‘गुजराती समाज के सांप्रदायिकीकरण की लंबी प्रक्रिया चलाई गई थी’

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अपनी किताब  ‘गुजरात बिहाइंड द कर्टेन’  के बारे में बताइए?

यह किताब 2015 में प्रकाशित हुई थी, लेकिन इसका लोकार्पण नहीं हो सका था. इसके लिए न तो प्रकाशक और न ही किसी और ने हिम्मत दिखाई क्योंकि लोगों को एक तरह का डर है. इस किताब में मूल रूप से वही बातें हैं जो मैंने अपने एफिडेविट में दी थीं, यह सारा रिकाॅर्ड मेरी वेबसाइट पर उपलब्ध था लेकिन उसकी पहुंच ज्यादा नहीं थी. फिर मैंने इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए पुस्तक का रूप देने के बारे में सोचा, क्योंकि मुझे लगा कि पुस्तक के रूप में इसे ज्यादा लोग पढ़ेंगे. लोगों ने भी सुझाव दिया कि इसे पुस्तक का रूप देते हुए प्रकाशित किया जाए. इस तरह से ये किताब ‘गुजरात बिहाइंड द कर्टेन’ सामने आई जिसका उद्देश्य सच्चाई को सामने लाना है. किताब तैयार होने के बाद कोई भी प्रकाशक इसे प्रकाशित करने को तैयार नहीं हो रहा था. एक प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक ने तो इसे चार महीने अपने पास रखने के बाद यह कहते हुए वापस कर दिया कि इसमें खतरनाक बातें हैं. जब मैंने उनसे कहा कि इस किताब में जो भी लिखा है, उसके सपोर्टिंग दस्तावेज मेरे पास हैं और सारी जवाबदेही मेरी होगी, लेकिन उनका कहना था कि हम एक कंपनी हैं और कोई रिस्क नहीं ले सकते.

240 पृष्ठों की इस किताब में कुल 14 अध्याय हैं, पहले अध्याय में 2002 के नरसंहार का संदर्भ बताया गया है. दूसरे अध्याय में उस समय के वातावरण का विवरण है. तीसरे में इस बात का उल्लेख है कि कैसे मैंने एक पुलिस आॅफिसर के तौर पर अपने कर्तव्यों का पालन किया. चौथे अध्याय में है कि कैसे सत्य की विजय हुई. पांचवें में मैंने लिखा है कि कैसे अपना काम ईमानदारी से करने की वजह से मुझे दंडित किया गया और मैंने इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी. छठे अध्याय में जांच आयोग की उदासीनता का विवरण है. सातवां अध्याय जांच टीम द्वारा की गई लापरवाही के बारे में है. आठवें अध्याय में यह विवरण है कि कैसे मैंने गलत आदेशों को नहीं माना. नौवें अध्याय में मैंने उन अधिकारियों के बारे में बताया है जिन्होंने दंगों में सहयोग किया था और इसी अध्याय में उन अधिकारियों के बारे में भी बताया गया है जिन्होंने कानून के अनुसार कार्य करते हुए हिंसा नहीं होने दी. दसवां अध्याय कांग्रेस व समाजवादी पार्टी की फर्जी धर्मनिरपेक्षता को लेकर है. ग्यारहवें अध्याय में दंगे और राजधर्म का उल्लेख किया गया है. बारहवें अध्याय में बताया है कि गुजरात दंगे से हम क्या सबक सीख सकते हैं. तेरहवें अध्याय में राजनीति के अपराधीकरण का विवरण है और अंतिम अध्याय में मेरे वे पत्र शामिल हैं जो मैंने प्रधानमंत्री, तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी, केरल के मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री को लिखे थे. 

वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के तौर पर गुजरात दंगों के दौरान आपने क्या महसूस किया?

दंगों के दौरान हालात बहुत खराब थे, उस समय मैं ऑफिस के लिए अहमदाबाद से गांधीनगर आता था. मैंने खुद देखा कि किस तरह से पुलिस की टुकड़ी खड़ी हुई है और दंगाई लोगों को मार रहे हैं, दुकानें जला रहे हैं. दंगे की तैयारी बहुत पहले से की गई थी क्योंकि मुस्लिम मिल्कियत वाली दुकानों और घरों को चिह्नित करके जलाया गया था. इसके कई उदाहरण आपके सामने पेश कर सकता हूं. एक बार देखा कि बाटा की एक दुकान जलाई गई है. मैंने अपने सहयोगी पुलिसकर्मी से पूछा कि इन लोगों ने बाटा की दुकान क्यों जलाई तो उन्होंने बताया कि इसमें मेमन लोगों का 50 प्रतिशत शेयर है. इसी तरह से मेट्रो शूज की दुकानों को निशाना बनाया गया क्योंकि इनकी ओनरशिप में भी मुस्लिम समुदाय के लोग थे. इससे स्पष्ट है कि दंगे की तैयारी बहुत पहले से की गई थी और बाकायदा अध्ययन किया गया था कि कौन-सी दुकान हिंदुओं की थी और कौन-सी मुसलमानों की. यहां तक कि कई हिंदू नाम वाले होटलों पर भी हमले हुए क्योंकि उसे मुस्लिम चला रहे थे. ऐसा लगता है उनका इरादा मुसलमान समुदाय को आर्थिक रूप से भी तोड़ देने का था.

