए स्तर को कोसा तो मुझे बिलकुल भी हैरानी नहीं हुई. एक सज्जन ने तो पुरस्कार समिति से ही सवाल किया कि क्या वे यह भूल गए थे कि स्वेतलाना सिर्फ एक ‘पत्रकार’ हैं?