आठ साल की साजिदा इतनी डरी हुई है कि हम उससे बात करें, उससे पहले ही वह दौड़कर एक टेंट में छिप जाती है. यह टेंट उस राहत शिविर का हिस्सा है जो असम के बक्सा जिले में बेकी नदी के किनारे एक जगह पर लगाया गया है. साजिदा यहां अपने अब्बा और एक बहन के साथ रह रही है. उसकी मां और एक छोटी बहन दो मई को इलाके में हुई हिंसा की भेंट चढ़ गए.
वह दोपहर बक्सा जिले के खगराबाड़ी और नारायणगुड़ी गांवों पर कहर बनकर टूटी. अचानक जंगलों से हथियारबंद लोग प्रकट हुए और अंधाधुंध गोलियां चलाने लगे. घबराए गांव वाले बेकी नदी के दूसरी पार बसे भंगरपार की तरफ भागे. बात करने की काफी कोशिशों के बाद साजिदा बताती है, ‘हम खाना खा रहे थे. अब्बा बाजार गए हुए थे. तभी अचानक धमाकों की आवाजें आने लगीं. हम बाहर निकले तो देखा कि कई घरों में आग लगी हुई है. मुंह पर काला नकाब लगाए लोगों की एक टोली तेजी से हमारी तरफ आ रही थी. ये लोग गोलियां चला रहे थे. मां ने मुझे और दो बहनों से चिल्लाकर कहा कि भागो. सब लोग बेकी नदी की तरफ भाग रहे थे. सो हम भी भागने लगे.’
इतना कहकर साजिदा रुक जाती है. यह स्वाभाविक ही है क्योंकि आगे क्या हुआ यह बताना उसके लिए सबसे पीड़ादायक अनुभव है. वह बताती है, ‘मैं भाग रही थी. पीछे मुड़कर देखा तो मां गिर गई थी. जब तक मैं कुछ समझती तब तक मेरी छोटी बहन अमीना भी मां के पास ही गिर गई. दोनों के बहुत खून निकल रहा था. मैंने अपनी दूसरी बहन हफीजा का हाथ पकड़ा और नदी में छलांग लगा दी. इसके बाद हम तैरकर दूसरी तरफ निकल आए.’
दो दिन तक चले इस खूनखराबे की सबसे बड़ी गाज बच्चों पर ही पड़ी. 40 से ज्यादा मृतकों में 20 बच्चे ही थे. अकेले बक्सा में ही 32 लोग मारे गए. तहलका ने इस जिले में लगाए गए एक राहत शिविर का दौरा किया जहां नारायणगुड़ी और खगराबाड़ी के करीब 500 लोग शरण लिए हुए हैं. साजिदा के अब्बा सैफुल इस्लाम कहते हैं, ‘हम लोग वापस नहीं जाना चाहते. शायद हम कभी जा भी नहीं पाएंगे. मैंने अपनी बीवी और बच्ची खो दी. लगभग हर घर में एक मौत हुई है. गैर बोडो लोगों के लिए यहां कोई सुरक्षा नहीं है.’
यहां से उनका मतलब बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट्स यानी बीटीएडी से है. कोकराझार, चिरांग, बक्सा और उदलगुड़ी जिलों से मिलकर बना असम का यह हिस्सा काफी समय से जातीय और क्षेत्रीय तनाव की आग में झुलसता रहा है. लेकिन जो इस समस्या को सुलझा सकते हैं उन्होंने ऐसा करने की बजाय एक बड़ी हद तक इस तनाव से अपने राजनीतिक हित साधने की कोशिश की है. यानी आगे के आसार भी अच्छे नहीं हैं. स्थिति इसलिए भी और खराब होने की आशंका जताई जा रही है क्योंकि इस लोकसभा चुनाव में कोकराझार सीट पर एक गैरबोडो उम्मीदवार विजयी हुआ है. उल्फा के पूर्व सदस्य हीरा सरनिया ने बीटीएडी में पड़ने वाली इस लोकसभा सीट पर लंबे समय से कब्जा जमाए हुए बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) को मात दे दी है. इसके चलते बोडो और गैर बोडो गुटों के बीच टकराव का एक नया दौर शुरू हो सकता है.
2012 में भी बोडो आदिवासियों और बांग्लाभाषी मुसलमानों के बीच हुए खूनी टकराव में 100 से भी ज्यादा लोगों की जान चली गई थी और पांच लाख से भी ज्यादा लोगों को विस्थापित होना पड़ा था. इससे पहले ही नाजुक हो चुके बोडो और गैर बोडो समुदायों के संबंध और बिगड़ गए थे. हालिया हिंसा का दौर एक मई को शुरू हुआ जब बक्सा के एक दूरस्थ गांव में एक ही परिवार के तीन सदस्यों को गोली मार दी गई. ये सभी बांग्लाभाषी मुस्लिम समुदाय से थे. इस हमले के तुरंत बाद ही कोकराझार जिले के बालापाड़ा गांव में एक और हमला हुआ. यहां आठ लोगों की हत्या कर दी गई. यहां भी मरने वालों में ज्यादातर बांग्लाभाषी मुस्लिम समुदाय की महिलाएं और बच्चे थे. इससे संकेत मिला कि सब कुछ बहुत सोच समझकर किया जा रहा है. जल्द ही कोकराझार से 190 किमी दूर खगराबाड़ी से और ज्यादा शव बरामद किए गए.