गुजरात में जो कुछ भी हुआ, उसमें आप राजनीति, पुलिस-प्रशासन और समाज की भूमिका को कैसे देखते हैं?

गुजरात में 2002 में हुई घटनाएं सुनियोजित थीं. इसके लिए पहले से योजनाएं बनाई गई थीं. फरवरी और मार्च के महीनों में गुजरात के 11 जिलों में बिना किसी रोक-टोक के हिंसा होती रही क्योंकि इसे संरक्षण प्राप्त था. उस दौरान पुलिस-प्रशासन की भूमिका मूकदर्शक की बनी रही. मैंने जांच के दौरान पाया कि हिंदुत्ववादी संगठनों के लोगों ने गुजरात हिंसा को अंजाम दिया और इसमें उन्हें मोदी सरकार का संरक्षण प्राप्त था. प्रशासन ने जिन स्थानों पर दंगाइयों की मदद की या मौन रही वहीं पर ही बड़ी घटनाएं हुईं. इन हिंसक घटनाओं के प्रति समाज का रवैया भी संवेदनहीन था. जो थोड़ी-बहुत प्रतिक्रियाएं हुईं भी, वे भी कुछ शहरों और कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित थीं. लेकिन ये सब अचानक नहीं हुआ था. इसकी एक पृष्ठभूमि है. गुजराती समाज के सांप्रदायिकीकरण  के लिए लंबी प्रक्रिया चलाई गई थी. गुजरात में ऐसा जनमानस बना दिया गया था कि लोग हिंदू और मुसलमान को अलग-अलग प्रजाति की तरह मानने लगे थे. ऐसा लगता था मानो लोगों में एक-दूसरे के प्रति नफरत और घृणा की भावना ‘बोन मैरो’ (अस्थि-मज्जा) तक इंजेक्ट कर दी गई हो. इन सबमें कांग्रेस की भी भूमिका है, क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता का दिखावा ही करती रही और उन्होंने जमीनी स्तर पर इस प्रक्रिया के जवाब में कुछ नहीं किया. इसी तरह से मुसलमानों के ‘अरबीकरण’ की प्रक्रिया भी चलाई गई.

‘लोगों में एक-दूसरे के प्रति नफरत और घृणा की भावना ‘बोन मैरो’ तक इंजेक्ट कर दी गई. इन सबमें कांग्रेस की भी भूमिका है, क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता का दिखावा ही करती रही. इसी तरह से मुसलमानों के ‘अरबीकरण’ की प्रक्रिया भी चलाई गई’

गुजरात दंगों में और उसके बाद भी पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठते रहे हैं? इस बारे में आप क्या कहेंगे?

