
20 साल का अंडरग्रैजुएट छात्र शबीर आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएस) का झंडा नहीं फहराता पर वह मास्क पहने हुए उस समूह का हिस्सा है जिसने श्रीनगर की बड़ी मस्जिद के बाहर सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाए थे. वह सड़क के दूसरी ओर खड़े आईएस के झंडे लहराने वाले युवकों की ओर प्रशंसा और समर्थन भरी नजरों से देखता है. साफ नजर आता है कि अगर मौका मिले तो शबीर भी इस तरह से झंडों को लहराना चाहेगा.
शबीर दुनिया को कश्मीर के अलगाववादी हलके की विचारधारा के माध्यम से देखता है जो उसके आसपास के सामाजिक दायरे में भी प्रचलित है. वह आईएस के बारे में कुछ मोटी-मोटी बातें जानता है. जैसे- बड़ी ताकतों के खिलाफ आईएस का पुरजोर संघर्ष और किसी से कोई समझौता न करने वाला उनका विचारधारात्मक रुझान. लेकिन आईएस के क्रूर व्यवहार के बारे में शबीर काफी कम जानता है और जो कुछ जानता है वह उसे इस्लाम का नाम बदनाम करने के लिए झूठे प्रचार के रूप में देखता है. लंबे और पतली कद-काठी वाले शबीर का कहना है, ‘जो लोग अल्लाह में ऐतबार के लिए अपनी जान दे सकते हैं, वे बुरे नहीं हो सकते हैं. सच्चा मुसलमान इस दुनिया और यहां की भौतिक सुविधाओं से प्यार नहीं करता.’ शबीर के भीतर भले ही आईएस के झंडे लहराने की इच्छा दबी हो लेकिन वह आतंकवादी नहीं बनना चाहता. उसका मानना है कि पत्थर फेंककर विरोध का तरीका बंदूक उठाने की अपेक्षा ज्यादा कारगर है. वह कहता है, ‘पत्थर फेंककर आप कश्मीर की समस्याओं की ओर तुरंत ध्यान खींचते हैं और ऐसा करने के लिए आपको भूमिगत भी नहीं होना पड़ता. लेकिन मैं बंदूक और बंदूक उठाने वालों की कद्र करता हूं. वे भी कश्मीर के लिए लड़ रहे हैं.’
श्रीनगर के घनी बसावट वाले मुख्य इलाके में रहने वाले शबीर की उम्र के युवा कैसा सोचते हैं यह शबीर का नजरिया उसी का प्रतिबिंब है. 90 के दशक में शहर की गलियों में दिल दहलाने वाली हिंसा देखते हुए बड़ी हुई इस पीढ़ी के दिल में नई दिल्ली (भारत) के प्रति स्वाभाविक रूप से अलगाव का भाव है. इनके लिए भारत महज कोई दूसरा देश नहीं है, बल्कि उनके ऊपर मंडराता एक खतरा है. साथ ही कश्मीर में जो कुछ भी गलत हुआ है, इसके लिए ये युवा स्वाभाविक रूप से भारत को जिम्मेदार मानते हैं. पिछले 25 सालों से कश्मीर की तनावपूर्ण स्थिति जिसमें व्यापक पैमाने पर सेना की मौजूदगी, कश्मीरियों के साथ हर रोज होने वाली ज्यादतियां और आजादी की उनकी मांग की अनदेखी शामिल है, इन सबके लिए वे भारत को जिम्मेदार ठहराते हैं. वर्तमान स्थिति को लेकर भी युवाओं में गहरा असंतोष व्याप्त है. अपने दिलोदिमाग में वे इस असंतोष को ‘कश्मीर समस्या’ के तहत परिभाषित करते हैं.
वर्ष 2008-10 के दौरान फैले असंतोष में सुहैल अहमद ने 19 साल की उम्र में सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाले 12 लोगों के एक समूह का नेतृत्व किया था. सुहैल के अनुसार, ‘इस साल 26 जनवरी को जो कुछ भी हुआ वो सबके सामने है. श्रीनगर में कर्फ्यू लगा और इंटरनेट-फोन बंद कर दिए गए थे. क्या इस सबसे लगता है कि हम भारत का हिस्सा हैं?’ सुहैल को 2009 और 2010 में गिरफ्तार किया गया. उसके खिलाफ पुलिस ने तीन अलग-अलग थानों में एफआईआर दर्ज कराई थी. बकौल सुहैल, ‘ऐसा इसलिए किया गया ताकि मुझे जेल में अधिक समय तक रखा जा सके.’ बारामूला के खानयार इलाके के सुहैल बताता है कि इसी तरह उसके तमाम साथियों के खिलाफ थानों में केस दर्ज किए गए हैं.