इन बर्बर हत्याओं के पीछे गहरी राजनीतिक साजिश के संकेत मिल रहे हैं. सैफुल कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि जिस तरह से लोगों ने इस बार लोकसभा चुनाव में वोट दिया उसके चलते हम पर हमला हुआ. गैर बोडो लोगों में से ज्यादातर और खासकर मुस्लिम समुदाय ने गैर बोडो उम्मीदवार को वोट दिया. ये हमलावर बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) के पूर्व सदस्य थे जिन्हें वन विभाग में नौकरियां मिल गई हैं. ये लोग बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) का समर्थन करते हैं जो इस चुनाव में हार गया है.’
बीटीएडी में ज्यादातर लोग हिंसा की इस हालिया कड़ी का कारण वही मानते हैं जो सैफुल को लगता है. 1952 से कोकराझार लोकसभा सीट पर बोडो उम्मीदवार ही जीतता रहा है. लेकिन इस बार गैरबोडो समुदायों ने एकमुश्त उल्फा के पूर्व कमांडर नबा सरनिया उर्फ हीरा सरनिया के पक्ष में वोट किया. उनको इलाके में रह रहे गैर बोडो लोगों के 21 जातीय और भाषाई समूहों से मिलकर बने संगठन सम्मिलित जनगोष्ठी एक्यमंच का समर्थन भी हासिल था.
2012 में हुई हिंसा के बाद बोडो और गैरबोडो लोगों के बीच की खाई और चौड़ी हो गई थी. 2013 में अलग तेलंगाना राज्य बनने के साथ अलग बोडोलैंड की पुरानी मांग ने फिर जोर पकड़ लिया. दरअसल एक अलग राज्य की मांग को लेकर 1987 में बोडोलैंड आंदोलन शुरू हुआ था. ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (एबीएसयू) के उपेंद्रनाथ ब्रह्मा इसकी अगुवाई कर रहे थे. उनकी मांग थी कि असम को दो बराबर हिस्सों में बांटा जाए. आंदोलन को पहली सफलता 1993 में मिली. इस साल बोडोलैंड आटोनॉमस काउंसिल (बीएसी) बनी. लेकिन यह प्रयोग विफल रहा. इसके बाद नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) और बीएलटी ने कई साल तक इलाके में अस्थिरता फैलाए रखी. बीएलटी के हथियार डालने के फैसले के बाद 2003 में बोडोलैंड समझौता हुआ. एनडीए सरकार के समय हुए इस समझौते के बाद बीटीसी वजूद में आया. लेकिन इससे भी हिंसा नहीं थमी. उल्टे नए तनाव पैदा हो गए. दरअसल गैर बोडो समुदायों के लोग बोडो शासन या कहें कि राजनेता बने पूर्व उग्रवादियों के अधीन खुद को असहज महसूस करने लगे. खासकर बंगाली मुसलमानों को लगा कि उन्हें भी राजनीतिक रूप से खुद को मजबूत करना होगा. इसके चलते राज्य में ऑल इंडिया यूनाइटेड फ्रंट (एआईयूडीएफ) का उभार हुआ. तब से पार्टी इस इलाके में बड़ी संख्या में वोट पाती रही है. यह इस बात से समझा जा सकता है कि बदरुद्दीन अजमल की अगुवाई वाला एआईयूडीएफ राज्य विधानसभा में आज दूसरा सबसे बड़ा दल है. यही वजह है कि बीटीएडी का इलाका राजनीतिक रूप से इतना अहम हो गया है.
इस इलाके में दंगों का पुराना इतिहास है. बोडो समुदाय का पहले भी उन दूसरे लोगों से टकराव होता रहा है जिन्हें वे बाहरी मानते हैं. इनमें आदिवासी और बंगाली हिंदू-मुसलमान शामिल हैं. हालांकि 2012 की हिंसा के बाद ऐसा लग रहा था कि लोग बार-बार की हिंसा से तंग आ चुके हैं. लेकिन हालिया हिंसा से यह बात गलत साबित हो गई. गैर बोडो जिन्हें ओबोडो भी कहा जाता है, इस इलाके की आबादी का कुल 70 फीसदी हैं. इन लोगों की प्रतिनिधि संस्थाओं में से ज्यादातर अलग बोडोलैंड के खिलाफ हैं. उन्हें डर है कि अगर अलग राज्य बना तो वे पूरी तरह से दब जाएंगे. उधर, बोडो नेताओं को लगता है कि गैर बोडो समुदाय के विरोध की वजह से ही उनकी मांगें कमजोर पड़ जाती हैं. इससे इस इलाके में तनाव लगातार बढ़ रहा है.