ऐसा नहीं है कि गुजरात में पुलिस की भूमिका सिर्फ नकारात्मक रही है, बल्कि गुजरात पुलिस ने कई राज्यों के मुकाबले इस मामले में बेहतर भूमिका निभाई है. गुजरात में दंगों के दौरान 30 पुलिस प्रशासनिक जिले थे, जिसमें से केवल 11 जिलों में गंभीर हिंसा की घटनाएं हुईं, अन्य 11 जिलों में कोई भी बड़ी घटना नहीं हुई और न ही कोई हत्या हुई. बाकी जिलों में भी छिटपुट घटनाएं ही देखने को मिलीं. इसलिए यह व्यवस्था की असफलता नहीं थी, बल्कि यह कई अधिकारियों की व्यक्तिगत असफलता थी. ज्यादातर जिलों में व्यवस्था बनी रही तो इसका श्रेय व्यवस्था और प्रतिबद्ध अधिकारियों को जाता है. इसके बाद जिन लोगों ने दंगे रोकने का प्रयास किया या चार्जशीट में दर्ज ‘आधिकारिक’ बयान पर असहमति जताई थी, उन्हें अनेक तरीकों से दंडित किया गया जिसमें मैं भी शामिल हूं. सांप्रदायिक परिस्थितियों में किस तरह का एक्शन लेना है इसके लिए पुलिस मैन्युअल में एसओपी (Standard Operating Procedures Manual) है, जिसे घटनाओं के समय कार्यान्वित करना जरूरी है लेकिन ज्यादातर अधिकारियों ने गलत एफिडेविट दिया जो कि मोदी साहब द्वारा बनवाया गया था और सरकार के समर्थन में था, केवल मैंने और राहुल शर्मा ने अपना एफिडेविट बनाया था. इसका हमें खामियाजा भी भुगतना पड़ा. गुजरात सरकार ने मेरे खिलाफ गुपचुप तरीके से ‘सीक्रेट डायरी’ बनाने और सरकार के गोपनीय दस्तावेज जांच पैनल को मुहैया कराने के आरोप लगाए. मुझे धमकी दी गई थी कि अगर मैंने सच बोला तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. नौकरी के आखिरी चार सालों में मोदी साहब ने मुझे कोई काम नहीं दिया और मेरी पदोन्नति भी रोक दी गई. उस दौरान मेरे पास कोई फाइल नहीं भेजी जाती थी, बस मुझे एक कमरे में बैठा दिया गया था और एक चपरासी दे दिया गया था. मुझे वहां आकर सुबह से शाम तक खाली बैठे रहना पड़ता था.

आप लंबे समय तक पुलिस सेवा में रहे हैं, इस दौरान पुलिसिंग में किस तरह के बदलाव आए?

पहले के मुकाबले परिस्थितियों में बदलाव आया है. यह बदलाव इमरजेंसी के बाद स्पष्ट देखा जा सकता है जिसके बाद से पॉलिटिकल ब्यूरोक्रेसी (मंत्री) की तरफ से सिविल ब्यूरोक्रेसी (पुलिस-प्रशासन) को ये संदेश आने लगे कि आपको क्या और कैसे करना है. इस तरह से पुलिस और प्रशासन के लोग दबाव में काम करने को मजबूर किए जाने लगे लेकिन फिर भी उस समय अगर कोई अधिकारी दबाव में कोई काम करने से मना कर देता था तो राजनेताओं की तरफ से उन पर ज्यादा दबाव नहीं डाला जाता था.

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ऐसा नहीं है कि गुजरात में पुलिस की भूमिका सिर्फ नकारात्मक रही है, बल्कि गुजरात पुलिस ने कई राज्यों के मुकाबले इस मामले में बेहतर भूमिका निभाई है. गुजरात में दंगों के दौरान 30 पुलिस प्रशासनिक जिले थे, जिसमें से केवल 11 जिलों में हिंसा की गंभीर घटनाएं हुईं

प्रशिक्षण के बाद मुझे गुजरात कॉडर मिला, वहां मैं सात जिलों में एसपी रहा. स्थानीय नेता और एमएलए लोग मुझे किसी भी जिले में 10 माह से ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. पहले के राजनेता थोड़े बेहतर थे और कई बार मुख्यमंत्री तबादला करने से पहले मुझे बुलाकर कहते थे कि मैं आपके काम से खुश हूं लेकिन आप स्थानीय विधायक से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं. मुझे उनकी बात भी सुननी पड़ेगी, इसलिए आपको कहीं और भेजना पड़ेगा.

अब तो पुलिस का राजनीतिकरण कर दिया गया है. राजनेता चाहते हैं कि पुलिस उनके मन और विचार के अनुसार ही काम करे. नेताओं के इस स्वभाव को मैं एंटीसिपेटरी साइकोफेंसी यानी अग्रिम चाटुकारिता कहता हूं. पुलिस भी, जो लोग सत्ता में होते हैं उनके कहने के अनुसार काम करने लगी है. अब उसका मकसद सत्ताधारी नेताओं और पार्टी को खुश करना हो गया है. इसकी वजह से आज हम देखते हैं कि कई पुलिस अधिकारी राजनेताओं को खुश करने के लिए एनकाउंटर तक कर रहे हैं. पुलिस में बहुत गिरावट आई है. सीआरपीसी में कॉन्स्टेबल से लेकर डीजी तक के अधिकारों का उल्लेख है. विधायिका ने उन्हें सीधे तौर पर शक्ति दी है लेकिन वे इन शक्तियों के उपयोग की जगह राजनेताओं के दबाव में काम करने लगे हैं.

नरेंद्र मोदी आपसे नाराज क्यों हो गए थे?