श्रीनगर के मुख्य इलाके और दक्षिणी व उत्तरी कश्मीर के गांवों के युवाओं की प्राथमिकताओं में काफी अंतर है. इन गांवों के युवाओं में आतंकवाद की ओर रुझान बढ़ रहा है
2010 में जब सुहैल कक्षा 12 में पढ़ता था तो पुलिस की ज्यादतियों के कारण और जूतों की दुकान में अपने पिता की मदद करने के लिए उसे स्कूल छोड़ना पड़ा. वह बताता है कि इन सबके बावजूद उसने कश्मीर के सवाल को नहीं छोड़ा. उसके शब्दों में, ‘श्रीनगर के मुख्य इलाके के युवा आजादी की जंग के स्वाभाविक योद्धा हैं. पत्थर फेंकने वाले समूह फिर से मजबूत हो गए हैं और हमें जो भूमिका मिली है, हम उसकी अनदेखी नहीं कर सकते.’
श्रीनगर में पत्थर फेंककर विरोध जताने का इतिहास पुराना है. कश्मीरियों ने पत्थर फेंकने का यह तरीका 1940 में तत्कालीन डोगरा राजवंश के अत्याचारों के खिलाफ शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में भी अपनाया था. 1947 में कश्मीरियों ने एक बार फिर से विरोध का यह तरीका तब अपनाया जब भारत और पाकिस्तान दोनों देश इस हिमालयी राज्य पर अपना-अपना दावा करने लगे. बाद के दशकों में कश्मीर के सवाल को लेकर जब-तब होने वाले राजनीतिक उबाल के समय या फिर भारत सरकार के खिलाफ उठने वाले असंतोष को जाहिर करने के लिए प्रदर्शनकारियों के लिए पत्थर सबसे मुफीद हथियार बन गए.
90 के दशक में पत्थरों की जगह कहीं अधिक खतरनाक हथियार बंदूकों ने ले ली. चार लाख की आबादी वाले श्रीनगर में लगभग 12,000 आतंकवादी उठ खड़े हुए जो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ), हिजबुल मुजाहिदीन (एचएम), लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) जैसे आतंकी संगठनों से जुड़े थे. पिछले डेढ़ दशक के दौरान इनमें से अधिकांश आतंकवादियों को मारा जा चुका है और बाकियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा. इससे कश्मीर में हिंसा का ग्राफ बिल्कुल नीचे आ चुका है. 2010 तक श्रीनगर में आतंकवाद घटकर फिरदौस अबद बतमालू में रह रहे एक आतंकी सजाद अहमद खान तक सिमट गया. उसी साल जम्मू के राजौरी में यह आतंकी एक एनकाउंटर में मारा गया और इसी के साथ श्रीनगर को आतंकवाद मुक्त घोषित कर दिया गया. साथ ही बड़गाम और गांदरबल सहित श्रीनगर में अाफ्स्पा को बनाए रखने पर बल दिया गया. लेकिन आतंकवाद के गिरते ग्राफ से खाली हुई जगह फिर से पत्थर फेंकने वाले समूह ले रहे हैं ताकि स्थिति सामान्य न हो सके और ‘संघर्ष जारी’ रहे. श्रीनगर में आए दिन नकाबपोश युवाओं के कुछ समूहों की ओर से विरोध प्रदर्शन या बंद का आह्वान कर दिया जाता है. इन प्रदर्शनों के बीच पुुलिस और पैरामिलिट्री पर पत्थर फेंका जाता है.
2010 के बाद लगातार तीन गर्मियों के मौसम में पत्थर फेंकने का चलन व्यापक तौर पर बढ़ता ही गया. श्रीनगर के मुख्य इलाके से निकलकर यह दक्षिणी और उत्तरी कश्मीर के शहरी क्षेत्रों के साथ ही गांवों तक भी फैल गया. पत्थर फेंकने वाले इन प्रदर्शनों की व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2011 में पत्थर फेंकने के जुर्म में पकड़े 1800 युवाओं को राज्य सरकार की एमनेस्टी योजना के तहत छोड़ा गया. पड़ोसी देश और बाकी दुनिया में बदलती जेहादी प्रवृत्तियों के प्रभाव में आकर कभी-कभी युवा लश्कर-ए-तैयबा, तालिबान और अलकायदा के झंडे भी लहराते हैं. प्रदर्शनों के दौरान पत्थरबाजी फिर से शुरू होने से पहले विरोध करने वाली भीड़ से कुछ देर के लिए बाहर निकलकर कुछ युवा आईएस के झंडे मीडिया के सामने लहराते हैं और वापस उसी भीड़ में कहीं गुम हो जाते हैं. 25 साल के जाहिद रसूल के अनुसार, ‘आईएस के झंडे हम इस संगठन के समर्थन में नहीं लहराते बल्कि भारत को परेशान करने के लिए लहराते हैं. हमें वो सब कुछ पसंद है जिससे भारत नफरत करता है, ठीक वैसे ही जैसे हमारी आजादी से भारत नफरत करता है.’