गैर बोडो चाहते हैं कि बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) में पड़ने वाले 3000 गांवों में से 600 को परिषद से बाहर किया जाए जहां दूसरे समुदायों की आबादी ज्यादा है. इस परिषद की कमान हग्राम मोहिलारी के नेतृत्व वाले बीपीएफ के हाथ है. उग्रवाद का रास्ता छोड़कर राजनीति में आए मोहिलारी 2006 से राज्य में कांग्रेस के सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं. विधायी, कार्यकारी व न्यायिक अधिकार रखने वाली इस परिषद के अधिकार क्षेत्र में पड़ने वाली 40 विधानसभा सीटों में से 30 आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं. हीरा सरनिया की जीत 2015 में होने वाले बीटीसी के चुनावों पर गहरा असर डाल सकती है. कुछ आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर दूसरे गैर बोडो बोडो समुदाय के खिलाफ जा सकते हैं. इसलिए कई हैं जो मानते हैं कि समय रहते उस टकराव को रोकना बहुत जरूरी है.
ओबोडो सुरक्षा समिति के सचिव दिलावर हुसैन कहते हैं, ‘कई साल से गैर बोडो लोग हिंसा और डर से जूझ रहे हैं. असम सरकार, खासकर मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने हमें बोडो उग्रवादियों की दया पर छोड़ दिया है. इसलिए हमने सोचा कि अगर संख्या के मामले में हमारे वोट सबसे ज्यादा हैं तो हम इस समस्या को शायद चुनाव के जरिये सुलझा सकें. अतीत में हम लोगों ने बोडो उम्मीदवारों को ही चुना है जो न सिर्फ हमें सुरक्षा देने में नाकाम रहे हैं बल्कि इन हत्याओं का समर्थन भी करते हैं. वे हर बंगाली मुसलमान को बांग्लादेशी कह देते हैं. इसलिए हमने तय किया कि हम हीरा सरनिया को वोट देंगे. हम गैर बोडो समुदायों के अधिकारों की खातिर लड़ने के लिए उन जैसा मजबूत आदमी चाहिए.’ बक्सा में कॉलेज में पढ़ रहे रहमत अली भी कुछ ऐसा ही कहते हैं, अगर हमारे पास संख्या है तो हम राजनीतिक रूप से और भी ज्यादा दावेदारी चाहते हैं. बोडो उग्रवादियों के चलते हम पहले से ही दंगा, फिरौती और वसूली की मार झेल रह रहे हैं. उस पर अगर बोडोलैंड बन गया तो हमें बाहर निकाल दिया जाएगा.
चुनाव से पहले हुई हिंसा पर सरनिया कहते हैं, ‘उन्हें (बीपीएफ को) डर है कि उनका बुरा वक्त शुरू हो चुका है. मुझे बक्सा के दुर्गम इलाकों में भी मजबूत समर्थन मिला है. बीपीएफ कैडर ने इन्हीं इलाकों में महिलाओं और बच्चों की हत्या की है. उनका मकसद यह संदेश देना है कि हमारे खिलाफ वोट करने की हिम्मत मत करो. लेकिन लोग बदलाव चाहते हैं. वे चाहते हैं कि यह अराजकता खत्म हो.’
हालांकि एक और गहरा और चिंताजनक पहलू भी है जिसकी कोई बात नहीं कर रहा. यह है इलाके के आर्थिक नियंत्रण का. राज्य इंटेलीजेंस के एक अधिकारी कोकराझार की रणनीतिक अहमियत बताते हैं. पूर्वोत्तर के इस एंट्री प्वाइंट की सीमा पश्चिम बंगाल के श्रीरामपुर से मिलती है जहां यह शेष भारत के साथ चिकन नेक कॉरीडोर कहे जाने वाले एक संकरे गलियारे के जरिये जुड़ता है. ये अधिकारी बताते हैं, ‘श्रीरामपुर गेट पर एक सिंडीकेट हर महीने करोड़ों की रकम वसूल करता है. यह पैसा इसके बाद उग्रवादियों, राजनेताओं, पुलिस और बोडो उग्रवादियों में बंटता है. यह अवैध टैक्स चुकाए बिना कोई भी ट्रक पूर्वोत्तर में नहीं घुस सकता.’ इलाके में चल रहे दूसरे कई हथियारबंद गुट भी श्रीरामपुर गेट की अहमियत समझ चुके हैं और वे भी इस रकम में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं. यही वजह है कि इलाके में अवैध हथियारों की बहुतायत है.