9 अप्रैल, 2002 को जब मुझे एडीजीपी (इंटेलीजेंस) के तौर पर पोस्ट किया गया तो मैंने डीजी साहब को साफ कहा था कि मैं सच ही रिपोर्ट करूंगा. मेरे पास फील्ड से हेड कॉन्स्टेबल, इंस्पेक्टर जो रिपोर्ट भेजते थे, मैंने उन पर एक्शन लेना शुरू कर दिया जो कि ज्यादातर संघ परिवार के खिलाफ थे. यह सब मोदी साहब को अच्छा नहीं लगा होगा, उस समय आला अधिकारियों ने मुझसे यहां तक कहा कि आप हिंदुओं के खिलाफ काम कर रहे हैं.

अपनी किताब के हर अध्याय की शुरुआत भी आप धर्म ग्रंथों से उद्धरण देकर करते हैं, एक तरफ वह हिंदू धर्म है जिस पर आप विश्वास करते हैं लेकिन दूसरी तरफ हिंदुत्व के ही नाम पर अलग तरह का समाज और देश बनाने की कोशिश की जा रही है, इन दोनों में क्या फर्क देखते है?

दोनों में बहुत फर्क है. हिंदुत्व का आंदोलन हिंदू धर्म के मूल आदर्शों के खिलाफ है, मेरा जिस हिंदू दर्शन में विश्वास है वो गांधी जी की तरह है जो भगवद्गीता में विश्वास करते थे जबकि उन लोगों का जिस हिंदू धर्म में विश्वास है वो गोडसे की तरह का है. अजीब बात है कि गोडसे ने अपनी पुस्तक ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’ में लिखा है कि उन्होंने गांधी जी की हत्या भगवद्गीता से प्रेरणा लेकर की है. यहां हम देखते हैं कि गांधी और गोडसे दोनों की प्रेरणा भगवद्गीता ही है. ठीक इसी तरह से जिन लोगों ने हजारों गरीब और निर्दोष मुसलमानों को मार डाला है अगर उनका प्रेरणास्रोत भगवद्गीता है तो मुझे भी गीता से ही प्रेरणा मिलती है. मैं मानता हूं कि जिस तरह से ‘आईएसआईएस’ और ‘अलकायदा’ का राजनीतिक इस्लाम, इस्लाम धर्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है उसी तरह से संघ परिवार और दूसरे हिंदुत्ववादी संगठनों की विचारधारा भी हिंदू धर्म के खिलाफ है. हिंदू धर्म तो इतना विविध है कि एक ही परिवार में एक भाई नशा करके मांस खाकर काली की आराधना कर सकता है, वहीं दूसरा भाई बिना प्याज-लहसुन खाए विष्णु की पूजा करता है. मैंने लालकृष्ण अाडवाणी को भेजे गए अपने पत्र में उनसे पूछा था कि अगर आप मुझे हिंदू धर्म की मूल पुस्तकों में एक भी ऐसा श्लोक दिखा दें जो मस्जिद तोड़ने को जायज ठहरता हो तो मैं आपका समर्थन करने को तैयार हो जाऊंगा. इबादतगाहों को तोड़ना किसी भी ग्रंथ में नहीं लिखा है और जिन लोगों ने ऐसा किया है उन्होंने हिंदू धर्म के खिलाफ काम किया है, आईएसआईएस ने इस्लाम का जितना नुकसान किया है उतना किसी और का नहीं किया है. इसने सबसे ज्यादा मुसलमानों को ही मारा है. इसी तरह से हिंदुत्ववादी भी हिंदू धर्म के लिए खतरनाक हैं और इनको रोकना सच्चे हिंदू का कर्तव्य है.

आजकल जिस तरह खुलेआम भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात की जा रही है, भविष्य के मद्देनजर इसे आप कैसे देखते हैं?

मैं ये मानता हूं कि अभी भी बहुसंख्यक भारतीय सर्वधर्म सद्भावना में विश्वास करते हैं. आज भी आप दरगाहों, मजारों पर बड़ी संख्या में हिंदुओं को देख सकते हैं. हमारे देश की सबसे बड़ी खासियत यही है कि लोग भले ही अपने धर्म को ज्यादा पसंद करते हों लेकिन इसी के साथ वे दूसरों की धार्मिक भावनाओं को भी इज्जत देते हैं. हमारी इसी ताकत को तोड़ने की कोशिश की जा रही है और इसके बदले संघ परिवार देश और समाज पर हिंदुत्ववादी व्यवस्था को थोपने की कोशिश कर रहा है जो कि मूल रूप से ब्राह्मणवादी विचारधारा है. वर्तमान में इसके खतरे बढ़ गए हैं लेकिन हमारे देश और समाज की जिस तरह से बनावट है उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होने वाला है. मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में इसके खिलाफ प्रतिरोध की और आवाजें उठेंगी.